मूलप्रवृत्ति व सहज-क्रिया | Instinct and Reflex Action

शिक्षा, मानव व्यवहार में संशोधन एवं परिमार्जन की क्रिया है। इसकी सफलता मनुष्य के व्यवहार के मूल आधारों पर निर्भर करती है।
 
Instinct-and-Reflex-Action
 Instinct and Reflex Action

मूलप्रवृत्ति व सहज-क्रिया 

The instincts are the sum-total of psychic energy. - Watson.
शिक्षा, मानव व्यवहार में संशोधन एवं परिमार्जन की क्रिया है। इसकी सफलता मनुष्य के व्यवहार के मूल आधारों पर निर्भर करती है। व्यक्ति का व्यवहार संचय, प्रयोजन तथा विचार सम्बन्ध शक्तियों से निर्धारित होता है। ये शक्तियाँ बालक में जन्म से निहित मूलप्रवृत्तियों पर निर्भर करती हैं।

मूलप्रवृत्तियों का सिद्धान्त

“मूलप्रवृत्तियों के सिद्धान्त" का प्रतिपादक प्रसिद्ध अंग्रेज मनोवैज्ञानिक विलियम मैक्डूगल है। उसने सन् 1908 ई. में प्रकाशित होने वाली अपनी पुस्तक "An Introduction to Social Psychology" में मूलप्रवृत्तियों का विस्तृत वर्णन किया है। उसका कहना है कि ऐसे अनेक कार्य या व्यवहार हैं, जिनको मनुष्यों और जीव-जन्तुओं को सीखना नहीं पड़ता है, जैसे- बालक द्वारा माँ का स्तनपान, पशु द्वारा तैरना, पक्षी द्वारा घोंसला बनाना आदि। वे इन कार्यों को अपनी मूलप्रवृत्ति, आन्तरिक प्रेरणा या नैसर्गिक शक्ति के कारण करते हैं। 

इस प्रकार, मैक्डूगल ने मूलप्रवृत्तियों के सम्बन्ध में यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया - "प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मूलप्रवृत्तियाँ सब मानव क्रियाओं की प्रमुख चालक हैं। यदि इन मूलप्रवृत्तियों और इनसे सम्बन्धित शक्तिशाली संवेगों को हटा दिया जाय, तो जीवधारी किसी भी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ हो जायगा। वह उसी प्रकार निश्चल और गतिहीन हो जायगा, जिस प्रकार एक बढ़िया घड़ी, जिसकी मुख्य कमानी हटा दी गयी हो या एक स्टीम इंजन, जिसकी आग बुझा दी गई हो।"

मूलप्रवृत्तियों का अर्थ व परिभाषायें 

मनुष्य अपने अधिकांश कार्यों को समाज से प्रभावित होकर करता है, पर कुछ कार्य ऐसे, भी हैं, जिनको वह अपनी जन्मजात या प्राकृतिक प्रेरणाओं के कारण भी करता है, जैसे- भय लगने पर भागना और भूख लगने पर भोजन की खोज करना इन जन्मजात प्रवृत्तियों को, जो मनुष्य और पशु को कार्य करने के लिए प्रेरित करती हैं, मूलप्रवृत्तियाँ कहा जाता है।

हम मूलप्रवृत्तियों के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं,
वुडवर्थ - "मूलप्रवृत्ति, कार्य करने का बिना सीखा हुआ स्वरूप है।" 
मरसेल - "मूलप्रवृत्ति, व्यवहार का एक सुनिश्चित और सुव्यवस्थित प्रतिमान है, जिसका आदि कारण जन्मजात होता है, और जिस पर सीखने का बहुत कम या बिल्कुल प्रभाव नहीं पड़ता है।"
जेम्स - "मूलप्रवृत्ति की परिभाषा साधारणतः इस प्रकार कार्य करने की शक्ति के रूप में की जाती है, जिससे उद्देश्यों और कार्य करने की विधि को पहले से जाने बिना निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति होती है।"
मैक्डूगल – “मूलप्रवृत्ति, परम्परागत या जन्मजात मनोशारीरिक प्रवृत्ति है, जो प्राणी को किसी विशेष वस्तु को देखने, उसके प्रति ध्यान देने, उसे देखकर एक विशेष प्रकार की संवेगात्मक उत्तेजना का अनुभव करने और उससे सम्बन्धित एक विशेष ढंग से कार्य करने या ऐसा करने की प्रबल इच्छा का अनुभव करने के लिए बाध्य करती है।"

मूलप्रवृत्तियों की परिभाषाओं का विश्लेषण करते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं-
  • मूलप्रवृत्तियाँ जन्मजात तथा आन्तरिक होती हैं।
  • मूलप्रवृत्तियाँ किसी न किसी रूप में संसार के सभी प्राणियों में पाई जाती हैं। इसलिये ये सार्वभौम विशेषता से युक्त हैं। 
  • मूलप्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति के लिये किसी प्रशिक्षण की आवश्यकता नहीं पड़ती।
  • प्रत्येक मूलप्रवृत्ति किसी लक्ष्य की ओर प्रेरित होती है। 
  • मूलप्रवृत्त्यात्मक व्यवहार का ज्ञान पहले से नहीं होता है।
मूलप्रवृत्तियों को मानव व्यवहार से पृथक् नहीं किया जा सकता। ये मानव व्यवहार का धर्म पालन करती हैं।विलियम मैक्डूगल के शब्दों में - 'मूलप्रवृत्तियाँ प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मानव की क्रियाओं की प्रमुख चालक हैं। यदि मूलप्रवृत्तियों तथा उनसे सम्बन्धित शक्तिशाली संवेगों को हटा दिया जाय तो प्राणी किसी भी कार्य को नहीं कर सकता। वह उसी प्रकार गतिहीन तथा निश्चल हो जायेगा जिस प्रकार एक अच्छी घड़ी जिसकी मुख्य कमानी हटा दी गई हो या स्टीम इंजन जिसकी आग बुझा दी गई हो।' 

मूलप्रवृत्तियों के तीन पहलू 

मैक्डूगल की उक्त परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक मूलप्रवृत्ति में तीन मानसिक प्रक्रियाएँ या तीन पहलू होते हैं, 
  1. ज्ञानात्मक (Cognitive) - किसी वस्तु या स्थिति का ज्ञान होना।
  2. संवेगात्मक (Affective) - ज्ञान के कारण किसी संवेग का उत्पन्न होना। 
  3. क्रियात्मक (Conative) - संवेग के कारण कोई क्रिया करना।
उदाहरणार्थ, एक छोटा बालक बहुत बड़ा, काला, झबरा कुत्ता देखता है। कुत्ते को देखकर उसमें भय का संवेग उत्पन्न होता है। भय के इस संवेग के कारण वह भाग जाता है या छिप जाता है।

सहज क्रिया व मूलप्रवृत्यात्मक क्रिया 

कुछ छात्रों को सहज-क्रिया और मूलप्रवृत्यात्मक क्रियाओं के सम्बन्ध में साधारणतः भ्रम रहता है। अतः हम दोनों के अन्तर को स्पष्ट कर रहे हैं,

सहज-क्रिया 

सहज क्रियाओं का अर्थ बताते हुए बी. एन. झा ने लिखा है - “वे सब क्रियाएँ, जिनको हम यंत्रवत् और बिना विचारे हुए करते हैं, सहज क्रियाएँ कहलाती हैं।"
हम सहज क्रियाओं के अर्थ को कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट कर सकते हैं। किसी बहुत गरम वस्तु से हाथ लग जाने से हाथ को एकदम हटा लेना, आँख में कुछ गिर जाने से उसमें से पानी निकलना, पैर के तलुवे को गुदगुदाने पर पैर को सिकोड़ लेना, स्वादिष्ट भोजन देखकर मुँह में पानी आ जाना - ये सब सहज क्रियाएँ हैं। इनको हम यंत्रवत् और बिना विचारे हुए करते हैं।
उपर्युक्त उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि सहज क्रिया एक साधारण, स्वाभाविक और स्वतः होने वाली प्रतिक्रिया है। इसका शरीर के किसी अंग से सम्बन्ध होता है। इसमें बुद्धि का कोई स्थान नहीं होता है। इसमें केवल 'क्रियात्मक प्रक्रिया' होती है। इसका संवेग से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।

मूलप्रवृत्यात्मक क्रिया 

मूलप्रवृत्यात्मक क्रिया या व्यवहार के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए मॉर्गन ने लिखा है - "मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार, मूलप्रवृत्ति और बुद्धि - दोनों की सम्मिलित उपज है।"

हम मूलप्रवृत्यात्मक क्रियाओं के अर्थ को कुछ उदाहरण देकर स्पष्ट कर सकते हैं। छोटा बालक - काले, झबरे कुत्ते को देखकर भाग जाता है या छिप जाता है। यदि उसके खेल में बाधा डाली जाती है, तो वह अपनी वस्तुओं को इधर-उधर फेंक देता है। अपने बच्चे को किसी प्रकार के संकट में देखकर माँ उसकी रक्षा के लिए प्रयत्न करती है।

उपर्युक्त उदाहरणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि मूलप्रवृत्यात्मक क्रिया या व्यवहार का कारण कोई मूलप्रवृत्ति होती है। इसमें बुद्धि का प्रयोग होता है। इसमें ज्ञानात्मक, संवेगात्मक और क्रियात्मक - तीनों प्रक्रियाएँ होती हैं। इसके साथ कोई संवेग जुड़ा रहता है। 

मूलप्रवृत्तियों की विशेषताएँ 

मैक्डूगल के अनुसार : मूलप्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं। अत: सीखकर या अनुकरण करके उनकी संख्या में वृद्धि नहीं की जा सकती है।

भाटिया के अनुसार : मूलप्रवृत्तियाँ एक जाति के प्राणियों में एक सी होती हैं, जैसे - मुर्गों द्वारा भूमि को कुरेदा जाना और बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का शान्त होना।

जेम्स के अनुसार : अनेक मूलप्रवृत्तियाँ एक विशेष अवस्था में प्रकट होती हैं और फिर धीरे-धीरे अदृश्य हो जाती हैं, जैसे - जिज्ञासा और काम प्रवृत्ति।

वैलेनटीन के अनुसार : मूलप्रवृत्तियाँ जिन कार्यों को करने की प्रेरणा देती हैं, उनमें शीघ्र ही कुशलता आ जाती है। यदि बत्तख को पानी में डाल दिया जाय, तो वह दो-तीन डुबकी खाने के बाद अच्छी तरह तैरने लगती है।

झा के अनुसार : सब मूलप्रवृत्तियाँ, सब व्यक्तियों में समान मात्रा में नहीं मिलती हैं। शिशु रक्षा सम्बन्धी मूलप्रवृत्ति पुरुष के बजाय स्त्री में अधिक होती है।

झा के अनुसार : सब मूलप्रवृत्तियाँ, जन्म से जागरूक न होकर व्यक्ति की आयु के साथ-साथ विकसित होती हैं, जैसे - संचय और सामुदायिकता की प्रवृत्तियाँ।
 
भाटिया के अनुसार : मूलप्रवृत्तियों का प्राणी के हित से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। अनेक पक्षी अपने को आँधी - पानी से सुरक्षित रखने के लिए घोंसले बनाते हैं।

भाटिया के अनुसार : मूलप्रवृत्तियों का कोई न कोई प्रयोजन अवश्य होता है, पर उस प्रयोजन का ज्ञान होना आवश्यक नहीं है। बालक में आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति होती है, पर वह उसके प्रयोजन से अनभिज्ञ होता है।

भाटिया के अनुसार : मूलप्रवृत्तियों को बुद्धि, अनुभव और वातावरण द्वारा परिवर्तित और विकसित किया जा सकता है। जिज्ञासा की प्रवृत्ति को अध्ययन करने के अच्छे कार्य, या पड़ोसियों के दोष खोजने के बुरे कार्य के रूप में विकसित किया जा सकता है। 

वैलेनटीन के अनुसार : मूलप्रवृत्तियों के कारण किये जाने वाले कार्यों में जटिलता और विभिन्न अवसरों पर विभिन्नता होती है। यह आवश्यक नहीं है कि क्रोध आने पर व्यक्ति सदैव एक ही प्रकार का व्यवहार करे। 

इन सभी विशेषताओं को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-
  1. मूलप्रवृत्तियाँ जन्मजात होती हैं।
  2. मूलप्रवृत्तियों का प्रयोजन होता है।
  3. मूलप्रवृत्तियाँ सभी प्राणियों में पाई जाती हैं।
  4. मूलप्रवृत्तियों के साथ संवेग जुड़े रहते हैं। 
  5. मूलप्रवृत्तियों तथा आदतों में भिन्नता पाई जाती है।
  6. मूलप्रवृत्तियों के अनुभव से प्राणी लाभ उठाता है।
  7. मूलप्रवृत्तियाँ नष्ट नहीं होतीं, इनमें संशोधन होता है। 
  8. मूलप्रवृत्तियों के तीन पक्ष - ज्ञानात्मक, संवेगात्मक एवं क्रियात्मक होते हैं।

मूलप्रवृत्तियों का वर्गीकरण

ड्रेवर, वुडवर्थ, थार्नडाइक आदि अनेक विद्वानों ने मूलप्रवृत्तियों का वर्गीकरण किया है। इन सब में McDougall का वर्गीकरण मौलिक और सर्वमान्य है। उसने निश्चित शारीरिक क्रियाओं के आधार पर 14 मूलप्रवृत्तियों की सूची दी है और प्रत्येक मूलप्रवृत्ति से सम्बद्ध एक संवेग बताया है, 

classification-of-instincts
Classification of Instinct

मूलप्रवृत्तियों का रूप परिवर्तन

रॉस के शब्दों में – “मूलप्रवृत्तियाँ चरित्र का निर्माण करने के लिए कच्चा माल हैं। शिक्षक इस कच्चे माल का रूप परिवर्तन करके ही बालकों के चरित्र और व्यक्तित्व का निर्माण कर सकता है। शिक्षक को अपने सब कार्यों में उनके प्रति ध्यान देना आवश्यक है।"
इस कार्य में वह निम्नलिखित विधियों या सिद्धान्तों की सहायता सकता है-

सुख व दुःख का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अनुसार, सुख और दुःख के द्वारा मूलप्रवृत्तियों में परिवर्तन किया जा सकता है, उदाहरणार्थ  यदि बालक के अनुचित मूलप्रवृत्यात्मक व्यवहार को दुःखद अनुभवों से सम्बन्धित कर दिया जाय, तो वह उनको नहीं दोहराता है। वैलेनटीन का कथन है - "हम में सुखद कार्यों को जारी रखने और दुःखद कार्यों से बचने की प्रवृत्ति होती है।"

प्रयोग न करने का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का अभिप्राय यह है कि प्रयोग न करने से मूलप्रवृत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। उदाहरणार्थ, यदि बालक में लड़ने की मूलप्रवृत्ति है, तो उसे ऐसे वातावरण में रखा जा सकता है, जहाँ उसे लड़ने का अवसर न मिले। परिणामस्वरूप, कुछ समय के बाद उसकी लड़ने की प्रवृत्ति नष्ट हो सकती है।

दमन का सिद्धान्त 

'दमन' का अर्थ स्पष्ट करते हुए रैक्स एवं नाइट ने लिखा है - “दमन के सम्बन्ध में वास्तविक तथ्य यह है कि हम मूलप्रवृत्ति का अनुभव तो करते हैं, पर हम उसको प्रकट नहीं होने देते हैं।" माता-पिता और शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों का दमन करने के लिए दण्ड, डाँट-फटकार या कठोर नियंत्रण का प्रयोग करते हैं। इस विधि से मूलप्रवृत्ति कुछ ही समय के लिए शान्त होती है और अवसर मिलने पर फिर उमड़कर घातक सिद्ध हो सकती है, उदाहरणार्थ, दमन की हुई संवय की प्रवृत्ति चोरी, डाका, लूट-मार आदि का रूप धारण कर सकती है।

निषेध या निरोध का सिद्धान्त

''निषेध' का साधारण अर्थ है - 'प्रतिबन्ध' या 'रुकावट'। इस विधि का प्रयोग मूलप्रवृत्तियों की क्रियाशीलता को रोकने के लिए किया जाता है, उदाहरणार्थ - काम-प्रवृत्ति की क्रियाशीलता को रोकने के लिए किशोरों और किशोरियों को एक-दूसरे से अलग रखा जा सकता है। इस विधि के सम्बन्ध में गेट्स एवं अन्य ने लिखा है - "निरोध में प्रवृत्ति का सचेत रूप से अनुभव किया जाता है और कार्य रूप में व्यक्त न होने देने के लिए सचेत रूप से रोका जाता है।"

विरोध का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का अभिप्राय है कि किसी मूलप्रवृत्ति के जाग्रत होने पर उसके विरोध में किसी दूसरी मूलप्रवृत्ति को उत्तेजित कर देना चाहिए। ऐसा करने से पहली प्रवृत्ति अपने आप ही निर्बल हो जाती है, उदाहरणार्थ, काम प्रवृत्ति के प्रबल होने पर निवृत्ति की प्रवृत्ति को जाग्रत कर देने से काम प्रवृत्ति स्वयं ही शिथिल हो जाती है।


मार्गान्तीकरण का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का अर्थ है - मूलप्रवृत्ति की क्रियाशीलता को अच्छे कार्य या दिशा की ओर मोड़ना, उदाहरणार्थ, बालक की लड़ने की मूलप्रवृत्ति को व्यर्थ में लड़ाई-झगड़ा करने की दिशा से हटाकर समाज-सेवा और दीन-दुखियों की रक्षा करने की दिशा में मोड़ा जा सकता है। इस विधि की सराहना करते हुए एविल ने लिखा है - “बालक की सहायता करने की सबसे सन्तोषजनक विधि उसकी मूलप्रवृत्तियों को मार्गान्तीकरण द्वारा प्रोत्साहित करना है।"

शोधन का सिद्धान्त 

'शोधन' का अर्थ स्पष्ट करते हुए रॉस ने लिखा है - “मूलप्रवृत्ति को अपने मौलिक लक्ष्य से उच्चतर सामाजिक और वैयक्तिक लक्ष्य की ओर मार्गान्तरित करने की प्रक्रिया को शोधन कहते हैं।" इस कथन से स्पष्ट हो जाता है कि 'शोधन' एक प्रकार का 'मार्गान्तीकरण' है। दोनों में अन्तर यह है कि 'मार्गान्तीकरण' में मूलप्रवृत्ति की दिशा तो बदल जाती है, पर उसके वास्तविक रूप में कोई परिवर्तन नहीं होता है। 

'शोधन' में दिशा बदलने के साथ-साथ मूलप्रवृत्ति का रूप भी बदल जाता है। साथ ही, उसकी अभिव्यक्ति इस प्रकार होती है कि व्यक्ति और समाज दोनों का हित होता है, उदाहरणार्थ, काम-प्रवृत्ति को परिष्कृत करके काव्य, चित्रकला आदि किसी रचनात्मक कार्य में उपयोग किया जा सकता है। कालिदास और तुलसीदास ने अपनी कामप्रवृत्ति का शोधन करके काव्य के क्षेत्र में ख्याति प्राप्त की।

स्वतंत्रता का सिद्धान्त 

ए. एस. नील ने अपनी पुस्तक "The Dreadful School" में मूलप्रवृत्तियों को रूपान्तरित करने के लिए विद्यालय में बालक को पूर्ण स्वतंत्रता दिए जाने पर बल दिया है। उसका यह सिद्धान्त सर्वमान्य नहीं है, क्योंकि एक बालक की स्वतन्त्रता का दूसरे बालक की स्वतंत्रता में बाधक सिद्ध होना अनिवार्य है।

मूलप्रवृत्तियों का शिक्षा में महत्व

शिक्षा का उद्देश्य मानव व्यवहार में संशोधन करना है। मूलप्रवृत्तियाँ व्यक्ति के आचरण एवं व्यवहार की मूल स्रोत हैं। शिक्षा के क्षेत्र में मूलप्रवृत्तियों का विशेष महत्व इसलिये है कि ये उनमें संशोधन कर सामाजिक मान्यता प्रदान करती हैं। रॉस के अनुसार - "मूलप्रवृत्तियाँ व्यवहार के अध्ययन के लिए अति आवश्यक हैं। अतः शिक्षा सिद्धान्त और व्यवहार में उनका बहुत अधिक महत्व है।"
मूलप्रवृत्तियों के महत्व का मुख्य कारण यह है कि वे शिक्षक और छात्र दोनों की विभिन्न प्रकार से सहायता करती हैं,

प्रेरणा देने में सहायता

शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों का प्रयोग करके उनको नये विचारों को ग्रहण करने की प्रेरणा दे सकता है। इस विधि को अपनाकर वह अपने शिक्षण और शिक्षा प्रक्रिया को सफल बना सकता है। इसका कारण बताते हुए एविल ने लिखा है - "मूलप्रवृत्तियाँ स्वयं प्रकृति की प्रेरणा देने की मौलिक विधि हैं।"

रुचि व रुझान जानने में सहायता

बालकों की मूलप्रवृत्तियाँ उनकी रुचियों व रुझानों की संकेत-चिह्न हैं। शिक्षक को उनकी पूरी जानकारी होनी आवश्यक है। यह जानकारी उसे पाठ्य-विषयों और शिक्षण विधियों का चुनाव करने में सहायता दे सकती है।

ज्ञान प्राप्ति में सहायता 

बालकों में जिज्ञासा - प्रवृत्ति, ज्ञान प्राप्त करने में अद्भुत योग देती है। शिक्षक इस मूल प्रवृत्ति को जाग्रत करके बालकों को ज्ञान का अर्जन करने के लिए प्रोत्साहित कर सकता है।

रचनात्मक कार्यों में सहायता 

बालकों में रचना की मूलप्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है। इसीलिए, उनको रचनात्मक कार्यों में विशेष आनन्द आता है। इन कार्यों का "स्व-शिक्षा" से घनिष्ठ सम्बन्ध है। शिक्षक, बालकों की रचना-प्रवृत्ति का विकास करके उनको रचनात्मक कार्यों द्वारा स्वयं ज्ञान का अर्जन करने में सहायता दे सकता है।

व्यवहार परिवर्तन में सहायता 

शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों को रूपान्तरित करके उनके व्यवहार को समाज के आदर्शों के अनुकूल बना सकता है। ऐसा किये जाने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए बी. एन झा ने लिखा है - "मूलप्रवृत्तियाँ व्यक्ति को विभिन्न प्रकार का व्यवहार करने के लिए उत्तेजित करती हैं। कोई भी सभ्य मानव समाज इनमें से सबको मौलिक रूप में स्वीकृति नहीं देता है।"

चरित्र निर्माण में सहायता

शिक्षक, बालकों की मूलप्रवृत्तियों का अध्ययन करके उनके चरित्र का निर्माण कर सकता है। इस सम्बन्ध में रॉस ने लिखा है - “मूलप्रवृत्तियाँ ईंटें हैं, जिनसे व्यक्ति के चरित्र का निर्माण किया जाता है। ये शिक्षक को अपनी प्राकृतिक दशा में मिलती हैं। उसका महान कर्त्तव्य इनको परिवर्तित और परिष्कृत करना है।"

अनुशासन में सहायता  

बालक चोरी, उद्दण्डता, लड़ाई-झगड़ा, अनुचित आचरण आदि अनुशासनहीनता के कार्यों को तभी करते हैं, जब उनकी मूलप्रवृत्तियाँ उचित दिशाओं में निर्देशित नहीं होती हैं। शिक्षक उनकी मूलप्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण करके, उनमें अनुशासन की भावना का विकास कर सकता है।

पाठ्यक्रम निर्माण में सहायता

पाठ्यक्रम निर्माण का आधारभूत सिद्धान्त बालकों की मूलप्रवृत्तियाँ होनी चाहिए। उनकी मूलप्रवृत्तियों को सन्तुष्ट करने वाला पाठ्यक्रम ही उनके लिए हितप्रद हो सकता है। अतः विभिन्न स्तरों के पाठ्यक्रमों का निर्माण करते समय शिक्षकों को बालकों की मूलप्रवृत्तियों का अवश्य ध्यान रखना चाहिए।

मैक्डूगल के सिद्धान्त की आलोचना

मैक्डूगल ने “मूलप्रवृत्तियों और संवेगों" के सिद्धान्त का अति सुन्दर ढंग से प्रतिपादन किया है। उसने इनके सम्बन्ध में जो भी लिखा है, वह हमें व्यावहारिक जीवन में प्रतिदिन दिखाई देता है। मैक्डूगल के अनुसार - मूलप्रवृत्ति एक आन्तरिक मनःशारीरिक प्रकृति है जो इसके स्वामी के लिये एक निश्चित वर्ग की वस्तुओं को इन्द्रिय-गोचर होने पर एक विशेष प्रकार की उद्वेगात्मक उत्तेजना का अनुभव देती है तथा इसके सम्बन्ध में एक विशेष व्यवहार ही या कम से कम इस प्रकार के व्यवहार की आन्तरिक प्रेरणा का होना निश्चित करती है। मैक्डूगल का मत इस बात पर बल देता है कि मानव व्यवहार के निर्धारण में मूलप्रवृत्तियों का योगदान है। 

मैक्डूगल के इस मत की आलोचना इस प्रकार की गई है-

जिसबर्ग 

मैक्डूगल ने प्रत्येक मूलप्रवृत्ति में तीन प्रकार की मानसिक क्रियाओं का होना बताया है - ज्ञानात्मक, संवेगात्मक और क्रियात्मक। जिसबर्ग का तर्क है - मैक्डूगल ने मस्तिष्क को जिन तीन भागों में विभाजित किया है, वह सत्य से बहुत दूर है, क्योंकि तीनों का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध है। 

अकोलकर 

मैक्डूगल ने मूलप्रवृत्तियों को सार्वभौमिक माना है। अकोलकर ने इनको सार्वभौमिक स्वीकार न करते हुए लिखा है -“कुछ आदि समाजों में युद्ध की प्रवृत्ति नहीं मिलती है, कुछ में संचय की प्रवृत्ति नहीं मिलती है, जबकि कुछ समाज ऐसे हैं, जिनमें आत्म-प्रदर्शन की प्रवृत्ति कठिनता से मिलती है।” 

अकोलकर 

मैक्डूगल ने मातृ-मूलप्रवृत्ति का उल्लेख किया है। इसको स्वीकार करते हुए अकोलकर ने लिखा है - “अनेक स्त्रियों ने बताया है कि उन्होंने सन्तान इसलिए उत्पन्न नहीं की कि वे चाहती थीं, पर इसलिए नि समाज बाँझ स्त्रियों को घृणा की दृष्टि से देखता है।"

ए. एफ. शैन्ड

मैक्डूगल ने प्रत्येक मूलप्रवृत्ति से एक संवेग का सम्बन्ध माना है। शैन्ड का तर्क है कि एक मूलप्रवृत्ति के साथ एक नहीं, वरन् अनेक संवेग सम्बद्ध रहते हैं, उदाहरणार्थ - भयभीत होने पर भागनें के बजाय, हम छिप सकते हैं, मरने का बहाना कर सकते हैं, वहीं खड़े रह सकते हैं या सहायता के लिए चिल्ला सकते हैं।

हॉबहाउस

मैक्डूगल ने मूलप्रवृत्तियों को मानव-व्यवहार का आधार माना है। इसके विपक्ष में हॉबहाउस ने लिखा है कि मानव व्यवहार केवल मूलप्रवृत्तियों से ही नहीं, वरन् सामाजिक परम्पराओं से भी निश्चित होता है।

मर्सेल 

मैक्डूगल ने 14 मूलप्रवृत्तियों की सूची दी है। मरसेल का मत है कि मूलप्रवृत्तियों की संख्या अपरिमित और अनिश्चित है। अपने मत की पुष्टि में उसने बरनार्ड द्वारा किए गए एक अनुसंधान का उल्लेख किया है। बरनाई ने 14,046 विभिन्न मूलप्रवृत्तियों का पता लगाया है, जिनको 5,759 विभिन्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इस अनुसंधान के आधार पर मर्सेल ने यह विचार लेखबद्ध किया है - “मूलप्रवृत्ति शब्द का प्रयोग किसी भी बात की व्याख्या करने के लिए किया जा सकता है, पर वास्तव में, यह शब्द किसी भी बात की व्याख्या नहीं करता है। इस शब्द का अर्थ अनिश्चित है और इसे अत्यन्त अनिश्चित ढंग से प्रयोग किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप मानव-मूलप्रवृत्तियों की सम्पूर्ण धारणा अपयश का विषय हो गई है।"

मैक्डूगल के सिद्धान्त के विपक्ष में और भी अनेक प्रकार के विचार व्यक्त किए गए हैं। इनके और मैक्डूगल के सिद्धान्त के सम्बन्ध में अपना मत प्रदर्शित करते हुए रैक्स व नाइट ने लिखा है - "ये सब विचार महत्वपूर्ण हैं, पर इनका अभिप्राय यह नहीं है कि मानव-मूलप्रवृत्ति की धारणा निरर्थक है और वास्तव में ऐसे बहुत ही कम मनोवैज्ञानिक हैं जो किसी न किसी रूप में इसका प्रयोग न करते हों।"

मूलप्रवृत्तियाँ मानव व्यवहार का अनिवार्य पक्ष हैं। मैक्डूगल ने मूलप्रवृत्तियों की व्याख्या, वर्गीकरण तथा शिक्षण में इनकी उपयोगिता पर बल दिया है। बालक में जिज्ञासा, सर्जनात्मकता, संग्रह, आत्मप्रकाशन, पलायन, युयुत्सा, निवृत्ति, पैतृकता, काम, दैन्य, शरणागति भोजनान्वेषण तथा हास्य में शोधन कर मूलप्रवृत्तियों को सामाजिक स्वरूप प्रदान किया जाता है।

This blog aims to give you as much helpful information and notes as possible for those getting ready for competitive exams. We have gathered this information from a variety of sources to make sure you have everything you need to prepare effectively.