निदानात्मक व उपचारात्मक शिक्षण | Diagnostic and Remedial Teaching

योकम व सिम्पसन ने लिखा है - "उपचारात्मक शिक्षण उचित रूप से निदानात्मक शिक्षण के बाद आता है।"

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Diagnostic and Remedial Teaching

निदानात्मक व उपचारात्मक शिक्षण (Diagnostic and Remedial Teaching)

प्रत्येक विद्यालय की प्रत्येक कक्षा में ऐसे छात्र होते हैं, जो मन्द गति से अध्ययन करते हैं या अध्ययन में विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों का अनुभव करते हैं। इनमें से कुछ छात्र, परीक्षा में अनुत्तीर्ण होते हैं और कुछ विद्यालय की ओर से सदैव के लिए मुँह मोड़ लेते हैं। इस प्रकार के छात्र शिक्षकों एवं विद्यालयों के समक्ष जटिल समस्याएँ उपस्थित कर देते हैं।
इन समस्याओं के समाधानों को खोजने के लिए शिक्षक एवं विद्यालय, शिक्षण की दो नवीन विधियों - निदानात्मक एवं उपचारात्मक का प्रयोग करने का प्रयास कर रहे हैं । ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन के शब्दों में - "शिक्षक एवं विद्यालय कक्षा-कक्ष में आधुनिक निदानात्मक एवं उपचारात्मक विधियों का प्रयोग करके, इन समस्याओं के समाधानों को खोजने का प्रयास कर रहे हैं।"

शिक्षक पहले निदानात्मक शिक्षण के द्वारा छात्रों की कठिनाइयों का निदान करते हैं । तदुपरान्त, वे उनको अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों से मुक्त करने के लिए उपचारात्मक शिक्षण का प्रयोग करते हैं, इस प्रकार जैसा कि योकम व सिम्पसन ने लिखा है - "उपचारात्मक शिक्षण उचित रूप से निदानात्मक शिक्षण के बाद आता है।" 

निदानात्मक एवं उपचारात्मक शिक्षण के इस संक्षिप्त परिचय के पश्चात् हम इनके विभिन्न अंगों का विस्तृत वर्णन कर रहे हैं।

निदानात्मक शिक्षण का अर्थ व परिभाषा

निदानात्मक शिक्षण (Diagnostic Teaching) क्या है ? इसे पूर्ण रूप से समझने के लिए डायगनौसिस (Diagnosis) के अर्थ को स्पष्ट कर देना असंगत प्रतीत नहीं होता है। अत: हम पहले इसी पर आपके ध्यान को केन्द्रित कर रहे हैं।

डायगनौसिस (Diagnosis) का हिन्दी रूपान्तर है, "निदान" - जिसका शाब्दिक अर्थ है -   मूल कारण अथवा रोग-निर्णय। जिस प्रकार चिकित्सक-रोगी के कुछ लक्षणों को देखकर, उसके रोग का निदान करता है, उसी प्रकार शिक्षक - छात्र की विषयगत मन्दता और पिछड़ेपन या उसकी अधिगम - सम्बन्धी त्रुटियों और कमियों का ज्ञान प्राप्त करके, उसकी कठिनाइयों का निदान करता है।

हम "निदान" के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए, दो लेखकों के विचारों को उद्धृत कर रहे हैं

गुड - "निदान का अर्थ है - अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों और कमियों के स्वरूप का निर्धारण।"

योकम व सिम्पसन - "निदान, किसी कठिनाई का उसके चिन्हों या लक्षणों से ज्ञान प्राप्त करने की कला या कार्य है। यह तथ्यों के परीक्षण पर आधारित कठिनाई का स्पष्टीकरण है।"

उक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि "निदान" का अर्थ है - शिक्षक द्वारा छात्रों की अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों, कमियों, कठिनाइयों आदि का ज्ञान प्राप्त किया जाना। शिक्षक जिस विधि का प्रयोग करके, इस ज्ञान को प्राप्त करता है, वह है - निदानात्मक शिक्षण। इस शिक्षण के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए, हम दो लेखकों के विचारों को आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं; 

मरसेल "जिस शिक्षण में (छात्रों की) विशिष्ट त्रुटियों का निदान करने का विशेष प्रयास किया जाता है, उसको बहुधा निदानात्मक शिक्षण कहा जाता है।" 

गुड व ब्राफी "निदानात्मक शिक्षण-अधिगम में छात्रों की कठिनाइयों के विशिष्ट स्वरूप का निदान करने के लिए, उनके उत्तरों की सावधानी से जाँच करने की प्रक्रिया का उल्लेख करता है।"

निदानात्मक शिक्षण के उद्देश्य (AIMS OF DIAGNOSTIC TEACHING)

योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) के अनुसार निदानात्मक शिक्षण के दो मुख्य उद्देश्य हैं
(1) छात्र की पाठ्य-विषय से सम्बन्धित स्वाभाविक अथवा जन्मजात कठिनाई का ज्ञान प्राप्त करना। 
(2) छात्र की पाठ्य विषय से सम्बन्धित विशिष्ट कठिनाई से अवगत होना।

यदि छात्र की पाठ्य-विषय से सम्बन्धित कठिनाई स्वाभाविक है, तो पाठ्य-विषय को उसकी योग्यता के अनुरूप बनाया जाना आवश्यक है। इसके विपरीत, यदि उसकी कोई विशिष्ट कठिनाई है, तो उसमें अधिगम-सम्बन्धी विभिन्न कार्यों के द्वारा अधिगम की प्रभावशाली आदतों का विकास किया जाना अनिवार्य है।

निदानात्मक शिक्षण के दो अन्य उद्देश्यों की चर्चा करते हुए योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) ने लिखा है - "निदानात्मक शिक्षण में छात्र के व्यक्तित्व के सब पक्षों (Aspects) का विश्लेषण सम्मिलित है और यह उसकी निम्न उपलब्धि के कारणों की उचित व्याख्या करने का प्रयास करता है।"

निदानात्मक शिक्षण के क्षेत्र (FIELDS OF DIAGNOSTIC TEACHING)

निदानात्मक शिक्षण का प्रयोग साधारणतः आधारभूत विषयों (Fundamental Subjects ) तक ही सीमित है। ये विषय हैं - वाचन, लेखन उच्चारण, व्याकरण और अंकगणित (Reading, Writing, Spelling, Grammar and Arithmetic)। 

निदानात्मक शिक्षण का प्रयोग केवल इन आधारभूत विषयों तक ही सीमित क्यों है ? इसका कारण बताते हुए योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) ने लिखा है - इन विषयों के शिक्षण में अधिगम के विशिष्ट रूपों की आवश्यकता पड़ती है, जिनका सूक्ष्मता से परीक्षण किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, ये आधारभूत विषय, अन्य विषयों के ज्ञान की प्राप्ति में प्रगति करने के मूलाधार हैं।

निदानात्मक शिक्षण के विषय-क्षेत्र के सम्बन्ध में योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) ने यह आशा प्रकट की है - "यह विश्वास किया जाता है कि अगले कुछ वर्षों में निदान करने की विधियों में इतना विस्तार हो जायगा कि उनके अंतर्गत विद्यालय-पाठ्यक्रम के अधिक विषय सम्मिलित हो जायेंगे।" यहाँ यह लिख देना असंगत नहीं होगा क्यूंकि हुआ भी ऐसा ही है।

निदानात्मक परीक्षण का अर्थ व परिभाषा

छात्र की अधिगम सम्बन्धी कुछ कठिनाइयाँ ऐसी होती हैं, जिनको शिक्षक साधारण अवलोकन या निरीक्षण से ज्ञात नहीं कर सकता है। उसे इस कार्य में सहायता देते हैं - प्रमापीकृत निदानात्मक परीक्षण (Standardized Diagnostic Test)।

हम निदानात्मक परीक्षण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं; 

1. योकम व सिम्पसन "निदानात्मक परीक्षण वह साधन है, जो शैक्षिक वैज्ञानिकों के द्वारा छात्रों की कठिनाइयों को ज्ञात करने और यथासम्भव उन कठिनाइयों के कारणों को व्यक्त करने के लिए निर्मित किया गया है।" 

2. क्रो व क्रो - "निदानात्मक परीक्षणों का निर्माण छात्रों की अधिगम सम्बन्धी विशिष्ट कठिनाइयों का ज्ञान प्राप्त करने या निदान करने के लिए किया जाता है। पूर्ण सावधानी से निर्मित किए गए निदानात्मक परीक्षण में किसी विशेष विषय के अधिगा किसी विशेष पक्ष पर बल दिया जाता है ताकि छात्र की योग्यताओं और कमजोरियों की ज्ञात किया जा सके और उपचारात्मक शिक्षण का प्रयोग किया जा सके ।"

निदानात्मक भाषा-परीक्षण

[Yoakam and Simpson के उदाहरण पर आधारित जो ऊपर समझाया गया है ] 
निर्देश - इस परीक्षण के प्रत्येक वाक्य में दो शब्द कोष्ठकों में दिए हुए हैं, जिनमें से एक शब्द वाक्य को सही बनाता है। उस शब्द को वाक्य के बाद दिए हुए रिक्त स्थान में लिखिए।

SAMPLE
eg. -The boy (fell, felled) off the gate.fell
1. The servant (did, done) the work1....
2. He (run, ran) very fast.2....
3. They (seen, saw) the horse race.3....
4. She (drink, drank) all the milk.4....
5. The children (broke, broked) their toys.5....
6. The peon (rang, ranged) the bell at nine o'clock6....
7. The student (knowed, knew) that he was right.7....
8. The cup was (broken, broke) by the child.8....
9. They have (went, gone) already.9....
10. The dog (swam, swim) in the river.10....
11. The boy (rebuke, rebuked) yesterday.11....
12. They (drawed, drew) water from the well.12....
13. The children (eat, ate) their bread.13....
14. He (drived, drove) the car.14....
15. The boy (run, ran) across the field.15....
16. He (set, sat) there for about two hours.16....
17. The patient was (give, given) medicine times.17....
18. He (wrote, writed) a letter to his friend.18....
19. His mother was (take, taken) to the hospital.19....
20. She was happy because she (had received, recepit) a prize.20....
21. He said that he (came, come) to see me.21....
22. They (threw, throwed) stones into the well.22....
23. That boy had (tore, torn) his coat.23....
24. The loud noise (awaked, awakened) him last night.24....
25. She (set, sat) looking at me.25....
26. He (rode, rided) the horse and went away.26....
27. He had (went, gone) home before sunset.27....
28. No one had (saw, seen) him for many years.28....
29. They (beat, beaten) the thief for two hours.29....
30. The boys (took, taked) their books with them.30....
31. She said that she (laid, lay) the sweater on the bench.31....
32. He (breaked, broke) his own record in swimming.32....

निदानात्मक परीक्षणों की उपयोगिता

निदानात्मक परीक्षणों की उपयोगिता की एकमात्र कसौटी यह है कि उनको न केवल छात्रों की विभिन्न विषयों में कठिनाइयों और कमजोरियों का, वरन् उनकी योग्यताओं, कुशलताओं, अभिरुचि आदि का भी पूर्ण ज्ञान प्रदान करना चाहिए। केवल इसी श्रेणी के निदानात्मक परीक्षणों को सफल, सार्थक एवं उपयोगी माना जा सकता है।

हम अपनी इस धारणा को सत्य सिद्ध करने के लिए कुप्पूस्वामी द्वारा उद्धृत किए गए अग्रांकित विचार को प्रस्तुत कर रहे हैं - "निदानात्मक परीक्षणों को हमें यह बताना चाहिए कि बालक क्या कर सकता है कि और क्या नहीं कर सकता है। क्योंकि जब हमको इस बात का ज्ञान हो जायगा कि उसमें जो रुचियाँ एवं अभिरुचियाँ हैं, वे किन बातों में हैं, तभी हम उसके प्रति अपने कर्त्तव्य को पूर्ण कर सकेंगे।"
"The diagnostic test must tell us what the child can do as well as what he cannot do. For it is only when we have discovered where such interests and aptitudes as he possesses happen to lie that we shall be able to do our duty by him." - H. M. S. O.

निदानात्मक शिक्षण के परिणाम

निदानात्मक शिक्षण के जितने उत्तम परिणाम प्राप्त होते हैं, उतने सम्भवत: शिक्षण की किसी अन्य विधि से उपलब्ध नहीं होते हैं। योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) के मतानुसार, ये परिणाम अधोलिखित हैं:
  1. निदानात्मक शिक्षण छात्रों की अध्ययन सम्बन्धी अनुचित आदतों पर अंकुश लगाता है।
  2. निदानात्मक शिक्षण छात्रों में विद्यालय कार्य के प्रति उचित दृष्टिकोण का विकास करता है।
  3. निदानात्मक शिक्षण छात्रों की विशिष्ट समस्याओं की संख्या को अधिक-से-अधिक कम करता है। 
  4. निदानात्मक शिक्षण छात्रों की अध्ययन सम्बन्धी अनुचित प्रवृत्तियों को वैज्ञानिक विधि से उनके समक्ष उपस्थित करता है।
  5. निदानात्मक शिक्षण छात्रों को उनकी त्रुटियों का ज्ञान प्रदान करता है और उनको उनसे बचने की चेतावनी देता है।

उपचारात्मक शिक्षण का अर्थ व परिभाषा

उपचारात्मक शिक्षण, वास्तव में, नवीन नहीं है, क्योंकि प्राचीन काल से आज तक योग्य शिक्षक अपने छात्रों के अधिगम-सम्बन्धी दोषों को दूर करके, उनकी गति के पथ को प्रशस्त करने का प्रयास करते चले आ रहे हैं।
आधुनिक शिक्षा-शास्त्र में "उपचारात्मक" शब्द - औषधिशास्त्र से ग्रहण किया गया है। जिस प्रकार चिकित्सक-व्यक्तियों के विभिन्न रोगों का उपचार करके, उनको उत्तम स्वास्थ्य प्रदान करने की चेष्टा करते हैं, उसी प्रकार शिक्षक - छात्रों को अधिगम- सम्बन्धी दोषों से मुक्त करके, उनको ज्ञानार्जन की उचित दिशा की ओर मोड़ने का उद्योग करते हैं । 
हम उपचारात्मक शिक्षण के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए, दो शिक्षाशास्त्रियों को विचारों को लिपिबद्ध कर रहे हैं;
योकम व सिम्पसन "उपचारात्मक शिक्षण उस विधि को खोजने का प्रयत्न करता है, जो छात्र को अपनी कुशलता या विचार की त्रुटियों को दूर करने में सफलता प्रदान करे।"

ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन "उपचारात्मक शिक्षण, वास्तव में, उत्तम शिक्षण है, जो छात्र को अपनी वास्तविक स्थिति का ज्ञान प्रदान करता है और जो सुप्रेरित क्रियाओं द्वारा उसको अपनी कमजोरियों के क्षेत्रों में अधिक योग्यता की दिशा में अग्रसर करता है।"

उपचारात्मक शिक्षण के उद्देश्य

उपचारात्मक शिक्षण के मुख्य उद्देश्य दृष्टव्य हैं 
  1. छात्रों की ज्ञान-सम्बन्धी त्रुटियों का अन्त करना।
  2. छात्रों के अधिगम-सम्बन्धी दोषों को दूर करके, उनको भविष्य में उन दोषों से मुक्त रखना। 
  3. छात्रों की दोषपूर्ण आदतों, कुशलताओं एवं मनोवृत्तियों को समाप्त करके, उनको उत्तम रूप प्रदान करना।
  4. छात्रों को उन आवश्यक आदतों, कुशलताओं एवं मनोवृत्तियों का सिखाना, जो उनके द्वारा सीखी नहीं गई हैं।
  5. छात्रों की अवांछनीय रुचियों, आदर्शों एवं दृष्टिकोणों को वांछनीय रुचियों, आदर्शों एवं दृष्टिकोणों में परिवर्तित करना।
एक अन्य उद्देश्य के प्रति ध्यान को आकृष्ट करते हुए योकम व सिम्पसन ने लिखा है - "उपचारात्मक शिक्षण का उद्देश्य - सब प्रकार की अधिगम सम्बन्धी त्रुटियों को शुद्ध करने के लिए प्रभावशाली विधियों का विकास करना है।"

उपचारात्मक शिक्षण - छात्रों के विभिन्न दोषों का निवारण करके ही, उल्लिखित उद्देश्यों की प्राप्ति में सफलता प्रदान कर सकता है। योकम व सिम्पसन का यह कथन वास्तव में अक्षरशः सत्य है - "जब तक बालक के शारीरिक, संवेगात्मक एवं सामाजिक दोषों का सफलतापूर्वक उपचार नहीं किया जायगा, तब तक अधिगम की विधि के दोषों की व्याख्या पर आधारित उपचारात्मक उपाय विफल रहेंगे।"

उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करने की विधियाँ

योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) के अनुसार, छात्रों को उपचारात्मक शिक्षण प्रदान करने के लिए, निम्नलिखित पाँच विधियों का प्रयोग किया जा सकता है:
  1. छात्रों की त्रुटियों को यदा-कदा शुद्ध करना।
  2. प्रत्येक छात्र के अधिगम सम्बन्धी दोषों का व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करके उसे उनको दूर करने के उपाय बताना। 
  3. छात्रों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार, उनको विभिन्न समूहों में विभाजित करके, उनके शिक्षण की व्यवस्था करना। 
  4. छात्रों को छोटे-छोटे समूहों में विभाजित करके, उनको उनकी आवश्यकताओं के अनुसार, शिक्षा प्रदान करना। 
  5. कक्षा के छात्रों के अधिगम सम्बन्धी दोषों, कमजोरियों और बुरी आदतों का निदान करके, उनको उनसे मुक्त करना।
उक्त लेखकों ने पहली विधि को पूर्णतया अनुपयोगी और दूसरी विधि को अत्यधिक कठिन बताया है। तीसरी और चौथी विधियों के विषय में उनका मत यह है - कक्षा-कक्ष में शिक्षक इन दोनों विधियों का प्रयोग तभी कर सकता है, जब वह छोटे समूहों में छात्रों को शिक्षा प्रदान करने में भली-भाँति प्रशिक्षित हो और अपनी शिक्षण-विधि को प्रत्येक छात्र की विशिष्ट आवश्यकताओं के अनुरूप बना सके। ये दोनों विधियाँ प्रभावशाली अवश्य है पर इनका सामान्य रूप से प्रयोग किया जाना अत्यधिक कठिन है। केवल पाँचवीं विधि ऐसी है, जिसका सुगमता से प्रयोग किया जा सकता है।

योकम व सिम्पसन ने पाँचवीं विधि को व्यावहारिक बताते हुए और शिक्षक के एक मुख्य कार्य का उल्लेख करते हुए लिखा है - "कक्षा - कक्ष के नियमित कार्य में शिक्षक के कार्यों में एक कार्य यह है-सब प्रकार की त्रुटियों के उपचार करने के लिए विधियों एवं उपायों की खोज करना।"

हम उदाहरण के लिए कुछ त्रुटियों के उपचार की विधियों को अंकित कर रहे हैं; 
  1. यदि छात्रों में उच्चारण-सम्बन्धी दोष है, तो शिक्षक उनको शुद्ध ठच्चारण बताकर उनसे उनका अभ्यास कराए।
  2. यदि छात्रों की वाचन की गति धीमी है, तो उसमें वृद्धि करने के लिए, शिक्षक उनको अधिक वाचन करने के लिए प्रोत्साहित करे।
  3. यदि छात्रों में वाचन सम्बन्धी दोष हैं तो शिक्षक वाचन में उनकी वास्तविक योग्यता का पता लगाकर, उनमें वृद्धि करने की चेष्टा करे। इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए, वह छात्रों के लिए वाचन की ऐसी सामग्री की व्याख्या करें, जिससे उनको आनन्द प्राप्त हो।
  4. यदि छात्रों की शब्दावली कम विस्तृत है तो उसको अधिक विस्तृत करने के लिए, शिक्षक उनको अधिक पढ़ने और शब्द-कोश में नवीन शब्दों के अर्थों को देखने के लिए प्रोत्साहित करे।

उपचारात्मक शिक्षण के विषय-क्षेत्र

निदानात्मक शिक्षण की तुलना में उपचारात्मक शिक्षण का क्षेत्र अधिक विस्तृत है। पर क्योंकि आधारभूत विषयों में पूर्ण सफलता प्राप्त न कर सकने के कारण छात्र के समक्ष अधिगम-सम्बन्धी अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं, इसलिए उपचारात्मक शिक्षण में बहुधा आधारभूत विषयों को ही स्थान दिया जाता है। योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) के अनुसार, ये विषय हैं - वाचन, लेखन, उच्चारण, भाषा और अंकगादित (Reading, Writing, Spelling, Language and Arithmetic)।

उपरिलिखित तथ्य के बावजूद उपचारात्मक शिक्षण के अन्तर्गत विद्यालय पाठ्यक्रम के लगभग सब विषयों का अपना विशिष्ट स्थान है। योकम व सिम्पसन का कथन है - "उपचारात्मक कार्य से सम्बन्धित अधिकांश साहित्य, विद्यालय-विषयों के अधिगम में उपस्थित होने वाली कठिनाइयों के उपचार करने का प्रयास करता है।"

उपचारात्मक शिक्षण के परीक्षणों का प्रयोग

परीक्षण - उपचारात्मक शिक्षण के अभिन्न अंग हैं। वे छात्रों के अधिगम सम्बन्धी दोषों का निवारण करने के लिए प्रयोग की जाने वाली विधियों की सफलता या असफलता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करने के लिए परम आवश्यक है। परीक्षणों का प्रयोग किए बिना यह जानकारी असम्भव है कि छात्रों की अधिगम-सम्बन्धी त्रुटियों का अन्त करने के लिए कौन-सी विधियाँ सबसे अधिक लाभप्रद एवं सन्तोषजनक सिद्ध हुई थीं। 
उक्त परीक्षण किस प्रकार के होने चाहिए ? इसका स्पष्टीकरण करते हुए, योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) ने लिखा है - प्रमापित परीक्षण (Standardized Tests) उपचारात्मक कार्यों के लिए उपयोगी नहीं है। इसका कारण यह है कि कार्यों के सम्बन्ध में सामान्य ज्ञान प्रदान करते हैं। यह ज्ञान छात्रों के अधिगम-सम्बन्धी दोषों का उन्मूलन करने के लिए पर्याप्त नहीं है। 

अतः योकम व सिम्पसन का मत है - "शिक्षक के लिए यह आवश्यक है कि वह उपचारात्मक कार्य के लिए अपने स्वयं के परीक्षणों की योजना बनाए। ये छोटे वस्तुनिष्ठ परीक्षण होने चाहिए।। यह आवश्यक है कि इन शिक्षक-निर्मित वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में किसी विषय-सामग्री के अधिगम में निहित सब कठिनाइयाँ आ जायें।" 

उपचारात्मक शिक्षण के परिणाम

उपचारात्मक शिक्षण के परिणामों की उपयोगिता एवं अनुपयोगिता के विषय में केवल छात्रों का निर्णय ही मान्य है। यदि वे इस शिक्षण से लाभन्वित हुए हैं, तो इसको उपयोगी माना जा सकता है, अन्यथा नहीं। योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) का कथन है - "जिस प्रकार औषधि-शास्त्र में किसी चिकित्सा का परिणाम-रोगी का अपने रोग से मुक्त होकर, पूर्ण रूप से स्वस्थ होना है, उसी प्रकार उपचारात्मक शिक्षण में छात्र को स्वयं यह अनुभव करना चाहिए कि उसके ज्ञान, आदत, कुशलता तथा दृष्टिकोण में निश्चित रूप से परिवर्तन हो गया है।"

उपराचात्मक शिक्षण के जिन परिणामों के फलस्वरूप छात्र यह अनुभव करता है, उनकी सूची योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) ने इस प्रकार दी है:
  1. छात्रों में सामान्य समायोजन की क्षमता ।
  2. छात्र की अपनी विशिष्ट कठिनाइयों पर विजय । 
  3. छात्र की मानसिक एवं संवेगात्मक संघर्षों से मुक्ति।
  4. छत्र में अपने विचारों को सुनियोजित करने की योग्यता । 
  5. छात्र में अधिक स्पष्ट रूप से विचार करने और अपने विचारों को व्यक्त करने की योग्यता।

योकम व सिम्पसन ने लिखा है - "उपचारात्मक शिक्षण के सहगामी परिणाम है-छात्रों के आत्मविश्वास में वृद्धि, सफल उपलब्धि से प्राप्त होने वाला सन्तोष और भावी कठिनाइयों से बचने के लिए उत्तम अधिगम एवं अध्ययन की विधियों का उत्तम प्रयोग।" 
हमने इस अध्याय में निदानात्मक एवं उपचारात्मक शिक्षण का वर्णन किया है। इसमें हम इस बात का उल्लेख कर चुके हैं कि उपचारात्मक शिक्षण उचित रूप में निदानात्मक शिक्षण के बाद आता है। इसका कारण यह है कि पहले छात्रों के अधिगम-सम्बन्धी दोषों, त्रुटियों, कठिनाइयों आदि का निदान किया जाता है और उसके पश्चात् उनके निवारण का उपचार किया जाता है। किन्तु वस्तुत: जैसा कि स्किनर ने लिखा है - "आधार रूप में निदान एवं उपचार साथ-साथ चलते हैं।"

निदान एवं उपचार अथवा निदानात्मक शिक्षण तथा उपचारात्मक शिक्षण साथ-साथ क्यों चलते हैं ? इसका कारण बताते हुए योकम एवं सिम्पसन (Yoakam and Simpson) ने लिखा है - "दोनों प्रकार के शिक्षण एक मिश्रित प्रक्रिया के दो पक्ष हैं। शिक्षक इस प्रक्रिया का प्रयोग उन त्रुटियों का ज्ञान प्राप्त करने और उनका निवारण करने के लिए करता है, जिनको छत्र साधारणत: करते हैं। कुछ पाठों का स्वरूप पूर्णतया निदानात्मक और कुछ का पूर्णतया उपचारात्मक होता है।"

वास्तविकता, जैसा कि योकम व सिम्पसन ने लिखा है, यह है - "साधारणतः निदानात्मक शिक्षण एवं उपचारात्मक शिक्षण एक-दूसरे में इस प्रकार गुँथे हुए हैं कि विश्लेषण एवं विवेचन के कार्यों के अतिरिक्त उनको पृथक करना असम्भव है।" 

निदान के पश्चात उपचार जाता है। अत: निदानात्मक शिक्षण द्वारा व्यक्ति की कमियों तथा उनके कारणों की खोज की जाती है। उपचारात्मक शिक्षण के द्वारा व्यक्ति की कमियों को विभिन्न प्रकार के उपायों द्वारा दूर किया जाता है। निदानात्मक तथा उपचारात्मक शिक्षण में, शिक्षक की भूमिका ऐसे चिकित्सक की होती है जो विभिन्न प्रकार के परीक्षणों द्वारा सेवा के कारणों की खोज करता है तथा औषधियों अथवा उपायों द्वारा रोगों की चिकित्सा करता है।

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इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।