अर्थालंकार की परिभाषा, भेद, उदाहरण Hindi Grammar

जहाँ अर्थगत चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अर्थालंकार होता है।, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, सन्देह, भ्रन्तिमान, आदि अर्थालंकार हैं।
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अर्थालंकार की परिभाषा, भेद, उदाहरण

अर्थालंकार 

जहाँ अर्थगत चमत्कार उत्पन्न होता है, वहाँ अर्थालंकार होता है।

काव्य में जहाँ अलंकार(Arthalankar) का सौन्दर्य अर्थ में निहित हो, वहाँ अर्थालंकार होता है। इन अलंकारों में काव्य में प्रयुक्त किसी शब्द के स्थान पर उसका पर्याय या समानार्थी शब्द रखने पर भी चमत्कार बना रहता है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अन्योक्ति, सन्देह, भ्रन्तिमान, विभावना, विरोधभासास, दृष्टान्त आदि अर्थालंकार हैं।

अर्थालंकार के भेद 

अर्थालंकार(Arthalankar ke Bhed) के 100 से अधिक भेद होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-

उपमा अलंकार

काव्य में जब दो भिन्न व्यक्ति, वस्तु के विशेष गुण, आकृति, भाव, रंग, रुप आदि को लेकर समानता बतलाई जाती है अर्थात् उपमेंय और उपमान में समानता बतलाई जाती है, वहाँ उपमा अलंकार होता है। जैसे- नीलिमा चन्द्रमा जैसी सुन्दर है पंक्ति में नीलिमा और चन्द्रमा दोनों सुन्दर होने के कारण दोनों में सादृश्यता (मिलता-जुलतापन) स्थापित की गई है।
दो पक्षों की तुलना करते समय उपमा के निम्नलिखित चार तत्वों को ध्यान में रखा जाता है।

उपमेय

(जिसकी उपमा दी जाय।)
वर्णनीय व्यक्ति या वस्तु यानी जिसकी समानता अन्य किसी से बतलाई जाती है। जैसे- चांद-सा सुंदर मुख इस उदाहरण में मुख उपमेय है।

उपमान

(जिससे उपमा दी जाय।)
वह प्रसिद्ध वस्तु या प्राणी जिससे उपमेय की तुलना की जाए, उपमान कहलाता है। उसे अप्रस्तुत भी कहते हैं। ऊपर के उदाहरण में चाँद उपमान है।

समान धर्म

(जिस गुण आदि को लेकर उपमा दी जाय।)
उपमेय और उपमान का परस्पर समान गुण या विशेषता व्यक्त करने वाले शब्द साधारण धर्म कहलाते हैं। इस उदाहरण में सुंदर साधारण धर्म को बता रहा है।

वाचक शब्द 

(जिस शब्द से उपमा प्रकट की जाय।)
जिन शब्दों की सहायता से उपमा अलंकार की पहचान होती है। सा, सी, तुल्य, सम, जैसा, ज्यों, सरिस, के समानआदि शब्द वाचक शब्द कहलाते हैं। अन्य अदाहरण-  
१. पीपर पात सरिस मन डोला। 
२. कोटि कुलिस सम वचन तुम्हारा।

पहले उदाहरण में उपमेय (मन), उपमान (पीपर पात), समान धर्म (डोला) तथा वाचक शब्द (सरिस) उपमा के चारों अंगों का प्रयोग हुआ है अतः इसे पूर्णोपमा कहते हैं जबकि दूसरे उदाहरण में उपमेय (वचन), उपमान (कोटि कुलिस) तथा वाचक शब्द (सम) का प्रयोग हुआ है यहाँ समान धर्म प्रयुक्त नहीं हुआ है अतः इसे लुप्तोपमा कहा जाता है। क्योकि इसमें उपमा के अंगों का समावेश नहीं है।
उदाहरण - 1
मखमल के झूल पड़े, हाथी-सा टीला।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में टीला उपमेय है, मखमल के झूल पड़े हाथी उपमान है, सा वाचक शब्द है; किन्तु इसमें साधारण धर्म नहीं है। वह छिपा हुआ है। कवि का आशय है- मखमल के झूल पड़े 'विशाल' हाथी-सा टीला। यहाँ विशाल जैसा कोई साधारण धर्म लुप्त है अतएव इस प्रकार की उपमा का प्रयोग लुप्तोपमा अलंकार कहलाता है।

उदाहरण - 2
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे।
उपर्युक्त काव्य-पंक्ति में प्रातःकालीन नभ उपमेय है, शंख उपमान है, नीला साधारण धर्म है और जैसे वाचक शब्द है। यहाँ उपमा के चारों अंग उपस्थित है; अतएव यहाँ पूर्णोपमा अलंकार है।

उदाहरण - 3
काम-सा रूप, प्रताप दिनेश-सा 
सोम-सा शील है राम महीप का।

उपर्युक्त उदाहरण में राम उपमेय है, किन्तु उपमान, साधारण धर्म और वाचक तीन हैं- काम-सा रूप, दिनेश-सा प्रताप और सोम-सा शील। इस प्रकार जहाँ उपमेय एक और उपमान अनेक हों, वहाँ मालोपमा अलंकार होता है। मालोपमा होते हुए भी वह पूर्णोपमा है क्योंकि यहाँ उपमा के चारों तत्व विद्यमान है। 

🔯 उपमा अलंकार याद रखने की ट्रिक
जब पंक्ति में सा, सी, से, सरिस शब्दों का बोध हो या कोई योजक चिन्ह (-) आये वहा उपमा अलंकार होता है।
उदाहरण : मुख चन्द्रमा - सा सुन्दर है ।

 

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर!

  • जहाँ कोई शब्द एक बार प्रयुक्त हो किंतु प्रसंग भेद से उसके एक से अधिक अर्थ हों, वहाँ अलंकार होता है - श्लेष
  • अम्बर-पनघट में डूबो रही तारा-घट ऊषा-नागरी - रूपक
  • या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहिं कोय। ज्यों-ज्यों बूड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।। - विरोधाभास 
  • कनक-कनक ते सौगुनी मादकता अधिकाय। वा खाये बौराय जग या पाये बौराय।। - यमक
  • रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।। - श्लेष,
  • पीपर पात सरिस मन डोला। - उपमा
  • चरण कमल बंदौ हरिराई - रूपक
  • तरिन तनुजा तट तमाल तरुवर बहु छाये - अनुप्रास
  • बाण नहीं पहुँचे शरीर तक शत्रु गिरे पहले भू पर - अतिशयोक्ति
  • चन्द्र सा मुख - उपमा
  • मैं सुकुमार नाथ वन जोगू। तुमहिं तपहि मोहि कहँ भोगू - काकु वक्रोक्ति
  • पायं महावर देन को, नाइन बैठी आय । फिरि-फिरि जानि महावरी, ऐड़ी, मीड़ित जाय।। - भ्रांतिमान

रूपक अलंकार

उपमेय में उपमान का आरोप (निषेधरहित)
काव्य में जब उपमेय में उपमान का निषेध रहित अर्थात् अभेद आरोप किया जाता है अर्थात् उपमेय और उपमान दोनों को एक रूप मान लिया जाता है। वहाँ रूपक अलंकार(Rupak Alankar) होता है। इसका विश्लेषण करने पर उपमेय उपमान के मध्य 'रूपी' वाचक शब्द आता है। 


उदाहरण - 1
उदित उदयगिरि मंच पर, रघुवर बाल पतंग। 
विकसे संत-सरोज सब, हरषे लोचन-भृंग॥
प्रस्तुत दोहे में उदयगिरि पर मंच का, रघुवर पर बाल-पतंग (सूर्य) का, संतों पर सरोज का एवं लोचनों पर भृंगों (भौंरों) का अभेद आरोप होने से रूपक अलंकार है।

उदाहरण - 2
सिर झूका तूने नियति की मान ली यह बात। 
स्वयं ही मुर्झा गया तेरा हृदय-जलजात॥
उपर्युक्त पंक्तियों में हृदय-जलजात में हृदय उपमेय पर जलजात (कमल) उपमान का अभेद आरोप किया गया है।

उदाहरण - 3
विषय वारि मन-मीन भिन्न नहि, होत कबहुँ पल एक।
इस काव्य-पंक्ति में विषय पर वारि का और मन पर मीन (मछली) का अभेद-आरोप होने से यहाँ रूपक का सौन्दर्य है।


उदाहरण - 4
मन-सागर, मनसा लहरि, बूड़े-बहे अनेक। 
प्रस्तुत पंक्ति में मन पर सागर का और मनसा (इच्छा) पर लहर का आरोप होने से रूपक है।

उदाहरण - 5
शशि-मुख पर घूँघट डाले, अंचल में दीप छिपाए।
यहाँ मुख उपमेय में शशि उपमान का आरोप होने से रूपक का चमत्कार है।

रूपक अलंकर के अन्य उदाहरण -
  • मैया मैं तो चन्द्र-खिलौना लैहों। - यहाँ चन्द्रमा (उपमेय) में खिलौना (उपमान) का आरोप है।
  • चरण-कमल बंदौ हरिराई। - यहाँ हरि के चरणों (उपमेय) में कमल उपमान का आरोप है।
  • सब प्राणियों के मत्तमनोमयूर अहा नचा रहा। 
  • पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
🔯 रूपक अलंकार याद रखने की ट्रिक
जब पंक्ति में केवल योजक चिन्ह (-) आये और सा, सी, से, न आए वहा रूपक अलंकार होता है।
उदाहरण : मैया मई तो चन्द्र-खिलौना लैहो।

 

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर!

  • कबिरा सोई पीर है, जे जाने पर पीर। जे पर पीर न जानई, सो काफिर बेपीर।। - यमक
  • मार सुमार करी डरी, मरी मरीहिं न मारि। सींचि गुलाब घरी घरी, अरी बरीहिं न बारि।।(बिहारी) - अनुप्रास
  • पंकज तो पंकज, मृगांक भी मृगांक री प्यारी। मिली न तेरे मुख की उपमा, देखी वसुधा सारी। - लाटानुप्रास
  • भर लाऊँ सीपी में सागर प्रिय! मेरी अब हार विजय का? - विरोधाभास
  • चरण धरत चिंता करत, भावत नींद न शोर। सुबरन को ढूँढत फिरत, कवि, कामी और चोर।। - श्लेष
  • उस काल मारे क्रोध के तनु काँपने उसका लगा। मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा। - उत्प्रेक्षा
  • जहाँ अनेक पंक्तियों में एक ही शब्द के अनेक अर्थ निकलते हैं। तो उसमें कौन-सा अलंकार होता है। - श्लेष
  • रावण सिर सरोज वनचारी। चरि रघुवीर सिलीमुख धारी।। - श्लेष

उत्प्रेक्षा अलंकार

उपमेय में उपमान की संभावना।
जहाँ उपमेय में उपमान की सम्भावना अथवा कल्पना कर ली गई हो, वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। इसके बोधक शब्द हैं - मनो, मानो, मनु, मनहु, जानो, जनु, जनहु, ज्यों आदि।
उदाहरण- 1
मानो माई घनघन अन्तर दामिनी । घन दामिनी दामिनी घन अन्तर, सोभित हरि- ब्रज भामिनी॥
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में रासलीला का सुन्दर दृश्य दिखाया गया है। रास के समय पर गोपी को लगता था कि कृष्ण उसके पास नृत्य कर रहे हैं। गोरी गोपियाँ और श्यामवर्ण कृष्ण मंडलाकर नाचते हुए ऐसे लगते हैं मानो बादल और बिजली, बिजली और बादल साथ-साथ शोभायमान हो रहे हों। यहाँ गोपिकाओं में बिजली की और कृष्ण में बादल की सम्भावना की गई है। अतः उत्प्रेक्षा अलंकार है।
उदाहरण- 2
सोहत ओढ़े पीत पट, स्याम सलोने गात। मनहुँ नीलमनि सैल पर, आतप पर्यो प्रभात।।
उपर्युक्त काव्य-पंक्तियों में श्रीकृष्ण के सुन्दर श्याम शरीर में नीलमणि पर्वत की ओर उनके शरीर पर शोभायमान पीताम्बर में प्रभात की धूप की मनोरम सम्भावना अथवा कल्पना की गई है।


उदाहरण- 3
उसकाल मारे क्रोध के तनु काँपने उसका लगा। मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥
उपर्युक्त पंक्तियों में अर्जुन के क्रोध से काँपते शरीर में सागर के तूफ़ान की सम्भावना की गई है।
🔯 उत्प्रेक्षा अलंकार याद रखने की ट्रिक
जब पंक्ति में जनु, जानो, मनु, मानो, मनहु, ज्यो, त्यों आदि शब्द आये वहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार होता है।
उदाहरण : नेत्र मानो कमल है ।

अतिशयोक्ति अलंकार

बढ़ा-चढ़ाकर बताना।
उपमेय को निगलकर उपमान के साथ अभिन्नता प्रदर्शित करना।
जहाँ किसी वस्तु, पदार्थ अथवा कथन (उपमेय) का वर्णन लोक-सीमा से बढ़कर प्रस्तुत किया जाए, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण- 1
बालों को खोलकर मत चला करो दिन में रास्ता भूल जाएगा सूरज!
यहाँ नायिका के काले घने केशों को अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। भला बालों की घनी कालिमा के कारण सूरज रास्ता कैसे सकता है? अतः यहा अतिशयोक्ति अलंकार होगा।


उदाहरण- 2
भूप सहस दस एकहिं बारा। लगे उठावन टरत न टारा॥
धनुभंग के समय दस हजार राजा एक साथ ही उस धनुष (शिव-धनुष) को उठाने लगे, पर वह तनिक भी अपनी जगह से नहीं हिला। यहाँ लोक-सीमा से अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है, अतएव अतिशयोक्ति अलंकार है।
अन्य उदाहरण-
आगे नदियाँ पड़ी अपार, घोड़ा कैसे उतरे पार। राणा ने सोचा इस पार, तब तक चेतक था उस पार॥ 
(राणा अभी सोच ही रहे थे कि घोड़ा नदी के पार हो गया।) यह यथार्थ में असंभव है।

हनुमान की पूँछ में, लगन न पाई आग, लंका सिगरी जल गई, गए निसाचर भाग॥
(यहाँ हनुमान की पूँछ में आग लगने से पहले ही लंका के जल जाने का उल्लेख किया गया है जो कि असंभव है।)

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर!

  • पराधीन जो जन, नहीं स्वर्ग नरक ता हेतु। पराधीन जो जन नहीं, स्वर्ग नरक ता हेतु।। - अनुप्रास 
  • जहाँ शब्दों, शब्दांशों या वाक्यांशों की आवृत्ति हो, किंतु उनके अर्थ भिन्न हों, वहाँ कौन सा अलंकार होता है - यमक
  • मुख रूपी चाँद पर राहु भी धोखा खा गया - रूपक
  • जहाँ किसी वस्तु का लोक-सीमा से इतना बढ़कर वर्णन किया जाए कि वह असम्भव की सीमा पर पहुँच जाए - अतिशयोक्ति
  • नितप्रति पुन्योई रहे आनन ओस उजास।' पत्रा ही तिथि पाइये वा घर के चहुँ पास।। - अतिशयोक्ति
  • कनक-कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय - यमक
  • अजौ तर्योना ही रह्यो श्रुति सेवत इक रंग (बिहारी) - श्लेष (चिपका हुआ)
  • दृग अरुझत, टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति परति गाँठ दुरजन हिए, दई नयी यह रीति-(बिहारी) - असंगति
  • सखि नील नभस्सर से निकला, यह हंस अहा तिरता-तिरता। अब तारक मौक्तिक शेष नहीं निकला जिनको चरता-चरता।। - सांग रूपक

अन्योक्ति अलंकार

जहाँ अप्रस्तुत के द्वारा प्रस्तुत का व्यंग्यात्मक कथन किया जाए, वहाँ अन्योक्ति अलंकार होता है।
उदाहरण-1
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल। अली कली ही सों बँध्यो, आगे कौन हवाल॥
इस पंक्ति में भौरें को प्रताड़ित करने के बहाने कवि ने राजा जयसिंह की काम-लोलुपता पर व्यंग्य किया है। अतएव यहाँ अन्योक्ति है।
उदाहरण-2
जिन जिन देखे वे कुसुम, गई सुबीति बहार। अब अलि रही गुलाब में, अपत कँटीली डार॥
इस दोहे में अलि (भौरे) के माध्यम से कवि ने किसी गुणवान अथवा कवि की ओर संकेत किया है जिसका आश्रयदाता अब पतझड़ के गुलाब की तरह पत्र-पुष्पहीन (धनहीन) हो गया है। यहाँ गुलाब और भौंरे के माध्यम से आश्रित कवि और आश्रयदाता का वर्णन किया गया है। 
उदाहरण-3
वे न इहाँ नागर बड़े दिन आदर तौ आब। फूलौ अनफूलौ भयो, गँवई गाँव गुलाब।
इस सुन्दर अन्योक्ति में बड़ा पैना व्यंग्य है। इसमें तीन अर्थ ध्वनित हो रहे हैं, जिनमें एक (प्रत्यक्ष) और दो (अप्रत्यक्ष) मुख्य हैं।


कवि गुलाब (प्रतिभाशाली कलाकार अथवा रूप-यौवन संपन्न सुन्दरी) को कह रहा है कि इस गँवारों के गाँव में (असभ्य और संस्कारहीन लोगों को सभा में अथवा सौन्दर्य 71 की सराहना में अयोग्य लोगों की सभा में) तेरा फूलना न फूलना (गुणवान या गुणहीन होना) दोनों बराबर है।
उदाहरण-4
स्वारथ सुकृत न सम्र वृथा, देखि बिहंग विचारि।
बाज, पराए पानि परि, तू पच्छीनु न मारि॥
 उपर्युक्त अन्योक्ति में प्रत्यक्ष अर्थ तो यह है कि कवि बाज को समझाते हुए कहता है कि शिकारी के निर्देश पर तू अपनी ही जाति के अपने बंधु-बांधवों को क्यों मार रहा है? किन्तु वास्तव में वह राजा जयसिंह को हिन्दू राजाओं के साथ युद्ध करने से विरत करना चाहता है। यहाँ बाज से आशय राजा जयसिंह से, पच्छीनु से आशय हिन्दू राजाओं से और पराए पानि से आशय औरंगजेब से है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर!

उदित उदय गिरि-मंच पर रघुवर बाल पतंग । विकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन-भृंग।। - रूपक
जहाँ कारण बिना कार्य की उत्पत्ति होती हो, - विभावना
तो पर वारौ उर बसी, सुन राधिके सुजान। - यमक
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति। परत गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति। (बिहारी) - असंगति
वह शर इधर गाण्डीव गुण से भित्र जैसे ही हुआ। धड़ से जयद्रथ का इधर सिर छिन्न वैसे ही हुआ।। - अतिशयोक्ति
तरनि तनुजा तट कमाल तरुवर बहु छाए । झुके कूल जो जल परसन हित मनहु सुहाए।। - अनुप्रास
श्लेष अलंकार संबंधित है- शब्दालंकार
जहाँ उपमेय में उपमान की संभावना प्रकट की जाय - उत्प्रेक्षा अलंकार
तरणि के ही संग तरल तरंग में, तरणि डूबी थी हमारी ताल में। - यमक

संदेह अलंकार

जहाँ किसी वस्तु को देखकर संशय बना रहे, निश्चय न हो, वहाँ संदेह अलंकार होता है।
उदाहरण
तारे आसमान के हैं आये मेहमान बनि। केशों में निशा ने मुक्तावली सजायी है? बिखर गयो है चूर-चूर हैं कै चन्द्र कैधों, कैधों घर-घर दीप मालिका सुहायी है?
(यहाँ दीपमालिका में तारावली, मुक्तावली और चन्द्रमा के चूर्णीभूत कणों का संदेह होता है।)

अन्य उदाहरण-
  • सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है, कि सारी ही की नारी है, कि नारी ही की सारी है?
  • यह मुख है या चन्द्र है।

भ्रांतिमान अलंकार

जब भ्रमवश किसी एक चीज को देखकर उसके समान किसी अन्य वस्तु का भ्रम हो तब भ्रान्तिमान अलंकार होता है।
उदाहरण-1
वृन्दावन विहरत फिरै राधा नन्दकिशोर। नीरद यामिनी जानि सँग डोलैं बोलैं मोर॥
(वृन्दावन में राधा-कृष्ण विहार कर रहे हैं। रात में उन्हें सघन मेघ समझ मोर बोलते है और साथ-साथ चलते हैं।)

उदाहरण-2
नाक का मोती अधर की क्रांति से बीज दाड़िम का समझ कर भ्रांति से देखकर सहसा हुआ शुक मौन है सोचता है अन्य शुक यह कौन है?

उर्मिला की नाक में पहने हुए मोती पर ओठों की लाल आभा पड़ती है, जिससे वह अनार का बीज लगता है। तोता उर्मिला की नाक की कोई दूसरा तोता समझने लगता है। इस भ्रम के कारण यहाँ भ्रान्तिमान अलंकार है।

दीपक अलंकार

जहाँ उपमेय और उपमान दोनों का एक धर्म कहा जाए, वहाँ दीपक अलंकार होता है। अर्थात् जिस प्रकार एक स्थान पर रखा हुआ दीपक अनेक वस्तुओं को प्रकाशित करता है।
उदाहरण
रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून पानी गये न ऊबरे, मोती मानुस चून।
(इस दोहे में पानी को बनाए रखने का आग्रह किया गया है। यह आग्रह मनुष्य से किया गया है। इसलिए यहाँ मानुस प्रस्तुत है और मोती तथा चून अप्रस्तुत है। इस प्रकार यहाँ मानुष (प्रस्तुत) और मोती तथा चून (अप्रस्तुत) का एक ही धर्म पानी राखिए बताया है।)


अन्य उदाहरण-
  • कहत नटत रीझत खिझत, मिलत खिलत लजियात। भरे भौन में करत हैं नैयन ही सब बात॥ 
  • पिता मरण का शोक न सीता हर जाने का। लक्ष्मण हा! है शोक गृध के मर जाने का॥ 
  • मुख और चन्द्र शोभते है।

परीक्षोपयोगी प्रश्नोत्तर!

  • बिनु पद चलै सुनै बिनु काना। कर बिनु करम करै विधि नाना - विभावना
  • रनित भृंग घंटावली झरित दान मधुनीर। मंद-मंद आवत चल्यों कुंजरु कुंज समीर।। - यमक
  • माँ के शुचि उपकारों का, जीवन में अंत नहीं है। निस्वार्थ साधना पथ पर, माँ जैसा संत नहीं है।। - प्रतीप
  • मुख कमल समीप सजे थे, दो किसलय दल पुरइन के - रूपक
  • चरण-कमल बन्दौ हरिराई - रूपक
  • उतरि नहाये जमुन जल जो शरीर सम स्याम - प्रतीप
  • सम सुबरन सुखमाकर सुखद न थोर । सीय अंग सखि कोमल, कनक कठोर।। - व्यतिरेक
  • नीर भरे नित प्रति रहैं तऊ न प्यास बुझाई - विशेशोक्ति

विभावना अलंकार

विभावना शब्द का अर्थ है-(विशेष प्रकार की कल्पना)-जहाँ बिना कारण के ही कार्य हो जाये वहाँ विभावना अलंकार होता है।
उदाहरण-1
बिनु पद चले सुने बिनु काना। कर बिनु करम करे विधि नाना॥ 
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बाणी वकता, बड़ जोगी॥
यहाँ पैर के बिना चलना, कान के बिना सुनना और बिना हाथ के कार्य होना, इत्यादि कार्य बिना कारण ही सम्पादित हो रहे हैं।
उदाहरण-2

दुख इस मानव आत्मा का रे नित का मधुमय भोजन। दुख के तम को खा-खाकर, भरती प्रकाश से वह मन।। - सुमित्रानंदन पंत

इस पद्य में 'तम' खा कर प्रकाश से भरने का वर्णन किया गया है। विरुद्ध कारण से कार्य का संपादन होता है।

अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार

जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) का वर्णन करते हुए प्रस्तुत का कथन होता है, वहाँ अप्रस्तुत प्रशंसा अलंकार होता है।


उदाहरण
सागर की लहर लहर में है हास स्वर्ण-किरणों का। सागर के अन्तस्तल में अवसाद अवाक कणों का॥ - पंत
यहाँ अप्रस्तुत सागर के वर्णन से प्रस्तुत धीर, वीर, गंभीर व्यक्ति का वर्णन किया गया है। 

अन्य उदाहरण-
  • स्वारथ सुकृत न स्त्रम वृथा, देखु विहंग विचारि। बाज पराये पानि परि तू पँछीन न मारि॥

विरोधाभास अलंकार

जहाँ वास्तविक विरोध न होकर विरोध का आभास मात्र हो वहाँ विरोधाभास अलंकार होता है।
उदाहरण- 
या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहिं कोय। ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय।
यहाँ काले रंग में डूबने से उज्ज्वल होना विरोध कथन है। परन्तु इस विरोध का परिहार हो जाता है जब भक्त ज्यों-ज्यों कृष्ण के प्रति अनुराग करेगा त्यों-त्यों उसमें सात्विक भाव भरता जायेगा।

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