वंशानुक्रम का अर्थ, परिभाषा, प्रक्रिया व सिद्धान्त | Principles of Heredity

बालक की शिक्षा और विकास में वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभाव का विवेचनात्मक वर्णन कीजिये।
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Principles of Heredity

वंशानुक्रम व वातावरण : प्रकृति व पोषण

The individual is a product of heredity and environment. - Woodworth.

मानव का विकास अनेक कारकों द्वारा होता है। इन कारकों में कारक प्रमुख हैं- जैविक एवं सामाजिक। जैविक विकास का दायित्व माता-पिता पर होता है और सामाजिक विकास का वातावरण पर। माता-पिता जिस शिशु को जन्म देते हैं, उसका शारीरिक विकास गर्भ काल से आरम्भ हो जाता है और जन्म के पश्चात् उसके मृत्युपर्यन्त चलता रहता है, सामाजिक विकास जन्म के पश्चात मिले वातावरण द्वारा होता है।

जन्म से सम्बन्धित विकास को वंशक्रम तथा समाज से सम्बन्धित विकास को वातावरण कहते हैं, इसे प्रकृति तथा पोषण भी कहा गया है। वुडवर्थ का कथन है कि एक पौधे का वंशक्रम उसके बीज में निहित है और उसके पोषण का दायित्व उसके वातावरण पर है। यों वंशक्रम तथा वातावरण का अध्ययन प्राणी से विकास तथा वातावरण की अन्तःक्रिया का परिणाम है।

मनोविज्ञान में यह प्रश्न सदा चर्चित रहा है कि बालक के विकास में वंशक्रम का योगदान अधिक है या वातावरण का, इस प्रश्न पर सदैव मतभेद रहे हैं। इसी प्रश्न पर हम यहाँ चर्चा कर रहे हैं।

वंशानुक्रम का अर्थ व परिभाषा

साधारणतया लोगों का विश्वास है कि जैसे माता-पिता होते हैं, वैसी ही उनकी सन्तान होती है। इसका अभिप्राय यह है कि बालक रंग, रूप, आकृति, विद्वता आदि में माता-पिता से मिलता-जुलता है। दूसरे शब्दों में, उसे अपने माता-पिता के शारीरिक और मानसिक गुण प्राप्त होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि माता-पिता विद्वान हैं, तो बालक भी विद्वान होता है। पर यह भी देखा जाता है कि विद्वान माता-पिता का बालक मूर्ख और मूर्ख माता-पिता का बालक विद्वान होता है। इसका कारण यह है कि बालक को न केवल अपने माता-पिता से वरन् उनसे पहले के पूर्वजों से भी अनेक शारीरिक और मानसिक गुण प्राप्त होते हैं। इसी को हम वंशानुक्रम, वंश परम्परा, पैतृकता, आनुवंशिकता आदि नामों से पुकारते हैं।

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वंशानुक्रम के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ -

बी. एन. झा - "वंशानुक्रम, व्यक्ति की जन्मजात विशेषताओं का पूर्ण योग है।"
वुडवर्थ - "वंशानुक्रम में वे सभी बातें आ जाती हैं, जो जीवन का आरम्भ करते समय, जन्म के समय नहीं वरन् गर्भाधान के समय, जन्म से लगभग नौ माह पूर्व, व्यक्ति में उपस्थित थीं।"
डगलस व हॉलैण्ड - "एक व्यक्ति के वंशानुक्रम में वे सब शारीरिक बनावट, शारीरिक विशेषताएँ, क्रियाएँ व क्षमताएँ सम्मिलित रहती हैं, जिनको वह अपने माता-पिता, अन्य पूर्वजों या प्रजाति से प्राप्त करता है।"
रूथ वेंडिक्ट - " वंशानुक्रम माता-पिता से सन्तान को प्राप्त होने वाले गुणों का नाम है।"
जेम्स ड्रेवर - "माता-पिता की शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं का सन्तानों में हस्तांतरण होना वंशानुक्रम है।"
इन परिभाषाओं पर विचार करने पर यह स्पष्ट है कि वंशक्रम की धारणा का स्वरूप अमूर्त है। इसकी अनुभूति व्यवहार तथा व्यक्ति की अन्य शारीरिक मानसिक विशेषताओं द्वारा ही होती है।

वंशानुक्रम की प्रक्रिया

मानव शरीर, कोषों का योग होता है। शरीर का आरम्भ केवल एक कोष से होता है, जिसे 'संयुक्त कोष' (Zygote) कहते हैं। यह कोष 2, 4, 8, 16, 32 और इसी क्रम में संख्या में आगे बढ़ता चला जाता है।

'संयुक्त कोष' दो उत्पादक कोषों (Germ Cells) का योग होता है। इनमें से एक कोष पिता का होता है, जिसे 'पितृकोष' (Sperm) और दूसरा माता का होता है, जिसे 'मातृकोष' (Ovum) कहते हैं। 'उत्पादक कोष' भी 'संयुक्त कोष' के समान संख्या में बढ़ते हैं।

पुरुष और स्त्री के प्रत्येक कोष में 23-23 'गुणसूत्र' (Chromosomes) होते हैं। इस प्रकार, 'संयुक्त कोष' में 'गुणसूत्रों' के 23 जोड़े होते हैं।

'गुणसूत्रों' के सम्बन्ध में मन ने लिखा है- "हमारी सब असंख्य परम्परागत विशेषताएँ इन 46 गुणसूत्रों में निहित रहती हैं। ये विशेषताएँ गुणसूत्रों में विद्यमान पित्र्यैकों (Genes) में होती हैं।"

प्रत्येक 'गुणसूत्र' में 40 से 100 तक 'पित्र्यैक' होते हैं। प्रत्येक 'मित्र्यैक' एक गुण या विशेषता को निर्धारित करता है। इसीलिए, इन 'पित्र्यैकों' को 'वंशानुक्रम निर्धारक' (Heredity Determiners) कहते हैं। यही 'पित्र्यैक' शरीरिक और मानसिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को पहुँचाते हैं।

सोरेनसन का मत है - "पित्र्यैक, बच्चों की प्रमुख विशेषताओं और गुणों को निर्धारित करते हैं। पित्र्यैकों के सम्मिलन के परिणाम को ही हम वंशानुक्रम कहते हैं।"

नोबुल पुरस्कार विजेता डा. हरगोविन्द खुराना ने अपने अनुसंधान के आधार पर घोषणा की है कि निकट भविष्य में एक प्रकार के पित्र्यैक (Genes) को दूसरे प्रकार के पित्र्यैक से स्थानापत्र करना, औषधि-शास्त्र के क्षेत्र में अत्यन्त सामान्य कार्य हो जायगा। उनका विश्वास है कि इस कार्य के द्वारा भावी सन्तान की मधुमेह के समान दुःसाध्य रोगों से रक्षा की जा सकेगी। किन्तु अभी तक इस बात की खोज नहीं हो पाई है कि इस कार्य के द्वारा युद्धप्रिय व्यक्तियों को शान्तिप्रिय बनाया जा सकेगा या नहीं।'

वंशानुक्रम के सिद्धान्त

वंशक्रम मनोवैज्ञानिकों तथा जीववैज्ञानिकों के लिये अत्यन्त रोचक तथा रहस्यमय विषय है। वंशक्रम किन नियमों तथा सिद्धान्तों पर आधारित है, यह विषय भी अध्ययन के नये आयाम प्रस्तुत करता है। वंशक्रम के ये नियम सर्वाधिक प्रचलित हैं-
  1. बीजकोष की निरन्तरता का नियम।
  2. समानता का नियम।
  3. विभिन्नता का नियम।
  4. प्रत्यागमन का नियम।
  5. अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम।
  6. मँडल का नियम।

बीजकोष की निरन्तरता का नियम

इस नियम के अनुसार, बालक को जन्म देने वाला बीजकोष कभी नष्ट नहीं होता। इस नियम के प्रतिपादक वीजमैन का कथन है- "बीजकोष का कार्य केवल उत्पादक कोषों का निर्माण करना है, जो बीजकोष बालक को अपने माता-पिता से मिलता है, उसे वह अगली पीढ़ी को हस्तान्तरित कर देता है। इस प्रकार, बीजकोष पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलता रहता है।"

वीजमैन के 'बीजकोष की निरन्तरता' के नियम को स्वीकार नहीं किया जाता है। इसकी आलोचना करते हुए बी. एन. झा ने लिखा है- "इस सिद्धान्त के अनुसार माता-पिता, बालक के जन्मदाता न होकर केवल बीजकोष के संरक्षक हैं, जिसे वे अपनी सन्तान को देते हैं। बीजकोष एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को इस प्रकार हस्तान्तरित किया जाता है, मानी एक बैंक से निकलकर दूसरे में रख दिया जाता हो। बीजमैन का सिद्धान्त न तो वंशानुक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या करता है और न सन्तोषजनक ही है।"

यह मत वंशक्रम की सम्पूर्ण प्रक्रिया की व्याख्या न कर पाने के कारण अमान्य है।

समानता का नियम

इस नियम के अनुसार, जैसे माता-पिता होते हैं, वैसी ही उनकी सन्तान होती है। इस नियम के अर्थ का स्पष्टीकरण करते हुए सोरेनसन ने लिखा है - "बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, साधारण माता-पिता के बच्चे साधारण और मन्द-बुद्धि माता-पिता के बच्चे मन्द बुद्धि होते हैं। इसी प्रकार, शारीरिक रचना की दृष्टि से भी बच्चे माता-पिता के समान होते हैं।"

यह नियम भी अपूर्ण है क्योंकि प्रायः देखा जाता है कि काले माता-पिता की संतान गोरी. मंद बुद्धि माता-पिता की संतान बुद्धिमान होती है। इस नियम के अनुसार माता-पिता की विशेषतायें बालक में मूल रूप में आनी चाहिए।
विभिन्नता का नियम

इस नियम के अनुसार, बालक अपने माता-पिता के बिल्कुल समान न होकर उनसे कुछ भिन्न होते हैं। इसी प्रकार, एक ही माता-पिता के बालक एक-दूसरे के समान होते हुए भी बुद्धि, रंग और स्वभाव में एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। कभी-कभी उनमें पर्याप्त शारीरिक और मानसिक विभिन्नता पाई जाती है। 

इसका कारण बताते हुए सोरेनसन ने लिखा है- "इस विभिन्नता के कारण माता-पिता के उत्पादक-कोषों की विशेषतायें हैं। उत्पादक कोषों में अनेक पित्र्यैक होते हैं, जो विभिन्न प्रकार से संयुक्त होकर एक-दूसरे से भिन्न बच्चों का निर्माण करते हैं।" भिन्नता का नियम प्रतिपादित करने वालों में डार्विन तथा लेमार्क ने अनेक प्रयोगों तथा विचारों द्वारा यह मत प्रकट किया है कि उपयोग न करने वाले अवयव तथा विशेषताओं का लोप आगामी पीढ़ियों में हो जाता है। नवोत्पत्ति तथा प्राकृतिक चयन द्वारा वंशक्रमीय विशेषताओं का उन्नयन होता है।

प्रत्यागमन का नियम

इस नियम के अनुसार, बालक में अपने माता-पिता के विपरीत गुण पाये जाते हैं। इस नियम का अर्थ स्पष्ट करते हुए सोरेनसन ने लिखा है- “बहुत प्रतिभाशाली माता-पिता के बच्चों में कम प्रतिभा होने की प्रवृत्ति और बहुत निम्नकोटि के माता-पिता के बच्चों में कम निम्नकोटि होने की प्रवृत्ति ही प्रत्यागमन है।"

प्रकृति का नियम यह है कि वह विशिष्ट गुणों के बजाय सामान्य गुणों का अधिक वितरण करके एक जाति के प्राणियों को एक ही स्तर पर रखने का प्रयास करती है। इस नियम के अनुसार, बालक अपने माता-पिता के विशिष्ट गुणों का त्याग करके सामान्य गुणों को ग्रहण करते हैं। यही कारण है कि महान् व्यक्तियों के पुत्र साधारणतः उनके समान महान् नहीं होते हैं, उदाहरणार्थ- बाबर, अकबर और महात्मा गाँधी के पुत्र उनसे बहुत अधिक निम्न कोटि के थे। इसके दो मुख्य कारण हैं-
  1. माता-पिता के पित्र्यैकों में से एक कम और एक अधिक शक्तिशाली होता है।
  2. माता-पिता में उनके पूर्वजों में से किसी का पित्र्यैक अधिक शक्तिशाली होता है।

अर्जित गुणों के संक्रमण का नियम

इस नियम के अनुसार, माता-पिता द्वारा अपने जीवन काल में अर्जित किये जाने वाले गुण उनकी सन्तान को प्राप्त नहीं होते हैं। इस नियम को अस्वीकार करते हुए विकासवादी लेमार्क ने लिखा है- “व्यक्तियों द्वारा अपने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया जाता है, वह उनके द्वारा उत्पन्न किये जाने वाले व्यक्तियों को संक्रमित किया जाता है।"

इसका उदाहरण देते हुए लेमार्क ने कहा है कि जिराफ पशु की गर्दन पहले बहुत कुछ घोड़े के समान थी, पर कुछ विशेष परिस्थितियों के कारण वह लम्बी हो गई और कालान्तर में उसकी लम्बी गर्दन का गुण अगली पीढ़ी में संक्रमित होने लगा। लेमार्क के इस कथन की पुष्टि मैक्डूगल और पवलव ने चूहों पर, एवं हैरीसन ने पतंगों पर परीक्षण करके की है।

आज के युग में विकासवाद या अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धान्त स्वीकार नहीं किया जाता है। इस सम्बन्ध में वुडवर्थ ने लिखा है- "वंशानुक्रम की प्रक्रिया के अपने आधुनिक ज्ञान से सम्पन्न होने पर यह बात प्रायः असंभव जान पड़ती है कि अर्जित गुणों को संक्रमित किया जा सके। यदि आप कोई भाषा बोलना सीख लें, तो क्या आप पित्र्यैकों द्वारा इस ज्ञान को अपने बच्चे को संक्रमित कर सकते हैं? 

इस प्रकार के किसी प्रमाण की पुष्टि नहीं हुई है। क्षय या सूजाक ऐसा रोग, जो बहुधा परिवारों में पाया जाता है, संक्रमित नहीं होता है। बालक को यह रोग परिवार के पर्यावरण में छूत से होता है।"

मैंडल का नियम

इस नियम के अनुसार, वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती हैं। इस नियम को जेकोस्लोवेकिया के मँडल नामक पादरी ने प्रतिपादित किया था। उसने अपने गिरजे के बगीचे में बड़ी और छोटी मटरें बराबर संख्या में मिलाकर बोयीं उगने वाली मठरों में सब वर्णसंकर जाति की थीं। मैंडल ने इन वर्णसंकर मटरों को फिर बोया और इस प्रकार उसने उगने वाली मटरों को कई बार बोया। अन्त में, उसे ऐसी मटरें मिलीं, जो वर्णसंकर होने के बजाय शुद्ध थीं।

मटरों के समान मैंडल ने चूहों पर भी प्रयोग किया। उसने सफेद और काले चूहों को साथ-साथ रखा। इनसे जो चूहे उत्पन्न हुए, वे काले थे। फिर उसने इन वर्णसंकर काले चूहों को एक साथ रखा। इनसे उत्पन्न होने वाले चूहे, काले और सफेद दोनों रंगों के थे।

अपने प्रयासों के आधार पर मैंडल ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि वर्णसंकर प्राणी या वस्तुएँ अपने मौलिक या सामान्य रूप की ओर अग्रसर होती हैं। यही सिद्धान्त "मँडलवाद" के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी व्याख्या करते हुए बी. एन. झा ने लिखा है- “जब वर्णसंकर अपने स्वयं के पितृ या मातृ उत्पादक कोषों का निर्माण करते हैं, तब वे प्रमुख गुणों से युक्त माता-पिता के समान शुद्ध प्रकारों को जन्म देते हैं।"
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