शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ | Methods of Educational Psychology

शिक्षा मनोविज्ञान, विज्ञान की विधियों का प्रयोग करता है। विज्ञान की विधियों की मुख्य विशेषताएँ हैं - विश्वसनीयता, यथार्थता, विशुद्धता, वस्तुनिष्ठता और
 
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शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ 

In gathering and classifying its data, educational psychology uses the methods and tools of science. -Skinner.
शिक्षा मनोविज्ञान को व्यावहारिक विज्ञान की श्रेणी में रखा जाने लगा है। विज्ञान होने के कारण इसके अध्ययन की अनेक विधियों का विकास हुआ। ये विधियाँ वैज्ञानिक हैं। 

जार्ज ए. लुण्डबर्ग के शब्दों में, “सामाजिक वैज्ञानिकों में यह विश्वास पुष्ट हो गया है कि उनके सामने जो समस्यायें हैं, उनको हल करने के लिये सामाजिक घटनाओं के निष्पक्ष एवं व्यवस्थित निरीक्षण, सत्यापन, वर्गीकरण तथा विश्लेषण का प्रयोग करना होगा। ठोस एवं सफल होने के कारण ऐसे दृष्टिकोण को वैज्ञानिक पद्धति कहा जाता है।"

शिक्षा मनोविज्ञान, विज्ञान की विधियों का प्रयोग करता है। विज्ञान की विधियों की मुख्य विशेषताएँ हैं - विश्वसनीयता, यथार्थता, विशुद्धता, वस्तुनिष्ठता और निष्पक्षता, मनोविज्ञान अपने शोधकार्यों में अपनी समस्याओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं शिक्षा और उनका समाधान करने के लिए वैज्ञानिक विधियों का प्रयोग करते हैं। 

शिक्षा मनोविज्ञान की विधियाँ 

शिक्षा मनोविज्ञान में अध्ययन और अनुसंधान के लिए सामान्य रूप से जिन विधियों का प्रयोग किया जाता है, उनको दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:

1. आत्मनिष्ठ विधियाँ (Subjective Methods)

आत्मनिष्ठ विधियों को भी दो भागो में बाटा गया है :
1. आत्मनिरीक्षण विधि (Introspective Method)
2. गाथा वर्णन विधि (Anecdotal Method)

2. वस्तुनिष्ठ विधियाँ (Objective Method)

इन विधियों को भी निम्न भागो में विभाजित किया गया है :
1. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method)
2. निरीक्षण विधि (Observational Method)
3. जीवन इतिहास विधि (Case History Methos)
4. उपचारात्मक विधि (Clinical Method)
5. विकासात्मक विधि (Developmental Method)
6. मनोविश्लेषण विधि (Psycho-analytic Method)
7. तुलनात्मक विधि (Comparative Method)
8. सांख्यिको विधि (Statistical Method)
9. परीक्षण विधि (Test Method)
10. साक्षात्कार विधि (Interview Method)
11. प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method)
12. विभेदात्मक विधि (Differential Method)
13. मनोभौतिकी विधि (Psycho-physical Method)

आत्मनिष्ठ विधियाँ (Subjective Methods)


आत्मनिरीक्षण विधि (Introspective Method)

मस्तिष्क द्वारा अपनी स्वयं की क्रियाओं का निरीक्षण करना आत्मनिरीक्षण विधि कहलाता है।

1. आत्मनिरीक्षण का परिचय 

आत्मनिरीक्षण विधि, मनोविज्ञान की परम्परागत विधि है। इसका नाम इंगलैण्ड के विख्यात दार्शनिक लॉक से सम्बद्ध है, जिसने इसकी परिभाषा इन शब्दों में की थी - 'मस्तिष्क द्वारा अपनी स्वयं की क्रियाओं का निरीक्षण'

पूर्व काल के मनोवैज्ञानिक अपनी मानसिक क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करने के लिए इसी विधि पर निर्भर थे। वे इसका प्रयोग अपने अनुभवों का पुनःस्मरण और भावनाओं का मूल्यांकन करने के लिए करते थे। वे सुख और दुःख, क्रोध और शान्ति, घृणा और प्रेम के समय अपनी भावनाओं और मानसिक दशाओं का निरीक्षण करके उनका वर्णन करते थे।

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2. आत्मनिरीक्षण का अर्थ

इन्ट्रोस्पैक्शन (Introspection) अर्थात् अन्तर्दर्शन का अर्थ है: To look within या Self-observation, जिसका अभिप्राय है - अपने आप देखना या आत्म-निरीक्षण। इसकी व्याख्या करते हुए बी. एन. झा ने लिखा है - "आत्मनिरीक्षण अपने स्वयं के मन का निरीक्षण करने की प्रक्रिया है। यह एक प्रकार का आत्मनिरीक्षण है, जिसमें हम किसी मानसिक क्रिया के समय अपने मन में उत्पन्न होने वाली स्वयं की भावनाओं और सब प्रकार की प्रतिक्रियाओं का निरीक्षण, विश्लेषण और वर्णन करते हैं।"

3. आत्मनिरीक्षण का गुण

मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि: डगलस व हॉलैण्ड - के अनुसार: "मनोविज्ञान ने इस विधि का प्रयोग करके हमारे मनोविज्ञान के ज्ञान में वृद्धि की है।"

अन्य विधियों में सहायक: डगलस व हॉलैण्ड के अनुसार - "यह विधि अन्य विधियों द्वारा प्राप्त किये गये तथ्यों, नियम और सिद्धान्तों की व्याख्या करने में सहायता देती है।" 

यन्त्र व सामग्री की आवश्यकता: रॉस के अनुसार - "यह विधि खर्चीली नहीं है, क्योंकि इसमें किसी विशेष यन्त्र या सामग्री की आवश्यकता नहीं पड़ती है।"

प्रयोगशाला की आवश्यकता: यह विधि बहुत सरल है, क्योंकि इसमें किसी प्रयोगशाला की आवश्यकता नहीं है। 
रॉस के शब्दों में - "मनोवैज्ञानिकों का स्वयं का मस्तिष्क प्रयोगशाला होता है और क्योंकि वह सदैव उसके साथ रहता है, इसलिए वह अपनी इच्छानुसार कभी भी निरीक्षण कर सकता है।"

4. आत्मनिरीक्षण का दोष

वैज्ञानिकता का अभाव: यह विधि वैज्ञानिक नहीं है, क्योंकि इस विधि द्वारा प्राप्त निष्कर्षों का किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा परीक्षण नहीं किया जा सकता है। 

ध्यान का विभाजन: इस विधि का प्रयोग करते समय व्यक्ति का ध्यान विभाजित रहता है. क्योंकि एक ओर तो उसे मानसिक प्रक्रिया का अध्ययन करना पड़ता है और दूसरी ओर आत्मनिरीक्षण करना पड़ता है। ऐसी दशा में, जैसा कि डगलस एवं हॉलैण्ड ने लिखा है - “एक साथ दो बातों की ओर पर्याप्त ध्यान दिया जाना असम्भव है, इसलिए आत्मनिरीक्षण वास्तव में परोक्ष निरीक्षण हो जाता है।"

असामान्य व्यक्तियों व बालकों के लिए अनुपयुक्त: रॉस के अनुसार, यह विधि असामान्य व्यक्तियों, असभ्य मनुष्यों, मानसिक रोगियों, बालकों और पशुओं के लिए अनुपयुक्त है, क्योंकि उनमें मानसिक क्रियाओं का निरीक्षण करने की क्षमता नहीं होती है। 

मन द्वारा मन का निरीक्षण असम्भव: इस विधि में मन के द्वारा मन का निरीक्षण किया जाता है, जो सर्वथा असम्भव है। रॉस के अनुसार, “दृष्टा और दृश्य दोनों एक ही होते हैं, क्योंकि मन, निरीक्षण का स्थान और साधन - दोनों होता है।" 

मानसिक प्रक्रियाओं का निरीक्षण असम्भव: डगलस व हॉलैण्ड के अनुसार मानसिक दशाओं या प्रक्रियाओं में इतनी शीघ्रता से परिवर्तन होते हैं कि उनका निरीक्षण करना प्रायः असम्भव हो जाता है।

मस्तिष्क की वास्तविक दशा का ज्ञान असम्भव: इस विधि द्वारा मस्तिष्क की वास्तविक दशा का ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है, उदाहरणार्थ, यदि मुझे क्रोध आता है, तो क्रोध का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण करने के लिए मेरे पास पर्याप्त सामग्री होती है, पर जैसे ही मैं ऐसा करने का प्रयास करता हूँ, मेरा क्रोध कम हो जाता है और मेरी सामग्री मुझ से दूर भाग जाती है। 
इस कठिनाई का अति सुन्दर ढंग से वर्णन करते हुए जेम्स ने लिखा है - “आत्मनिरीक्षण करने का प्रयास ऐसा है, जैसा कि यह जानने के लिए कि अंधकार कैसा लगता है, बहुत सी गैस एकदम जला देना।"

निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि अपने दोषों के कारण आत्मनिरीक्षण विधि का मनोवैज्ञानिकों द्वारा परित्याग कर दिया गया है। डगलस एवं हॉलैण्ड का मत है - "यद्यपि आत्मनिरीक्षण को किसी समय वैज्ञानिक विधि माना जाता था, पर आज इसने अपना अधिकांश सम्मान खो दिया है।"

गाथा वर्णन विधि (Anecdotal Method)

पूर्व अनुभव या व्यवहार का लेखा तैयार करना।
इस विधि में व्यक्ति अपने किसी पूर्व अनुभव या व्यवहार का वर्णन करता है। मनोवैज्ञानिक उसे सुनकर एक लेखा तैयार करता है और उसके आधार पर अपने निष्कर्ष निकालता है। 

इस विधि का मुख्य दोष यह है कि व्यक्ति अपने पूर्व अनुभव या व्यवहार का ठीक-ठीक पुनः स्मरण नहीं कर पाता है। इसके अलावा, वह उससे सम्बन्धित कुछ बातों को भूल जाता है और कुछ को अपनी ओर से जोड़ देता है।

इसलिए, इस विधि को अविश्वसनीय बताते हुए स्किनर ने लिखा है - "गाथा वर्णन विधि की आत्मनिष्ठता के कारण इसके परिणाम पर विश्वास नहीं किया जा सकता है।"
गाथा वर्णन विधि आत्मगत होने के कारण विश्वसनीय नहीं है, इसका उपयोग पूरक विधि के रूप में किया जाता है।

वस्तुनिष्ठ विधियाँ (Objective Method)

प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method)

पूर्व निर्धारित दशाओं में मानव व्यवहार का अध्ययन

 

1. प्रयोगात्मक विधि का अर्थ

प्रयोगात्मक विधि एक प्रकार की नियन्त्रित निरीक्षण की विधि है। इस विधि में प्रयोगकर्ता स्वयं अपने द्वारा निर्धारित की हुई परिस्थितियों या वातावरण में किसी व्यक्ति के व्यवहार का अध्ययन करता है या किसी समस्या के सम्बन्ध में तथ्य एकत्र करता है। 

मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग करके न केवल बालकों और व्यक्तियों के व्यवहार का वरन् चूहों, बिल्लियों आदि पशुओं के व्यवहार का भी अध्ययन किया है। 

इस प्रकार के प्रयोग का उद्देश्य बताते हुए क्रो एवं क्रो ने लिखा है - "मनोवैज्ञानिक प्रयोगों का उद्देश्य किसी निश्चित परिस्थिति या दशाओं में मानव व्यवहार से सम्बन्धित किसी विश्वास या विचार का परीक्षण करना है।" 

2. प्रयोगात्मक विधि का गुण 

वैज्ञानिक विधि: यह विधि वैज्ञानिक है, क्योंकि इसके द्वारा सही आँकड़े और तथ्य एकत्र किये जा सकते हैं।

निष्कर्षों की जाँच सम्भव: इस विधि द्वारा प्राप्त किये गये निष्कर्षों की सत्यता की जाँच, प्रयोग को दोहराकर की जा सकती है। 

विश्वसनीय निष्कर्ष: इस विधि द्वारा प्राप्त किये जाने वाले निष्कर्ष सत्य और विश्वसनीय होते हैं।

शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं का समाधान: इस विधि का प्रयोग करके शिक्षा सम्बन्धी अनेक समस्याओं का समाधान किया जा सकता है।

उपयोगी तथ्यों पर प्रकाश: क्रो व क्रो के अनुसार - इस विधि ने अनेक नवीन और उपयोगी तथ्यों पर प्रकाश डाला है, जैसे- शिक्षण के लिए किन उपयोगी विधियों का प्रयोग करना चाहिए? कक्षा में छात्रों की अधिकतम संख्या कितनी होनी चाहिए? पाठ्यक्रम का निर्माण किन सिद्धान्तों के आधार पर करना चाहिए? छात्रों के ज्ञान का ठीक मूल्यांकन करने के लिए किन विधियों का प्रयोग करना चाहिए?

3. प्रयोगात्मक विधि का दोष 

प्रयोग में कृत्रिमता: स्वाभाविक प्रयोग के लिए परिस्थितियों का निर्माण चाहे जितनी भी सतर्कता से किया जाय, पर उनमें थोड़ी-बहुत कृत्रिमता का आ जाना स्वाभाविक है।

कृत्रिम परिस्थितियों का नियन्त्रण असम्भव व अनुचित: प्रत्येक प्रयोग के लिए न तो कृत्रिम परिस्थितियों का निर्माण किया जाना सम्भव है और न किया जाना चाहिए; उदाहरणार्थ, बालकों में भय, क्रोध या कायरता उत्पन्न करने के लिए परिस्थितियों का निर्माण किया जाना सर्वथा अनुचित है।

प्रयोज्य का सहयोग प्राप्त करने में कठिनाई: प्रयोज्य अर्थात् जिस व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है, उसमें प्रयोग के प्रति किसी प्रकार की रुचि नहीं होती है। अतः प्रयोगकर्ता को उसका सहयोग प्राप्त करने में काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। 

प्रयोज्य की मानसिक दशा का ज्ञान असम्भव: जिस व्यक्ति पर प्रयोग किया जाता है, उसके व्यवहार का अस्वाभाविक और आडम्बरपूर्ण हो जाना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। अत: उसकी मानसिक दशा का वास्तविक ज्ञान प्राप्त करना प्रायः असम्भव हो जाता है।
प्रयोज्य की आन्तरिक दशाओं पर नियन्त्रण असम्भव: प्रयोज्य की मानसिक दशाओं को प्रभावित करने वाले सब बाह्य कारकों पर पूर्ण नियन्त्रण करना सम्भव हो सकता है, पर उसकी आन्तरिक दशाओं पर इस प्रकार का नियन्त्रण स्थापित करना असम्भव है। ऐसी स्थिति में प्रयोगकर्ता द्वारा प्राप्त किये जाने वाले निष्कर्ष पूर्णरूपेण सत्य और विश्वसनीय नहीं माने जा सकते हैं।

अपने दोषों के बावजूद प्रयोगात्मक विधि को सामान्य रूप से अनुसंधान की सर्वोत्तम विधि स्वीकार किया जाता है। स्किनर का मत है - "कुछ अनुसन्धानों के लिए प्रयोगात्मक विधि को बहुधा सर्वोत्तम विधि समझा जाता है।"
प्रयोगात्मक विधि से बालकों के असामान्य व्यवहारों को ज्ञात कर उनको सामान्य बनाने की दिशा में पर्याप्त कार्य किया जा सकता है। इस विधि के प्रयोग से समायोजन में सहायता मिलती है।

बहिर्दर्शन या निरीक्षण विधि (Extrospection or Observational Method)

व्यवहार का निरीक्षण करके मानसिक दशा को जानना।

 

1. निरीक्षण विधि का अर्थ

निरीक्षण का सामान्य अर्थ है - ध्यानपूर्वक देखना। हम किसी व्यक्ति के व्यवहार, आचरण, क्रियाओं, प्रतिक्रियाओं आदि को ध्यानपूर्वक देखकर उसकी मानसिक दशा का अनुमान लगा सकते हैं; उदाहरणार्थ - यदि कोई व्यक्ति जोर-जोर से बोल रहा है और उसके नेत्र लाल हैं, तो हम जान सकते हैं कि वह क्रुद्ध है। 

निरीक्षण विधि में निरीक्षणकर्ता, अध्ययन किये जाने वाले व्यवहार का निरीक्षण करता है। और उसी के आधार पर वह विषयो के बारे में अपनी धारणा बनाता है। 

व्यवहारवादियों ने इस विधि को विशेष महत्व दिया है। कोलेसनिक के अनुसार, निरीक्षण दो प्रकार का होता है - (1) औपचारिक, और (2) अनौपचारिक। औपचारिक निरीक्षण, नियन्त्रित दशाओं में और अनौपचारिक निरीक्षण, अनियन्त्रित दशाओं में किया जाता है। 

इनमें से अनौपचारिक निरीक्षण, शिक्षक के लिए अधिक उपयोगी है। उसे कक्षा में और कक्षा के बाहर अपने छात्रों के व्यवहार का निरीक्षण करने के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। वह इस निरीक्षण के आधार पर उनके व्यवहार के प्रतिमानों का ज्ञान प्राप्त करके, उनको उपयुक्त निर्देशन दे सकता है।

2. निरीक्षण विधि का गुण

बालकों का उचित दिशाओं में विकास: कक्षा और खेल के मैदान में बालकों के सामान्य व्यवहार, सामाजिक सम्बन्धों और जन्मजात गुणों का निरीक्षण करके उनका उचित दिशाओं में विकास किया जा सकता है। 

शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन: विद्यालय में शिक्षक, निरीक्षक, और प्रशासक, समय की माँगों और समाज की दशाओं का निरीक्षण करके शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, पाठ्यक्रम आदि में परिवर्तन करते हैं।

विद्यालयों में वांछनीय परिवर्तन: डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार - “निरीक्षण के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली खोजों के आधार पर विद्यालयों में अनेक वांछनीय परिवर्तन किए गए हैं।"

बाल अध्ययन के लिए उपयोगी: यह विधि बालकों का अध्ययन करने के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। गैरेट ने तो यहाँ तक कह दिया है - "कभी-कभी बाल-मनोवैज्ञानिक को केवल यही विधि उपलब्ध होती है।"

3. निरीक्षण विधि का दोष 

प्रयोज्य का अस्वाभाविक व्यवहार: जिस व्यक्ति के व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है, वह स्वाभाविक ढंग से परित्याग करके कृत्रिम और अस्वाभाविक विधि अपना लेता है। 

असत्य निष्कर्ष: किसी बालक या समूह का निरीक्षण करते समय निरीक्षणकर्ता को अनेक कार्य एक साथ करने पड़ते हैं, जैसे - बालक के अध्ययन किए जाने के कारण को ध्यान में रखना, विशिष्ट दशाओं में उसके व्यवहार का अध्ययन करना, उसके व्यवहार को प्रभावित करने वाले कारणों का ज्ञान प्राप्त करना, उसके व्यवहार के सम्बन्ध में अपने निष्कर्षो का निर्माण करना, आदि। 

इस प्रकार निरीक्षणकर्ता को एक साथ इतने विभिन्न प्रकार के कार्य करने पड़ते हैं कि वह उनको कुशलता से नहीं कर पाता है। फलस्वरूप, उसके निष्कर्ष साधारणतः सत्य के परे होते हैं।

आत्मनिष्ठता: आत्मनिरीक्षण विधि के समान इस विधि में भी आत्मनिष्ठता का दोष पाया जाता है।

स्वाभाविक त्रुटियाँ व अविश्वसनीयता: डगलस एवं हॉलैण्ड के शब्दों में - "अपनी स्वाभाविक त्रुटियों के कारण वैज्ञानिक विधि के रूप में निरीक्षण विधि अविश्वसनीय है।"

निरीक्षण विधि में दोष भले ही हों, पर शिक्षक और मनोवैज्ञानिक के लिए इसको उपयोगिता पर सन्देह करना अनुचित है। क्रो व क्रो का मत है - “सतर्कता से नियन्त्रित की गई दशाओं में भली-भाँति प्रशिक्षित और अनुभवी मनोवैज्ञानिक या शिक्षक अपने निरीक्षण से छात्र के व्यवहार के बारे में बहुत कुछ जान सकता है।" 

जीवन इतिहास विधि (Case History Method)

जीवन इतिहास द्वारा मानव व्यवहार का अध्ययन।

बहुधा मनोवैज्ञानिक का अनेक प्रकार के व्यक्तियों से पाला पड़ता है। इनमें कोई अपराधी, कोई मानसिक रोगी, कोई झगड़ालू, कोई समाज विरोधी कार्य करने वाला और कोई समस्या बालक होता है। मनोवैज्ञानिक के विचार से व्यक्ति का भौतिक, पारिवारिक या सामाजिक वातावरण उसमें मानसिक असंतुलन उत्पन्न कर देता है, जिसके फलस्वरूप वह अवांछनीय व्यवहार करने लगता है। 

इसका वास्तविक कारण जानने के लिए वह व्यक्ति के पूर्व इतिहास की कड़ियों को जोड़ता है। इस उद्देश्य से वह व्यक्ति, उसके माता-पिता, शिक्षकों, सम्बन्धियों, पड़ोसियों, मित्रों आदि से भेंट करके पूछताछ करता है। इस प्रकार, वह व्यक्ति के वंशानुक्रम, पारिवारिक और सामाजिक वातावरण, रुचियों, क्रियाओं, शारीरिक स्वास्थ्य, शैक्षिक और संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में तथ्य एकत्र करता है। 

इन तथ्यों की सहायता से वह उन कारणों की खोज कर लेता है, जिनके फलस्वरूप व्यक्ति मनोविकारों का शिकार बनकर अनुचित आचरण करने लगता है। इस प्रकार, इस विधि का उद्देश्य - व्यक्ति के किसी विशिष्ट व्यवहार के कारण की खोज करना है।  

क्रो व क्रो ने लिखा है - “जीवन इतिहास विधि का मुख्य उद्देश्य किसी कारण का निदान करना है।"

उपचारात्मक विधि (Clinical Method)

आचरण सम्बन्धी जटिलताओं को दूर करने में सहायता।
उपचारात्मक विधि का अर्थ और प्रयोजन स्पष्ट करते हुए स्किनर ने लिखा है - उपचारात्मक विधि साधारणतः विशेष प्रकार के सीखने, व्यक्तित्व या आचरण सम्बन्धी जटिलताओं का अध्ययन करने और उनके अनुकूल विभिन्न प्रकार की उपचारात्मक विधियों का प्रयोग करने के लिए काम में लाई जाती है। 

इस विधि का प्रयोग करने वालों का उद्देश्य यह मालूम करना होता है कि व्यक्ति की विशिष्ट आवश्यकताएँ क्या हैं, उसमें उत्पन्न होने वाली जटिलताओं के क्या कारण हैं और उनको दूर करके व्यक्ति को किस प्रकार सहायता दी जा सकती है?

यह विधि विद्यालयों की निम्नलिखित समस्याओं के लिए विशेष रूप से उपयोगी है:
  • पढ़ने में बेहद कठिनाई अनुभव करने वाले बालक।
  • बहुत हकलाने वाले बालक।
  • बहुत पुरानी अपराधी प्रवृत्ति वाले बालक।
  • गम्भीर संवेगों के शिकार होने वाले बालक।

विकासात्मक विधि (Development Method)

बालक की वृद्धि और विकास क्रम का अध्ययन।
 
इस विधि को जैनेटिक विधि भी कहते हैं। यह विधि, निरीक्षण विधि से बहुत मिलती-जुलती है। इस विधि में निरीक्षक, बालक के शारीरिक और मानसिक विकास एवं अन्य बालकों और वयस्कों से उसके सम्बन्धों का अर्थात् सामाजिक विकास का अति सावधानी से एक लेखा तैयार करता है। 
इस लेखे के आधार पर वह बालक की विभिन्न अवस्थाओं की आवश्यकताओं और विशेषताओं का विश्लेषण करता है। इसके अतिरिक्त, वह इस बात का भी विश्लेषण करता है कि बालक के शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और व्यवहार सम्बन्धी विकास पर वंशानुक्रम और वातावरण का क्या प्रभाव पड़ता है। 

यह कार्य अति दीर्घकालीन है, क्योंकि बालक का निरीक्षण उसकी जन्मावस्था से प्रौढ़ावस्था तक किया जाना अनिवार्य है। दीर्घकालीन होने के कारण यह विधि महँगी है और यही इसका दोष है। गैरेट का यह कथन सत्य है - "इस प्रकार के अनुसंधान का अनेक वर्षों तक किया जाना अनिवार्य है। इसलिए यह बहुत महँगा है।"

मनोविश्लेषण विधि (Psycho-analytic Method)

व्यक्ति के अचेतन मन का अध्ययन करके उपचार करना। 
इस विधि का जन्मदाता वियना का विख्यात चिकित्सक फ्रायड था। उसने बताया कि व्यक्ति के अचेतन मन का उस पर बहुत प्रभाव पड़ता है। यह मन उसकी अतृप्त इच्छाओं का पुंज होता है और निरन्तर क्रियाशील रहता है। फलस्वरूप, व्यक्ति की अतृप्त इच्छाएँ अवसर पाकर प्रकाश में आने की चेष्टा करती हैं, जिससे वह अनुचित व्यवहार करने लगता है। 

अतः इस विधि के द्वारा व्यक्ति के अचेतन मन का अध्ययन करके, उसकी अतृप्त इच्छाओं की जानकारी प्राप्त की जाती है। तदुपरान्त उन इच्छाओं का परिष्कार या मार्गान्तीकरण करके व्यक्ति का उपचार किया जाता है, और इस प्रकार उसके व्यवहार को उत्तम बनाने का प्रयास किया जाता है।

इस विधि की समीक्षा करते हुए वुडवर्थ ने लिखा है - इस विधि में बहुत समय लगता है। अतः इसे तब तक आरम्भ नहीं करना चाहिए, जब तक रोगी इसको अन्त तक निभाने के लिए तैयार न हो, क्योंकि यदि इसे बीच में ही छोड़ दिया जाता है, तो रोगी पहले से भी बदतर हालत में पड़ जाता है। मनोविश्लेषक भी इस विधि को आरोग्य प्रदान करने वाली नहीं मानते हैं, पर इसके कारण कई अस्त-व्यस्त चिकित्सा पूर्व की स्थिति से अच्छी दशा में व्यवहार करते देखे गये हैं।

तुलनात्मक विधि (Comparative Method)

व्यवहार सम्बन्धी समानताओं और असमानताओं का अध्ययन। 

इस विधि का प्रयोग अनुसंधान के लगभग सभी क्षेत्रों में किया जाता है। जब भी दो व्यक्तियों या समूह का अध्ययन किया जाता है, तब उनके व्यवहार से सम्बन्धित समानताओं और असमानताओं को जानने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने इस विधि का प्रयोग करके अनेक उपयोगी तुलनायें की हैं, जैसे- पशु और मानव व्यवहार की तुलना, प्रजातियों की विशेषताओं की तुलना, विभिन्न वातावरणों में पाले गये बालकों की तुलना, आदि। 


इन तुलनाओं द्वारा उन्होंने अनेक आश्चर्यजनक तथ्यों का उद्घाटन करके हमारे ज्ञान और मनोविज्ञान की परिधि का विस्तार किया है।

सांख्यिकी विधि (Statical Method)

समस्या से सम्बन्धित तथ्य एकत्र करके परिणाम निकालना।
यह विधि आधुनिक होने के साथ-साथ अत्यधिक प्रचलित है। ज्ञान का शायद ही ऐसा कोई क्षेत्र हो, जिसमें इसकी उपयोगिता के कारण इसका प्रयोग न किया जाता हो। शिक्षा और मनोविज्ञान में इसका प्रयोग किसी समस्या या परीक्षण से सम्बन्धित तथ्यों का संकलन और विश्लेषण करके कुछ परिणाम निकालने के लिए किया जाता है। परिणामों की विश्वसनीयता इस बात पर निर्भर रहती है कि संकलित तथ्य विश्वसनीय हैं या नहीं। 

परीक्षण विधि (Test Method)

व्यक्तियों की विभिन्न योग्यतायें जानने के लिए परीक्षा।
यह विधि आधुनिक युग की देन है और शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न उद्देश्यों से इसका प्रयोग किया जा रहा है। इस समय तक अनेक प्रकार की परीक्षण विधियों का निर्माण किया जा चुका है, जैसे- परीक्षा, व्यक्तित्व परीक्षा, ज्ञान परीक्षा, रुचि परीक्षा आदि। इन परीक्षाओं के परिणाम पूर्णतया सत्य, विश्वसनीय और प्रामाणिक होते हैं। अतः इनके आधार पर परिणामों का शैक्षिक, व्यावसायिक और अन्य प्रकार का निर्देशन किया जाता है।

साक्षात्कार विधि (Interview Method)

व्यक्तियों से भेंट करके समस्या सम्बन्धी तथ्य एकत्र करना। 
इस विधि में प्रयोगकर्ता किसी विशेष समस्या का अध्ययन करते समय उससे सम्बन्धित व्यक्तियों से भेंट करता है और उनसे समस्या के बारे में विचार-विमर्श करके जानकारी प्राप्त करता है, उदाहरणार्थ, कोठारी कमीशन के सदस्यों ने अपनी रिपोर्ट तैयार करने से पूर्व भारत का भ्रमण करके समाज सेवकों, वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों, विभिन्न विषयों के विद्वानों और शिक्षा में रुचि रखने वाले पुरुषों और स्त्रियों से साक्षात्कार किया। इस प्रकार, कमीशन' ने कुल मिलाकर लगभग 9,000 व्यक्तियों से साक्षात्कार करके, शिक्षा की समस्याओं पर उनके विचारों की जानकारी प्राप्त की।

प्रश्नावली विधि (Questionnair Method)

प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करके समस्या सम्बन्धी तथ्य एकत्र करना।
कभी-कभी ऐसा होता है कि प्रयोगकर्ता किसी शिक्षा समस्या के बारे में अनेक व्यक्तियों के विचारों को जानना चाहता है। उन सबसे साक्षात्कार करने के लिए उसे पर्याप्त धन और समय की आवश्यकता होती है। इन दोनों में बचत करने के लिए वह समस्या से सम्बन्धित कुछ प्रश्नों की प्रश्नावली तैयार करके उनके पास भेज देता है। उनसे प्राप्त होने वाले उत्तरों का वह अध्ययन और वर्गीकरण करता है। फिर उनके आधार पर अपने निष्कर्ष निकालता है, उदाहरणार्थ, राधाकृष्णन् कमीशन ने विश्वविद्यालय शिक्षा से सम्बन्धित एक प्रश्नावली तैयार करके शिक्षा विशेषज्ञों के पास भेजी। उसे लगभग 600 व्यक्तियों के उत्तर प्राप्त हुए, जिनको उसने अपने प्रतिवेदन के लेखन में प्रयोग किया।

इस विधि के दोषों का उल्लेख करते हुए क्रो एवं क्रो ने लिखा है - "इस विधि को बहुत वैज्ञानिक नहीं समझा जाता है। सम्भव है कि प्रश्न सुनियोजित, पर्याप्त विवेकपूर्ण या निश्चित उत्तर प्रदान करने वाले न हों। सम्भव है कि उत्तर देने वाले व्यक्ति प्रश्नों के गलत अर्थ लगायें और ठीक उत्तर न दें, जिसके फलस्वरूप संकलित आँकड़ों की विश्वसनीयता कम हो सकती है। सम्भव है कि जिन व्यक्तियों के पास प्रश्नावली भेजी जाय, उनमें से बहुत से उनको वापिस न करें।"

विभेदात्मक विधि (Differential Method)

वैयक्तिक भेदों का अध्ययन तथा सामान्यीकरण।
प्रत्येक बालक दूसरे से भिन्न होता है। यह भिन्नता ही उसके व्यवहार को निर्देशित करती है। इससे व्यक्ति की पहचान बनती है। शिक्षा मनोविज्ञान कक्षा शिक्षण के दौरान वैयक्तिक भेदों की अनेक समस्याओं से जूझता है। शिक्षक को शैक्षिक कार्य का संचालन करने में वैयक्तिक भेद विशेष कठिनाई का अनुभव कराते हैं।
 
विभेदात्मक विधि वैयक्तिक भिन्नताओं के अध्ययन पर बल देती है और बालकों की समस्याओं का समाधान करती है। इस विधि में अध्ययन की अन्य विधियों तथा तकनीकों का सहारा लिया जाता है। प्राप्त परिणामों के विश्लेषण द्वारा सामान्य सिद्धान्त का निरूपण किया जाता है। 

मनोवैज्ञानिकों ने अनेक परीक्षाओं की रचना विभेदात्मक विधि के आधार पर की है। कैटल ने विभेदात्मक परीक्षण की रचना तथा विश्लेषण में पर्याप्त सहयोग दिया है। यह विधि बालक के ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्ष का विशेष रूप से अध्ययन करती है।

मनोभौतिकी विधि (Psy-physical Method)

मन तथा शरीर पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन।
मनोभौतिकी या मनोदैहिकी का सम्बन्ध मन तथा शरीर की दशा से है। मनुष्य का व्यवहार उसके परिवेश, क्रिया प्रतिक्रिया तथा आवश्यकता से संचालित होता है। वह व्यवहार ही मनुष्य के भावी संसार का निर्माण करता है। आइजनेक के शब्दों में - "मनोभौतिकी का सम्बन्ध जीवित प्राणियों की उस अनुक्रिया से है जो जीव पर्यावरण की ऊर्जात्मक पूर्णता के प्रति करता है।"
मनोभौतिकी वास्तव में भिन्नता, उद्दीपक के सीमान्त, उद्दीपक समानता तथा क्रम निर्धारण आदि समस्याओं से जूझती है। इन समस्याओं को हल करने के लिये मनोभौतिकी के अन्तर्गत अनेक विधियों को विकसित किया गया है। ये विधियाँ हैं:

1. सीमा विधि (Method of Limit)
(i) निरपेक्ष सीमान्त: Absolute Threshold.
(ii) भिन्नता सीमान्त : Differential Threshold.
2. शुद्धाशुद्ध विषय विधि
3. मध्यमान अशुद्ध

इन विधियों में आकस्मिक तथा सतत् अशुद्धियों की संभावना रहती है। चल अशुद्धियाँ भी हो जाती हैं। इन अशुद्धियों का प्रयोग नियंत्रण की सावधानियों के द्वारा रोका जा सकता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि शिक्षा मनोविज्ञान अपने अनुसंधान कार्य के लिए अनेक विधियों का प्रयोग करता है। यद्यपि ये विधियाँ - भौतिक विज्ञानों की विधियों की भाँति शत-प्रतिशत सत्य परिणाम नहीं बताती हैं, तथापि अनुसंधान कार्य के लिए ये अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं। आवश्यकता, जैसा कि गैरेट ने लिखा है, यह है - "सब विधियों के लिए नियोजित कार्य, नियन्त्रित निरीक्षण और घटनाओं का सतर्क लेखा अनिवार्य है।"

इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।