किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल | Adolescence Development

बाल्यावस्था के समापन अर्थात् 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरम्भ होती है। इस अवस्था को तूफान एवं संवेगों की अवस्था कहा गया है।
 
Adolescence-Development
Adolescence Development 

विकास की अवस्थाएँ : किशोरावस्था

बाल्यावस्था के समापन अर्थात् 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरम्भ होती है। इस अवस्था को तूफान एवं संवेगों की अवस्था कहा गया है। हैडो कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है- 11-12 वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना आरम्भ होता है, इसे किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ नई यात्रा आरम्भ की जाय तो सफलता प्राप्त की जा सकती है। जरशील्ड के शब्दों में किशोरावस्था वह समय है जिसमें विचारशील व्यक्ति बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर संक्रमण करता है।

स्टेनले हॉल के अनुसार- किशोरावस्था, बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान तथा विरोध की अवस्था है।
ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के विचारानुसार- किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त में आरम्भ होता है और प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त होता है। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि इस अवस्था की अवधि साधारणतः 7 या 8 वर्ष से 12 से 18 वर्ष तक की आयु तक होती हैं। इस अवस्था के आरम्भ होने की आयु, लिंग, प्रजाति, जलवायु, संस्कृति, व्यक्ति के स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करती है। सामान्यतः बालकों की किशोरावस्था लगभग 13 वर्ष की आयु में और बालिकाओं की लगभग 12 वर्ष की आयु में आरम्भ होती है। भारत में यह आयु पश्चिम के ठण्डे देशों की अपेक्षा एक वर्ष पहले आरम्भ हो जाती है।

किशोरावस्था के विकास के सिद्धान्त 

किशोरावस्था में बालकों और बालिकाओं में क्रान्तिकारी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त प्रचलित हैं-

आकस्मिक विकास का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के समर्थक स्टेनले हॉल है। उन्होंने 1904 में अपनी 'Adolescence' नामक पुस्तक प्रकाशित की। इसमें इन्होंने लिखा कि किशोर में जो भी परिवर्तन दिखाई देते हैं, वे एकदम होते हैं और उनका पूर्व अवस्थाओं से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। 
स्टेनले हॉल का मत है- किशोर में जो शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं, वे अकस्मात् होते हैं।

क्रमिक विकास का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के समर्थकों में किंग, थार्नडाइक और हालिंगवर्थ प्रमुख हैं। इन विद्वानों का मत है कि किशोरावस्था में शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तन निरन्तर और क्रमश: होते हैं। 
इस सम्बन्ध में किंग ने लिखा है- जिस प्रकार एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के अन्त में होता है, पर जिस प्रकार पहली ऋतु में ही दूसरी ऋतु के आगमन के चिह्न दिखाई देने लगते हैं, उसी प्रकार बाल्यावस्था और किशोरावस्था एक-दूसरे से सम्बन्धित रहती हैं।


किशोरावस्था: जीवन का सबसे कठिन काल 

किशोरावस्था वह समय है जिसमें किशोर अपने को वयस्क समझता है और वयस्क उसे बालक समझते हैं। वयसंधि की इस अवस्था में किशोर अनेक बुराइयों में पड़ जाता है।

ई. ए. किर्कपैट्रिक का कथन है- इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।
इस कथन की पुष्टि के लिए निम्नलिखित तर्क दिये जा सकते हैं जैसे-
  1. इस अवस्था में अपराधी प्रवृत्ति अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच जाती है और नशीली वस्तुओं का प्रयोग आरम्भ हो जाता है।
  2. इस अवस्था में समायोजन न कर सकने के कारण मृत्यु दर और मानसिक रोगों की संख्या अन्य अवस्थाओं की तुलना में बहुत अधिक होती है।
  3. इस अवस्था में किशोर के आवेगों और संवेगों में इतनी परिवर्तनशीलता होती है कि वह प्रायः विरोधी व्यवहार करता है जिससे उसे समझना कठिन हो जाता है। 
  4. इस अवस्था में किशोर अपने मूल्यों, आदर्शों और संवेगों में संघर्ष का अनुभव करता है, जिसके फलस्वरूप वह अपने को कभी-कभी द्विविधापूर्ण स्थिति में पाता है।
  5. इस अवस्था में किशोर, बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था - दोनों अवस्थाओं में रहता है। अतः उसे न तो बालक समझा जा सकता है और न प्रौढ़। 
  6. इस अवस्था में किशोर का शारीरिक विकास इतनी तीव्र गति से होता है कि उसमे क्रोध, घृणा, चिड़चिड़ापन, उदासीनता आदि दुर्गुण उत्पन्न हो जाती है।
  7. इस अवस्था में किशोर का पारिवारिक जीवन कष्टमय होता है, स्वतन्त्र का इच्छुक होने पर भी उसे स्वतन्त्रता नहीं मिलती है और उससे बड़ों की आज्ञा मानने की आशा भी नही की जा सकती है।
  8. इस अवस्था में किशोर के संवेगों, रुचियों, भावनाओं, दृष्टिकोणों आदि में इतनी अधिक परिवर्तनशीलता और अस्थिरता होती है, जितनी उसमें पहले कभी नहीं थी।
  9. इस अवस्था में किशोर में अनेक अप्रिय बातें होती हैं, जैसे- उद्दण्डता, कठोरता, भुक्खड़पन, पशुओं के प्रति निष्ठुरता, आत्म प्रदर्शन की प्रवृत्ति, गन्दगी और अव्यवस्था की आदतें एवं कल्पना और दिवास्वप्नों में विचरण।
  10. इस अवस्था में किशोर को अनेक जटिल समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे- अपनी आयु के बालकों और बालिकाओं से नये सम्बन्ध स्थापित करना, माता-पिता के नियन्त्रण से मुक्त होकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करने की इच्छा करना, योग्य नागरिक बनने के लिए उचित कुशलताओं को प्राप्त करना, जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण का निर्माण करना एवं विवाह, पारिवारिक जीवन और भावी व्यवसाय के लिए तैयारी करना।

किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ 

किशोरावस्था को दबाव, तनाव एवं तूफान की अवस्था माना गया है। इस अवस्था की विशेषताओं को एक शब्द परिवर्तन में व्यक्त किया जा सकता है। बिग व हण्ट के शब्दों में- किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप से व्यक्त करने वाला एक शब्द है- 'परिवर्तन' परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक और मनोवैज्ञानिक होता है।

जिन परिवर्तनों की ओर ऊपर संकेत किया गया है, उनसे सम्बन्धित विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

शारीरिक विकास 

किशोरावस्था को शारीरिक विकास का सर्वश्रेष्ठ काल माना जाता है। इस काल में किशोर के शरीर में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं, जैसे- भार और लम्बाई में तीव्र वृद्धि, माँसपेशियों और शारीरिक ढाँचे में दृढ़ता, किशोर में दाढ़ी और मूँछ की रोमावलियों एवं किशोरियों में प्रथम मासिक स्राव के दर्शन, कोलेसनिक का कथन है - किशोरों और किशोरियों दोनों को अपने शरीर और स्वास्थ्य की विशेष चिन्ता रहती है। किशोरों के लिए सबल, स्वस्थ और उत्साही बनना एवं किशोरियों के लिए अपनी आकृति को नारी जातीय आकर्षण प्रदान करना महत्वपूर्ण होता है।

मानसिक विकास

किशोर के मस्तिष्क का लगभग सभी दिशाओं में विकास होता है। उसमें विशेष रूप से अग्रलिखित मानसिक गुण पाये जाते हैं- कल्पना और दिवास्वप्नों की बहुलता, बुद्धि का अधिकतम विकास, सोचने-समझने और तर्क करने की शक्ति में वृद्धि, विरोधी मानसिक दशायें। कोलेसनिक के शब्दों में- किशोर की मानसिक जिज्ञासा का विकास होता है। वह इन समस्याओं के सम्बन्ध में अपने विचारों का निर्माण भी करता है।

घनिष्ठ व व्यक्तिगत मित्रता

किसी समूह का सदस्य होते हुए भी किशोर केवल एक या दो बालकों से घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है, जो उसके परम मित्र होते हैं और जिनसे वह अपनी समस्याओं के बारे में स्पष्ट रूप से बातचीत करता है। वेलेनटीन का कथन है- घनिष्ट और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर-किशोरावस्था की विशेषता है।

व्यवहार में विभिन्नता

किशोर में आवेगों और संवेगों की बहुत प्रबलता होती है। यही कारण है कि वह भिन्न-भिन्न अवसरों पर विभिन्न प्रकार का व्यवहार करता है, उदाहरणार्थ, किसी समय वह अत्यधिक क्रियाशील होता है और किसी समय अत्यधिक काहिल, किसी परिस्थिति में साधारण रूप से उत्साहपूर्ण और किसी में असाधारण रूप से उत्साहहीन बी. एन. झा ने लिखा है - हम सबके संवेगात्मक व्यवहार में कुछ विरोध होता है, पर किशोरावस्था में यह व्यवहार विशेष रूप से स्पष्ट होता है।

स्थिरता व समायोजन का अभाव

रॉस ने किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है, क्योंकि किशोर बहुत कुछ शिशु के समान होता है। उसकी बाल्यावस्था की स्थिरता समाप्त हो जाती है और वह एक बार फिर शिशु के समान अस्थिर हो जाता है। उसके व्यवहार में इतनी उद्विग्नता आ जाती है कि वह शिशु के समान अन्य व्यक्तियों और अपने वातावरण से समायोजन नहीं कर पाता है। अत: रॉस का मत है- शिशु के समान किशोर को अपने वातावरण से समायोजन करने का कार्य फिर आरम्भ करना पड़ता है।

स्वतन्त्रता व विद्रोह की भावना

किशोर में शारीरिक और मानसिक स्वतन्त्रता की प्रबल भावना होती है। वह बड़ों के आदेशों, विभिन्न परम्पराओं, रीति-रिवाजों और अन्धविश्वासों के बन्धनों में न बँधकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना चाहता है। अतः यदि उस पर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध लगाया जाता है, तो उसमें विद्रोह की ज्वाला फूट पड़ती है। कोलेसनिक का कथन है- किशोर, प्रौढ़ों को अपने मार्ग में बाधा समझता है, जो उसे अपनी स्वतन्त्रता का लक्ष्य प्राप्त करने से रोकते हैं।

काम शक्ति की परिपक्वता

कामेन्द्रियों की परिपक्वता और काम शक्ति का विकास किशोरावस्था की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। इस अवस्था के पूर्व काल में बालकों और बालिकाओं में समान लिंगों के प्रति आकर्षण होता है। इस अवस्था के उत्तरकाल में यह आकर्षण विषम लिंगों के प्रति प्रबल रुचि का रूप धारण कर लेता है। फलस्वरूप, कुछ किशोर और किशोरियाँ लिंगीय सम्भोग का आनन्द लेते हैं। गेट्स एवं अन्य का मत है- लगभग 40% बालकों को एक या इससे अधिक बार का विषम लिंगीय अनुभव होता है।

समूह को महत्व

किशोर जिस समूह का सदस्य होता है, उसको वह अपने परिवार और विद्यालय से अधिक महत्वपूर्ण समझता है। यदि उसके माता-पिता और समूह के दृष्टिकोणों में अन्तर होता है, तो वह समूह ही दृष्टिकोणों को श्रेष्ठतर समझता है और उन्हीं के अनुसार अपने व्यवहार, रुचियों, इच्छाओं आदि में परिवर्तन करता है। बिग एवं हण्ट के अनुसार- जिन समूहों से किशोरों का सम्बन्ध होता है, उनसे उनके लगभग सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र पहनने की आदतों और भोजन करने की विधियों को प्रभावित करते हैं।

रुचियों में परिवर्तन एवं स्थिरता

के. के. स्ट्रांग के अध्ययनों ने सिद्ध कर दिया है कि 15 वर्ष की आयु तक किशोरों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है, पर उसके बाद उनकी रुचियों में स्थिरता आ जाती है। वेलेनटाइन के अनुसार किशोर बालकों और बालिकाओं की रुचियों में समानता भी होती है, और विभिन्नता भी, उदाहरणार्थ, बालकों और बालिकाओं में अग्रांकित रुचियाँ होती हैं- पत्र-पत्रिकायें, कहानियाँ, नाटक और उपन्यास पढ़ना, सिनेमा देखना, रेडियो सुनना, शरीर को अलंकृत करना, विषम लिंगों से प्रेम करना आदि। बालकों को खेल-कूद और व्यायाम में विशेष रुचि होती है। उनके विपरीत, बालिकाओं में कढ़ाई-बुनाई, नृत्य और संगीत के प्रति विशेष आकर्षण होता है।

समाज सेवा की भावना

किशोर में समाज सेवा की अति तीव्र भावना होती है। इस सम्बन्ध में रॉस के ये शब्द उल्लेखनीय हैं- किशोर समाज सेवा के आदर्शों का निर्माण और पोषण करता है। उसका उदार हृदय मानव जाति के प्रेम से ओतप्रोत होता है, और वह आदर्श समाज का निर्माण करने में सहायता देने के लिए उद्विग्न रहता है।

ईश्वर व धर्म में विश्वास

किशोरावस्था के आरम्भ में बालकों को धर्म और ईश्वर में आस्था नहीं होती है। इनके सम्बन्ध में उनमें इतनी शंकायें उत्पन्न होती हैं कि वे उनका समाधान नहीं कर पाते हैं। पर धीरे-धीरे उनमें धर्म में विश्वास उत्पन्न हो जाता है और वे ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करने लगते हैं।

जीवन दर्शन का निर्माण

किशोरावस्था से पूर्व बालक अच्छी और बुरी, सत्य और असत्य, नैतिक और अनैतिक बातों के बारे में कई प्रकार के प्रश्न पूछता है। किशोर होने पर वह स्वयं इन बातों पर विचार करने लगता है और फलस्वरूप अपने जीवन दर्शन का निर्माण करता है। वह ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण करना चाहता है, जिनकी सहायता से वह अपने जीवन में कुछ बातों का निर्णय कर सके। इसे इस कार्य में सहायता देने के उद्देश्य से ही आधुनिक युग में युवक आन्दोलनों का संगठन किया जाता है।

अपराध प्रवृत्ति का विकास 

किशोरावस्था में बालक में अपने जीवन दर्शन, नये अनुभवों की इच्छा, निराशा, असफलता, प्रेम के अभाव आदि के कारण अपराध-प्रवृत्ति का विकास होता है। वैलेनटीन का विचार है- किशोरावस्था, अपराध प्रवृत्ति के विकास का नाजुक समय है। पक्के अपराधियों की एक विशाल संख्या किशोरावस्था में ही अपने व्यावसायिक जीवन को गम्भीरतापूर्वक आरम्भ करती है।

स्थिति व महत्व की अभिलाषा

किशोर में महत्वपूर्ण व्यक्ति बनने और प्रौढ़ों के समान निश्चित स्थिति प्राप्त करने की अत्यधिक अभिलाषा होती है। ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन के शब्दों में – किशोर महत्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति प्राप्त करना और श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहता है।

व्यवसाय का चुनाव

किशोरावस्था में बालक अपने भावी व्यवसाय को चुनने के लिए चिन्तित रहता है। इस सम्बन्ध में स्ट्रेंग का कथन है- जब छात्र हाई स्कूल में होता है, तब वह किसी व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने और उसमें उन्नति करने के लिए अधिक-ही-अधिक चिन्तित होता जाता है।

इस प्रकार, हम देखते हैं कि किशोरावस्था में बालक में अनेक नवीन विशेषताओं के दर्शन होते हैं। इनके सम्बन्ध में स्टैनले हॉल ने लिखा है- किशोरावस्था एक नया जन्म है, क्योंकि इसी में उच्चतर और श्रेष्ठतर मानव-विशेषताओं के दर्शन होते हैं।

किशोर की व्यवहार प्रवृत्तियाँ

ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन का कथन है- कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जोन्स और उनके साथियों ने किशोरों की विशिष्ट समस्याओं का विस्तृत अध्ययन किया है।
इसी अध्ययन के आधार पर स्किनर ने अधिकांश किशोरों की प्रमुख व्यवहार समस्याओं अथवा प्रवृत्तियों का वर्णन किया है, जो संक्षेप में निम्नलिखित-
  1. किशोर का बहुधा आदर्शवादी होना। 
  2. किशोर में समायोजन की समस्या का प्रायः कठिन होना।
  3. किशोर में आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त करने की इच्छा होना। 
  4. किशोर में लिंग सम्बन्धी सन्तोषप्रद कार्य करने की आकांक्षा होना।
  5. किशोर के लिए व्यक्तिगत व्यवसाय सम्बन्धी निर्णय लेना आवश्यक होना।
  6. किशोर का अपनी शारीरिक शक्ति और व्यक्तिगत पर्याप्तता का मूल्यांकन करना। 
  7. किशोर में अपने व्यक्तिगत अस्तित्व को स्थापित करने की अभिलाषा होना।
  8. किशोर का वयस्क व्यवहार की अनेक विधियों को सीखने का प्रयत्न करना। 
  9. किशोर का कभी-कभी व्यक्तिगत भय, चिन्ता या असुरक्षा की भावना से परेशान रहना। 
  10. किशोर का कभी-कभी दूरवर्ती उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए उतावला होना।
  11. किशोर का तर्कशीलता, अमूर्त विचारों और निर्णय की विधि को प्राप्त करने में संलग्न रहना।
  12. किशोर के व्यवहार से परिवार और विद्यालय में प्राप्त होने वाली स्वतंत्रता के अनुपात में आत्मानुशासन का प्रमाण मिलना। 
  13. किशोर का कभी-कभी भद्दा दिखाई देना और अपने समकक्ष समूह से किसी भी प्रकार की भिन्नता के प्रति विशेष रूप से सचेत रहना। 
  14. स्किनर के शब्दों में- किशोर के व्यवहार का अन्तिम और महत्वपूर्ण स्वरूप, व्यक्तित्व, प्रौढ़ता की दिशा में बढ़ने में लक्षित होना है। 
हम कह सकते हैं कि किशोरों में व्यवहार सम्बन्धी अनेक समस्याएँ तथा व्यवहार प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। इसका अभिप्राय यह भी नहीं है कि उनका ज्ञान प्राप्त करना असम्भव है। शिक्षक एवं अभिभावक किशोरों की समस्याओं का सतर्कता से अध्ययन करके, उसके व्यवहार को उचित दिशा प्रदान कर, उसे आत्म-सन्तोष प्रदान कर सकते हैं। हम अपने इस निष्कर्ष की पुष्टि में ब्लेयर, जोन्स व सिम्पसन के अग्रलिखित वाक्यों को उद्धृत कर रहे हैं- "किशोर की कुछ विशिष्ट समस्याएँ होती हैं। यदि शिक्षक एवं अभिभावक, किशोरों को वयस्कावस्था में सरलतापूर्वक प्रवेश करने में सहायता देना चाहते हैं, तो उनको समान रूप से किशोरों की अनोखी समस्याओं के स्वरूप से अवगत होना चाहिए। इस कार्य के लिए आधारभूत व्यवहार सिद्धान्त, किशोरावस्था एवं प्रत्येक किशोर से सम्बन्धित विशिष्ट ज्ञान का होना पहली शर्तें हैं।" 

किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

किशोरावस्था में शिक्षा के सम्बन्ध में हैडो रिपोर्ट में लिखा गया है- ग्यारह या बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना शुरू हो जाता है। इसको किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। यदि इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाय एवं इसकी शक्ति और धारा के साथ-साथ नई यात्रा आरम्भ कर दी जाय, तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।

उपरिलिखित शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि किशोरावस्था आरम्भ होने के समय से ही शिक्षा को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया जाना अनिवार्य है। इस शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए, इस पर हम प्रकाश डाल रहे हैं;

शारीरिक विकास के लिए शिक्षा

किशोरावस्था में शरीर में अनेक क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं, जिनको उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल और सुडौल बनाने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। अतः उसे अग्रलिखित का आयोजन करना चाहिए 
  • शारीरिक और स्वास्थ्य शिक्षा।
  • विभिन्न प्रकार शारीरिक व्यायाम।
  • सभी प्रकार के खेलकूद आदि।

मानसिक विकास के लिए शिक्षा 

किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम और अधिकतम विकास करने के लिए शिक्षा का स्वरूप उसकी रुचियों, रुझानों, दृष्टिकोणों और योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में अग्रलिखित को स्थान दिया जाना चाहिए।
  • कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालयी विषय।
  • किशोर की जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने और उसकी निरीक्षण शक्ति को प्रशिक्षित करने के लिए प्राकृतिक, ऐतिहासिक आदि स्थानों का भ्रमण।
  • उसकी रुचियों, कल्पनाओं और दिवास्वप्नों को साकार करने के लिए पर्यटन, वाद-विवाद, कविता लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्यक्रम सहगामी क्रियायें।

संवेगात्मकं विकास के लिए शिक्षा

किशोर अनेक प्रकार के संवेगों से संघर्ष करता है। इन संवेगों में से कुछ उत्तम और कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस प्रकार के विषयों और पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तीकरण और उत्तम संवेगों का विकास करें। इस उद्देश्य से कला, विज्ञान, साहित्य, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की सुन्दर व्यवस्था की जानी चाहिए।

सामाजिक सम्बन्धों की शिक्षा

किशोर अपने समूह को अत्यधिक महत्व देता है और उसमें आचार-व्यवहार की अनेक बातें सीखता है। अतः विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार और सम्बन्धों के पाठ सीख सके। इस दिशा में सामूहिक क्रियाएँ, सामूहिक खेल और स्काउटिंग अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा

किशोर में व्यक्तिगत विभिन्नताओं और आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे किशोरों की व्यक्तिगत माँगों को पूर्ण किया जा सके। इस बात पर बल देते हुए माध्यमिक शिक्षा आयोग ने लिखा है- हमारे माध्यमिक विद्यालयों को छात्रों की विभिन्न प्रवृत्तियों, रुचियों और योग्यताओं को पूर्ण करने के लिए विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रमों की व्यवस्था करनी चाहिए।

पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा

किशोर अपने भावी जीवन में किसी-न-किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। पर वह यह नहीं जानता है कि कौन-सा व्यवसाय उसके लिए सबसे अधिक उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने के लिए विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारम्भिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुउद्देशीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गई है।

जीवन दर्शन की शिक्षा

किशोर अपने जीवन दर्शन का निर्माण करना चाहता है, पर उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है- किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में सहायता देने का महान् उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।

धार्मिक व नैतिक शिक्षा

किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में निरन्तर द्वन्द्व होता रहता है। फलस्वरूप, वह उचित व्यवहार के सम्बन्ध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता है। अत: उसे उदार, धार्मिक और नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए ताकि वह उचित और अनुचित में अन्तर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके। इसीलिए, कोठारी कमीशन ने हमारे माध्यमिक विद्यालयों में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा की सिफारिश की है।

यौन शिक्षा

किशोर बालकों और बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का सम्बन्ध उनकी काम प्रवृत्ति से होता है। अतः विद्यालय में यौन शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है। इस शिक्षा की आवश्यकता और विधि पर अपना मत प्रकट करते हुए रॉस ने लिखा है- यौन शिक्षा की परम आवश्यकता को कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता है। इस बात की आवश्यकता है कि किशोर को एक ऐसे वयस्क द्वारा गोपनीय शिक्षा दी जाय, जिस पर उसे पूर्ण विश्वास हो।

बालकों व बालिकाओं के पाठ्यक्रम में विभिन्नता

बालकों और बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होना अति आवश्यक है। इसका कारण बताते हुए बी. एन. झा लिखा है- लिंग-भेद के कारण और इस विचार से कि बालकों और बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी. चाहिए।

उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग

किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार और तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अतः उसे शिक्षा देने के लिए परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किस प्रकार की शिक्षण विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस सम्बन्ध में रॉस का मत है- विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए और उनका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित किया जाना चाहिए।

किशोर के प्रति वयस्क का-सा व्यवहार 

किशोर को न तो बालक समझना चाहिए और न उसके प्रति बालक का सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क का-सा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसका कारण बताते हुए ब्लेयर, जोन्स एवं सिम्पसन ने लिखा है- जिन किशोरों के प्रति वयस्क का-सा जितना ही अधिक व्यवहार किया जाता है, उतना ही अधिक वे वयस्कों का-सा व्यवहार करते हैं।

किशोर के महत्व को मान्यता

किशोर में उचित महत्व और उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए, उसे उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए। इस उद्देश्य से सामाजिक क्रियाओं, छात्र स्वशासन और युवक-गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए।

अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश

किशोर में अपराध करने की प्रवृत्ति का मुख्य कारण है- निराशा। इस कारण को दूर करके उसकी अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है। विद्यालय, उसको अपनी उपयोगिता का अनुभव कराके उसकी निराशा को कम कर सकता है।

किशोर-निर्देशन

स्किनर के शब्दों में- किशोर को निर्णय करने का कोई अनुभव नहीं होता है। अतः वह स्वयं किसी बात का निर्णय नहीं कर पाता है और चाहता है कि कोई उसे इस कार्य में निर्देशन और परामर्श दे। यह उत्तरदायित्व उसके अध्यापकों और अभिभावकों को लेना चाहिए।


किशोरावस्था, जीवन का सबसे कठिन और नाजुक काल है। इस अवस्था में बालक का झुकाव जिस ओर हो जाता है, उसी दिशा में वह जीवन में आगे बढ़ता है। वह धार्मिक या अधार्मिक, देश-प्रेमी या देश-द्रोही, कर्मण्य या अकर्मण्य - कुछ भी बन सकता है। इसी अवस्था में संसार के सब महान पुरुषों ने अपने भावी जीवन का संकल्प किया है। महात्मा गाँधी ने अपने जीवन में सत्य का अनुसरण करने की प्रतिज्ञा इसी अवस्था से की थी। 

अतः बालकों के भावी भाग्य और उत्कृष्ट जीवन के निर्माण में इस अवस्था की गरिमा से अपने ध्यान को एक क्षण के लिए भी विचलित न करके अध्यापकों और अभिभावकों को उनकी शिक्षा का सुनियोजन और संचालन करना अपना परम पुनीत कर्त्तव्य समझना चाहिए। उन्हें वैलेन्टाइन के इस वाक्य को अपना आदर्श सूत्र मानना चाहिए- "मनोवैज्ञानिकों द्वारा बहुत समय तक उपदेश दिये जाने के बाद अन्त में यह बात व्यापक रूप से स्वीकार की जाने लगी है कि शैक्षिक दृष्टिकोण से किशोरावस्था का अत्यधिक महत्व है।"

गत वर्षो में पूछे गये प्रश्न 

Q. किस विकासात्मक अवस्था को पहचान की अवस्था कहा जाता है?
  • A. व्यस्कता
  • B. उत्तर बाल्यावस्था
  • C. पूर्व बाल्यावस्था
  • D. किशोरावस्था
Description
बाल्यकाल मानव जीवन काल की, जन्म से लेकर युवावस्था तक की अवधि को दर्शाता है। इसमें कई विकासात्मक अवस्थाएँ होती हैं और किशोरावस्था उनमें से एक है।

  • Adolescence लैटिन शब्द Adolescere से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है परिपक्व होने के लिए बढ़ना। यह एक अवस्था है जो 12 से 19 वर्ष की उम्र के बीच की है।
  • किशोरावस्था एक विकासात्मक अवस्था है जिसे पहचान की अवस्था कहा जाता है:
  • यह एक परिवर्ती अवस्था है जब बच्चा शारीरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से वयस्क में विकसित होता है।
  • यह क्रोध और तनाव का एक चरण है और अपनी खुद की पहचान विकसित करने से किशोरों को एक व्यक्ति के रूप में विशिष्टता की भावना महसूस होती है।
  • यह वह अवस्था है जिसमें किशोर भूमिकाएँ परख कर स्वयं की पहचान को निखारने का काम करते हैं और फिर एकल पहचान बनाने के लिए उन्हें एकीकृत करते हैं।
  • यह वह अवस्था है जिसमें विकासशील पहचान किशोरों को उनकी क्षमताओं में विश्वास प्रदान करती है और जब विकसित नहीं होती है तो भ्रम और पहचान संकट उत्पन्न का कारण बनती है।
अतः यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि किशोरावस्था एक विकासात्मक अवस्था है जिसे पहचान की अवस्था कहा जाता है।
व्यस्कता यह 21 वर्ष से शुरू होता है और क्रमशः मध्यम आयु (40 वर्ष) और वृद्धावस्था (60 वर्ष) तक चलता है।
इस अवस्था में, बच्चे अपने कार्यों की जिम्मेदारी लेते हैं और स्वार्थ को सीमित करते हैं।
उत्तर बाल्यावस्था यह '7 से 12 वर्ष' की उम्र के बीच में होती है और इसे कष्टप्रद उम्र, गैंग उम्र, खेलने की उम्र आदि के रूप में भी जाना जाता है।
इस चरण में और बच्चे स्पष्टीकरण में उपमाओं का उपयोग करना शुरू करते हैं और समस्या समाधान कौशल विकसित करते हैं।
पूर्व बाल्यावस्था यह '2 से 7 वर्ष' की उम्र के बीच की अवस्था है और इसे खिलौना आयु, प्रीगैंग आयु, आदि के रूप में भी जाना जाता है।
इस चरण में, बच्चे प्रतीकात्मक रूप से और वस्तुओं को दर्शाने करने के लिए शब्दों और चित्रों का उपयोग करना शुरू करते हैं।
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