उपलब्धि परीक्षाओं का अर्थ, परिभाषा, प्रकार व उद्देश्य | Achievement Test

प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स - "उपलब्धि परीक्षाओं का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है।

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उपलब्धि परीक्षाओं का अर्थ व परिभाषा

व्यक्ति अपने जीवन में अनेक प्रकार का ज्ञान तथा कौशल प्राप्त करता है। इस ज्ञान तथा कौशल में कितनी दक्षता व्यक्ति ने प्राप्त की है, इसका पता उस ज्ञान तथा कौशल के उपलब्धि परीक्षण से चलता है।

विद्यालय की विभिन्न कक्षाओं में अनेक प्रकार के छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते हैं। समान मानसिक योग्यताओं से सम्पन्न न होने के कारण वे समय की एक ही अवधि में विभिन्न विषयों और कुशलताओं में विभिन्न सीमाओं तक प्रगति करते हैं। उनकी इसी प्रगति, प्राप्ति या उपलब्धि का मापन या मूल्यांकन करने के लिए 'उपलब्धि परीक्षाओं' की व्यवस्था की गई है। अत: हम कह सकते हैं कि 'उपलब्धि परीक्षाएँ' वे परीक्षाएँ हैं, जिनकी सहायता से विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले विषयों और सिखाई जाने वाली कुशलताओं में छात्रों की सफलता या उपलब्धि का ज्ञान प्राप्त किया जाता है । 
'उपलब्धि परीक्षाओं' का अर्थ और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ प्रस्तुत है:-

प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स "उपलब्धि परीक्षाओं का निर्माण मुख्य रूप से छात्रों के सीखने के स्वरूप और सीमा का माप करने के लिए किया जाता है।

गैरिसन व अन्य – “उपलब्धि परीक्षा, बालक की वर्तमान योग्यता या किसी विशिष्ट विषय के क्षेत्र में उसके ज्ञान की सीमा का मूल्यांकन करती है। "

थॉर्नडाइक व हेगन - "जब हम उपलब्धि परीक्षा का प्रयोग करते हैं, तब हम इस बात का निश्चय करना चाहते हैं कि एक विशिष्ट प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने के उपरान्त व्यक्ति ने क्या सीखा है। "

उपलब्धि परीक्षण, चूँकि ज्ञान तथा कौशल के मापन हेतु होता है, इसलिए विद्यालयों से इसका सीधा सम्बन्ध है ।

उपलब्धि परीक्षाओं के उद्देश्य

साधारणतः वर्ष के अन्त में विभिन्न कक्षाओं के छात्रों के लिए उपलब्धि परीक्षाओं का आयोजन निम्नांकित उद्देश्यों से किया जाता है

1. शिक्षक के शिक्षण तथा अध्ययन की सफलता का अनुमान लगाना।
2. स्टोन्स के अनुसार बालकों की उपलब्धि से सामान्य स्तर को निर्धारित करना।
3. गेट्स एवं अन्य के अनुसार बालकों की विभिन्न विषयों और क्रियाओं में वास्तविक स्थिति को ज्ञात करना। 
4. बिग एवं हंट के अनुसार बालकों को पढ़ाये जाने वाले विद्यालय विषयों में उनके ज्ञान की सीमा का मापन करना।
5. डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार बालकों की पढ़ने-लिखने के समान कुशलताओं में गति और श्रेष्ठता को निश्चित करना।
6. कुप्पूस्वामी के अनुसार - बालकों को ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में दिये गए प्रशिक्षण के परिणामों का मूल्यांकन करना। 
7. गैरिसन तथा अन्य के अनुसार - पाठ्यक्रम के लक्ष्यों और उद्देश्यों की प्राप्ति की ओर बालकों की प्रगति की जानकारी करना।
8. कोलेसनिक के अनुसार - बालकों की अधिगम-सम्बन्धी कठिनाइयों को ज्ञात करना और उनका निवारण करने के लिए पाठ्यक्रमों में आवश्यक परिवर्तन करना।

उपलब्धि परीक्षाओं के प्रकार

डगलस एवं हॉलैण्ड के अनुसार, उपलब्धि परीक्षाएँ अग्रलिखित प्रकार की हैं

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प्रमाणित परीक्षण

प्रमापित परीक्षण आधुनिक युग की देन है। इनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए थार्नडाइक व हेगन ने लिखा है - "प्रमापित परीक्षण का अभिप्राय केवल यह है कि सब छात्र समान निर्देशों और समय की समान सीमाओं के अन्तर्गत समान प्रश्नों और अनेक प्रश्नों का उत्तर देते हैं।"

प्रमापित परीक्षणों के कतिपय उल्लेखनीय तथ्य दृष्टव्य हैं 
  • इनका निर्माण एक विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह द्वारा किया जाता है।
  • इनका निर्माण, परीक्षण निर्माण के निश्चित नियमों और सिद्धान्तों के अनुसार किया जाता है।
  • इनका निर्माण विभिन्न कक्षाओं और विषयों के लिए किया जाता है। एक कक्षा और एक विषय के लिए अनेक प्रकार के परीक्षण होते हैं।
  • जिस कक्षा के लिए जिन परीक्षणों का निर्माण किया जाता है, उनको विभिन्न स्थानों पर उसी कक्षा के सैकड़ों हजारों बालकों पर प्रयोग करके निर्दोष बनाया जाता है अथवा प्रमापित किया जाता है।
  • निर्माण के समय इनमें प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है। पर विभिन्न स्थानों पर प्रयोग किए जाने के फलस्वरूप प्राप्त होने वाले अनुभवों के आधार पर उनकी संख्या में पर्याप्त कमी कर दी जाती है। 
  • इनमें दिए हुए प्रश्नों को निश्चित निर्देशों के अनुसार निश्चित समय के अन्दर करना पड़ता है। मूल्यांकन या अंक प्रदान करने के लिए भी निर्देश होते हैं।
  • इनका प्रकाशन किसी संस्था या व्यापारिक फर्म के द्वारा किया जाता है; उदाहरणार्थ - भारत में सेन्ट्रल इन्स्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन, राष्ट्रीय शैक्षणिक एवं प्रशिक्षण परिषद्, जामिया मिलिया, ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस आदि ने इनको प्रकाशित किया है।

शिक्षक - निर्मित परीक्षण

शिक्षक निर्मित परीक्षण, आत्मनिष्ठ और वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के होते हैं। सामान्य रूप से शिक्षकों द्वारा सभी विषयों पर परीक्षणों का निर्माण किया जाता है और कुछ समय पूर्व तक इन परीक्षणों का रूप आत्मनिष्ठ था। भारत में अब भी इसी प्रकार के परीक्षणों का प्रचलन है, यद्यपि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निर्माण की दिशा में सक्रिय पग उठाये जा रहे हैं। सब शिक्षकों में परीक्षणों के लिए प्रश्नों का निर्माण करने की समान योग्यता नहीं होती है। अतः एक ही विषय पर दो शिक्षकों द्वारा निर्मित प्रश्नों के स्तरों में अन्तर हो सकता है। फलस्वरूप, उनका प्रयोग करके छात्रों के ज्ञान का ठीक-ठीक मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है। इसीलिए, शिक्षक निर्मित परीक्षणों को विश्वसनीय नहीं माना जाता है। ऐलिस के शब्दों में – "शिक्षक निर्मित परीक्षणों में बहुधा कम विश्वसनीयता होती है। "

प्रमापित व शिक्षक-निर्मित परीक्षणों की तुलना

(अ) प्रमापित परीक्षण की श्रेष्ठता 

थार्नडाइक एवं हेगन ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक निर्मित परीक्षण से श्रेष्ठतर सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तथ्य प्रस्तुत किए हैं :-
  • प्रमापित परीक्षण को सम्पूर्ण देश के किसी भी विद्यालय की किसी भी कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। शिक्षक-निर्मित परीक्षण को केवल उसी के विद्यालय की किसी विशेष कक्षा के लिए प्रयोग किया जा सकता है। 
  • प्रमापित परीक्षण का निर्माण किसी विशेषज्ञ या विशेषज्ञों के समूह के द्वारा किया जाता है। शिक्षक निर्मित परीक्षण का निर्माण अध्यापक के द्वारा अकेले और किसी की सहायता के बिना किया जाता है।
  • प्रमापित परीक्षण में प्रयोग की जाने वाली परीक्षा सामग्री का व्यापक रूप में पहले ही परीक्षण कर लिया जाता है। शिक्षक-निर्मित परीक्षण में इस प्रकार का कोई परीक्षण नहीं किया जाता है। 
  • प्रमापित परीक्षण में बहुत कुछ विश्वसनीयता होती है। शिक्षक-निर्मित परीक्षण में कम विश्वसनीयता होती है।

इस संदर्भ में थार्नडाइक व हेगन का परामर्श है - “प्रमापित परीक्षणों का ही विश्वास किया जाना चाहिए।"

(ब) प्रमापित परीक्षण की निम्नता 

कुछ लेखकों ने प्रमापित परीक्षण को शिक्षक निर्मित परीक्षण से निम्नस्तर सिद्ध करने के लिए अधोलिखित कारण प्रस्तुत किए हैं
  1. प्रमापित परीक्षण के निर्माण के लिए बहुत समय और धन की आवश्यकता होती है। शिक्षक निर्मित परीक्षण के लिए अति अल्प समय और धन पर्याप्त है। 
  2. प्रमापित परीक्षण इस बात का मूल्यांकन नहीं कर सकता है कि कक्षा में क्या पढ़ाया जा सकता था या क्या पढ़ाया जाना चाहिए था। शिक्षक निर्मित परीक्षण इन दोनों बातों का मूल्यांकन कर सकता है।
  3. प्रेसी, रॉबिन्सन एवं हॉरक्स के अनुसार प्रमापित परीक्षण, शिक्षक के शैक्षिक लक्ष्यों का अनुमान लगाने में असफल रहता है। शिक्षक - निर्मित परीक्षण इन लक्ष्यों का मापन कर सकता है। 
  4. को एवं क्रो के अनुसार प्रमापित परीक्षण, अध्यापक की शैक्षिक सफलता और छात्रों की वास्तविक प्रगति का मूल्यांकन करने में सफल नहीं होता है। शिक्षक निर्मित परीक्षण इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करता है।
उपरिलिखित कारणों के फलस्वरूप अनेक लेखक प्रमापित परीक्षण को शिक्षक-निर्मित परीक्षण से निम्नतर स्थान देते हैं।

निष्कर्ष  

जिन परिस्थितियों में हमारे विद्यालय कार्य कर रहे हैं, उन पर विचार करके तो यही कहना औचित्यपूर्ण जान पड़ता है कि शिक्षक निर्मित परीक्षणों का प्रयोग ही अधिक हितकर है। प्रमापित परीक्षणों के प्रयोग में तीन विशेष आपत्तियाँ हैं 
  1. उनको पर्याप्त धन व्यय करके ही प्रयोग किया जा सकता है, पर धन व्यय करने पर भी यह आवश्यक नहीं है कि वे उचित समय पर उपलब्ध हो जायँ।
  2. विद्यालय और छात्रों की स्थानीय आवश्यकताओं को केवल शिक्षक-निर्मित परीक्षण ही पूर्ण कर सकते हैं, प्रमापित परीक्षण नहीं। 
  3. आपत्ति को प्रेसी, रॉबिन्सन व हॉरक्स के शब्दों में सुनिए - “प्रमापित परीक्षण का भले ही सर्वोत्तम विधि से निर्माण किया गया हो, पर यह आवश्यक नहीं है कि उसमें एक विशेष अध्यापक या एक विशेष विद्यालय के सब महत्वपूर्ण लक्ष्यों का समावेश हो।"

मौखिक परीक्षण

एक समय ऐसा था, जब विद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थाओं में मौखिक परीक्षाओं की प्रधानता थी। आधुनिक युग में लिखित परीक्षाओं का प्रचलन होने के कारण इनका महत्व बहुत कम हो गया है। फिर भी प्राथमिक कक्षाओं और उच्च कक्षाओं में विज्ञान के विषयों की प्रयोगात्मक परीक्षाओं एवं वायवा के रूप में अब भी इनका अस्तित्व शेष है। मौखिक परीक्षा का मूल्यांकन करते हुए राईटस्टोन ने अपनी पुस्तक में लिखा है - "मौखिक परीक्षा कितनी भी अच्छी क्यों न हो, पर छात्रों को अंक प्रदान करने के लिए एक निम्न साधन है। इसका महत्व केवल निदानात्मक साधन के रूप में और उन परिस्थितियों में है, 'जिनमें लिखित परीक्षाओं का प्रयोग किया जा सकता है।"

निबन्धात्मक परीक्षण

निबन्धात्मक परीक्षण, सर्वाधिक प्रचलित उपलब्धि परीक्षण हैं। इन्हें शिक्षक बनाता है। इनमें प्रश्नों का उत्तर निबन्ध के रूप में देना पड़ता है, इसीलिये इनको निबन्धात्मक परीक्षण कहते हैं। 

अर्थ

हमारे देश में निबन्धात्मक परीक्षा का ही प्रचलन है। इस परीक्षा प्रणाली में छात्रों को कुछ प्रश्न दे दिये जाते हैं, जिनके उत्तर उनको निर्धारित समय में लिखने पड़ते हैं।

गुण या विशेषताएँ 

निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली में उत्तम गुणों का इतना बाहुल्य है कि वर्षों व्यतीत हो जाने पर भी इसकी लोकप्रियता में कोई विशेष न्यूनता परिलक्षित नहीं होती है। इस प्रणाली के उल्लेखनीय गुण दृष्टव्य हैं 

(1) सब विषयों के लिए उपयोगी

यह प्रणाली, विद्यालय के सब विषयों के लिए उपयोगी है। ऐसे एक भी विषय का संकेत नहीं दिया जा सकता है, जिसके लिए इस प्रणाली का लाभप्रद ढंग से प्रयोग न किया जा सके।

(2) उत्तर व भाव-प्रकाशन की स्वतंत्रता  

यह प्रणाली, बालकों को प्रश्नों के उत्तर और उनके सम्बन्ध में अपने भावों का प्रकाशन करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान करती है। इन दोनों बातों में उनके ऊपर किसी प्रकार का प्रतिबन्ध नहीं होता है। 

(3) शिक्षक को सुगमता 

यह प्रणाली, शिक्षक के लिए अत्यधिक सुगम है, क्योंकि वह प्रश्नों की रचना थोड़े ही समय में और बिना किसी विशेष प्रयास के कर सकता है। आवश्यकता पड़ने पर वह उनको बोल सकता है या श्यामपट पर लिख सकता है।

(4) बालकों को सुगमता 

यह प्रणाली, बालकों के लिए भी सुगम है, क्योंकि इसमें ऐसे कोई विशेष निर्देश नहीं होते हैं, जिनको समझने में उनको किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव हो।

(5) बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की परीक्षा  

इस प्रणाली का प्रयोग करके बालकों के तथ्यात्मक ज्ञान की अति सरलता से परीक्षा ली जा सकती है। 

(6) बालकों की विभिन्न योग्यताओं की परीक्षा 

इस परीक्षा का प्रयोग करके बालकों की लगभग सभी प्रकार की योग्यताओं की परीक्षा ली जा सकती है; जैसे- विचार - संगठन, विवेचन और अभिव्यक्ति, सम्बन्ध चिन्तन एवं तार्किक लेखन। 

(7) बालकों की प्रगति का वास्तविक ज्ञान 

यह प्रणाली, शिक्षक को बालकों को प्रगति का वास्तविक ज्ञान प्रदान करती है। वह उनके उत्तरों को पढ़कर उनसे सम्बन्धित विषयों में उनकी उपलब्धियों का यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

दोष (Demerits) 

आधुनिक शिक्षा मनोविज्ञान ने निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के अनेक दोषों पर प्रकाश डालकर, उसकी अनुपयुक्तता प्रमाणित करने का प्रयास किया है। इनमें से मुख्य दोष निम्नांकित हैं:

(1) सीमित प्रतिनिधित्व 

इस प्रणाली का सर्वप्रमुख दोष यह है कि यह विषय का सीमित प्रतिनिधित्व करती है। इसका अभिप्राय यह है कि इसमें सम्पूर्ण विषय से सम्बन्धित प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। विषय के ऐसे अनेक भाग होते हैं जिन पर एक भी प्रश्न नहीं पूछा जाता है। प्रणाली की इस निर्बलता से लाभ उठाकर छात्र थोड़े से प्रश्नों को चयन करके रट लेते हैं। इस निर्बलता का मुख्य कारण है- प्रश्नों की सीमित संख्या पाँच या दस प्रश्न सम्पूर्ण विषय का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं। 

(2) वैधता का अभाव 

इस प्रणाली में वैधता का स्पष्ट अभाव है। वैधता का तात्पर्य है कि परीक्षा उन गुणों, तथ्यों और कुशलताओं की जाँच करे, जिनकी जाँच करना उसका ध्येय है। अनेक अध्ययनों द्वारा यह सिद्ध किया गया है कि निबन्धात्मक परीक्षा वास्तव में विषय के ज्ञान की जाँच न करके, बालकों की भाषा, लेखन-शक्ति आदि की जाँच करती है। 

(3) विश्वसनीयता का अभाव 

इस प्रणाली में जो अंक प्रदान किए जाते हैं, उन पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि यदि एक छात्र की एक ही उत्तर पुस्तिका को दो परीक्षक जाँचते हैं, या एक ही शिक्षक कुछ समय व्यतीत होने के पश्चात् जाँचता है, तो अंकों में अन्तर मिलता है। परीक्षा को विश्वसनीय तभी कहा जा सकता है, जब छात्र को अपने उत्तरों के लिए सदैव समान अंक प्राप्त हों। निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली को इस दृष्टिकोण से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता है।

(4) भविष्यवाणी का अभाव 

इस प्रणाली परीणमो के आधार पर छात्रों के भविष्य के सम्बन्ध में किसी प्रकार का निश्चित निर्णीय नहीं लिया जा सकता है। इसका कारण यह है कि अंकों की प्राप्ति रटने की शक्ति, लेखन-शक्ति, अभिव्यंजना, सुलेख, उपयुक्त भाषा एवं संयोग पर निर्भर रहती है।

(5) अंकों में विविधता

इस प्रणाली में प्रदान किये जाने वाले अंकों में विविधता पाई जाती है। इस सम्बन्ध में अनेक अध्ययन किये गये हैं। उदाहरणार्थ, स्टार्च एवं इलियट ने बताया है कि जब 142 शिक्षकों से अंग्रेजी की उत्तर पुस्तिकाओं को जँचवाया गया, तो उनके द्वारा प्रदान किये गये अंक 50 और 98 के बीच में थे। 

(6) आत्मनिष्ठता 

इस प्रणाली में आत्मनिष्ठता की प्रधानता पाई जाती है, जबकि अच्छे परीक्षण में वस्तुनिष्ठता का होना आवश्यक है। इसमें उत्तरों के अंकन में परीक्षक के विचारों, धारणाओं, मानसिक स्तर, मनोदशा, अभिवृत्तियों आदि का बहुत प्रभाव पड़ता है। इसमें उत्तर पुस्तकाओं के अंकन के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के समान कोई उत्तर-तालिका नहीं होती है, जिसको आधार बनाकर सभी परीक्षक, उत्तर पुस्तिकाओं का अंकन कर सकें। कुछ परीक्षक सहृदय होने के कारण अधिक अंक प्रदान करते हैं; कुछ कठोर होने के कारण कम, कुछ आलसी और लापरवाह होने के कारण उत्तरों को पढ़ते नहीं हैं, वरन् अव्यवस्थित ढंग से अंक प्रदान करते हैं। इस सब कारणों के फलस्वरूप इस प्रणाली में आत्मनिष्ठता की मात्रा अत्यधिक मिलती है।

(7) अंकन में अधिक समय 

इस प्रणाली में छात्रों द्वारा दिए जाने वाले उत्तर काफी लम्बे होते हैं। उनको आद्योपान्त पढ़कर ही उनका उचित ढंग से मूल्यांकन किया जा सकता है। इसके लिए न केवल अधिक समय वरन् अधिक शक्ति की भी आवश्यकता है। स्टालनकर ने लिखा है - "भली प्रकार लिखे गये निबन्धात्मक प्रश्न का ठीक मूल्यांकन दीर्घकालीन और कठिन कार्य है और इसे उचित प्रकार से करने के लिए बुद्धि, परिश्रम और धैर्य की आवश्यकता है।"

निष्कर्ष

हमने निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के दोनों पक्षों का दिग्दर्शन कराया है। इसके गुण भी हैं और दोष भी। उन पर सम्यक् दृष्टि से विचार करके हम यही कह सकते हैं कि इनकी उपादेयता को चुनौती नहीं दी जा सकती है। इस सम्बन्ध में ऐलिस के ये शब्द उल्लेखनीय हैं - “निबन्धात्मक परीक्षाएँ, छात्रों को मौलिकता का अवसर देती हैं और उनकी तर्क-शक्ति की जाँच करने के लिए वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं की अपेक्षा इनका प्रयोग साधारणतः अधिक सरल है।"

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का अर्थ 

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का विकास करने का अभिनन्दनीय कार्य जे. एम. राइस ने किया। उसने इन परीक्षणों की रचना, प्रयोग और अंकन आदि के सम्बन्ध में अनेक मौलिक कार्य किये। उसके कार्यों से प्रोत्साहित होकर स्टार्च व इलियट ने अनेक अध्ययन करके इन परीक्षणों की उपयोगिता को सिद्ध किया। फलस्वरूप, इनके प्रयोग पर अधिकाधिक बल दिया जाने लगा। 
वस्तुनिष्ठ परीक्षा, वह परीक्षा है, जिनमें विभिन्न परीक्षक स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने के उपरान्त अंकों के सम्बन्ध में एक ही निष्कर्ष पर पहुँचते हैं या समान उत्तरों के लिए समान अंक प्रदान करते हैं। गुड के अनुसार “वस्तुनिष्ठ परीक्षा साधारणतः सत्य-असत्य उत्तर, बहुसंख्यक चुनाव, मिलान या पूरक प्रकार के प्रश्नों पर आधारित होती है, जिनके सही उत्तरों का तालिका की सहायता से अंकन किया जाता है। यदि कोई उत्तर तालिका के विपरीत होता है, तो उसे गलत माना जाता है। "

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के प्रकार

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के मुख्य प्रकार निम्नांकित हैं

1. सरल पुनः स्मरण टेस्ट 

इस टेस्ट में परीक्षार्थी को प्रश्नों के उत्तर स्वयं स्मरण करके लिखने पड़ते हैं।.
निर्देश- निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर उनके समक्ष दिए हुए कोष्ठकों में लिखिए
  • भारत कब स्वतंत्र हुआ?
  • उत्तर प्रदेश के राज्यपाल कौन हैं ?
  • भारत के प्रथम राष्ट्रपति कौन थे ?
  • रामायण की रचना किसने की थी ?

2. सत्य-असत्य टेस्ट 

इस टेस्ट में परीक्षार्थी को 'सत्य' या 'असत्य' में उत्तर देने पड़ते हैं।
निर्देश- निम्नलिखित कथन यदि सही हों, तो 'सत्य' को और 'गलत' हों, तो 'असत्य' को रेखांकित कीजिए
  • शिवाजी का जन्म 1605 में हुआ था।
  • गाँधीजी की मृत्यु बम्बई में हुई थी। 
  • अमरीका की खोज़ कोलम्बस ने की थी ।
  • कामायनी की रचना जयशंकर प्रसाद ने की थी।

3. बहुसंख्यक चुनाव टेस्ट 

इस टेस्ट में परीक्षार्थी को दिये हुए अनेक उत्तरों में से सही उत्तर का चुनाव करना पड़ता है। 
निर्देश- निम्नलिखित कथनों में अनेक उत्तर दिये हुए हैं, जिनमें एक सही है। सही उत्तर को रेखांकित कीजिए
  • पंजाब की राजधानी (दिल्ली, लखनऊ, चंडीगढ़, जयपुर) है।
  • अकबर ने (ईसाई धर्म, दीनइलाही, बौद्ध धर्म, जैन धर्म) चलाया था । 
  • महात्मा गाँधी की मृत्यु (1932, 1947, 1948, 1950) में हुई थी।
  • भारत में प्रधानमंत्री के पद पर ( श्री राजीव गाँधी, मोरारजी देसाई, विजयलक्ष्मी पण्डित) सुशोभित हैं।

4. मिलान टेस्ट 

इस टेस्ट में परीक्षार्थी को दो पदों में मिलान करके कोष्ठक में सही पद लिखना पड़ता है। 
निर्देश- नीचे कुछ घटनाएँ दी हुई हैं। उनके सामने अव्यवस्थित रूप से उनसे सम्बन्धित तिथियाँ दी हुई हैं। प्रत्येक कोष्ठक में सही तिथि लिखिए
  • पानीपत का प्रथम युद्ध
  • राणा प्रताप की मृत्यु
  • शिवाजी का जन्म 
  • पिट का इण्डिया बिल

5. पूरक टेस्ट 

इस टेस्ट में परीक्षार्थी को वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति करनी पड़ती है।
निर्देश- निम्नलिखित वाक्यों में रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
  • भारत के राष्ट्रपति .............. हैं।
  • उत्तर प्रदेश की राजधानी.................. है।
  • द्वितीय विश्वयुद्ध ...................... ई. में हुआ था।
  • गीतांजलि के लेखक .............. थे।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के गुण या विशेषताएँ

अपने गुणों या विशेषताओं के कारण वस्तुनिष्ठ परीक्षा प्रणाली के प्रचलन में दिन-प्रति-दिन वृद्धि होती चली जा रही है। हम यहाँ इनका संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं,

1. वैधता

इस प्रणाली कां एक मुख्य गुण है इसकी वैधता। यह उसी निर्धारित योग्यता का माप करती है, जिसके लिए इसका निर्माण किया जाता है।
 

2. वस्तुनिष्ठता 

इस प्रणाली में वस्तुनिष्ठता इतनी अधिक होती है कि अंक प्रदान करने के समय परीक्षक के व्यक्तिगत निर्णय, विचार, धारणा, मानसिक स्तर, मनोदशा आदि के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है। 

3. विश्वसनीयता 

इस प्रणाली में विश्वसनीयता अपनी चरम सीमा पर पाई जाती है। इसका कारण यह है कि चाहे कोई भी व्यक्ति अंक प्रदान करे, उनमें किसी प्रकार का अन्तर नहीं होता है।

4. विभेदीकरण 

इस प्रणाली की एक मुख्य विशेषता है - इसकी विभेदीकरण करने की क्षमता इसका अभिप्राय यह है कि यह प्रतिभाशाली और मन्दबुद्धि छात्रों के भेद को स्पष्ट कर देती है।

5. धन की बचत

इस प्रणाली में इतना कम लिखना पड़ता है कि साधारणतया दो-तीनं पृष्ठों की उत्तर पुस्तिकाएँ पर्याप्त होती हैं, अतः इस प्रणाली का प्रयोग करने से धन की बचत होती है।

6. समय की बचत

इस प्रणाली में छात्र कम समय में बहुत से प्रश्नों का उत्तर देते हैं। परीक्षकों को भी उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने में कम समय लगता है। इस प्रकार, छात्रों और परीक्षकों-दोनों के समय की बचत होती है। 

7. विस्तृत प्रतिनिधित्व 

इस प्रणाली में प्रत्येक प्रश्नपत्र में प्रश्नों की संख्या इतनी अधिक होती है कि विषय का कोई भी अंग अछूता नहीं बचता है। इस प्रकार, यह प्रणली विषय का विस्तृत प्रतिनिधित्व करती है। 

8. एक संक्षिप्त उत्तर 

इस प्रणाली में एक प्रश्न का केवल एक ही संक्षिप्त उत्तर हो सकता है। अतः छात्रों को अपने उत्तरों के सम्बन्ध में किसी प्रकार का भ्रम नहीं रह जाता है।

9. उत्तर की सरलता 

इस प्रणाली में उत्तर देना बहुत सरल होता है। इसका कारण यह है कि छात्र 'हाँ' या 'नहीं' लिखकर 'सत्य' या 'असत्य' में से एक पर निशान लगाकर, एक या दो शब्द को रेखांकित करके और इसी प्रकार के अन्य सरल कार्य करके उत्तर दे सकते हैं।

10. छात्रों का सन्तोष 

इस प्रणाली में छात्रों को ठीक अंक मिलते हैं। इससे उनको न केवल संतोष प्राप्त होता है, वरन् उनको अधिक परिश्रम करने की प्रेरणा भी मिलती है। 

11. छात्रों के लिए उपयोगी 

इस प्रणाली में उत्तर पुस्तिकाओं को जाँचने में इतना कम समय लगता है कि वे शीघ्र ही छात्रों को लौटा दी जाती हैं। छात्र अपनी अशुद्धियों से अवगत होकर उनके सम्बन्ध में शिक्षक से विचार विमर्श कर लेते हैं। इस प्रकार, यह प्रणाली छात्रों के लिए बहुत उपयोगी है। 

12. अंकों में समानता 

इस प्रणाली में सब छात्रों को सब परीक्षकों से समान अंक प्राप्त होते हैं। अतः उनके अंकों में पूर्ण समानता होती है 

13. अंकन में सरलता 

इस प्रणाली में अंकन, उत्तरों की तालिका की सहायता से किया जाता है। अतः अंकन का कार्य सरल होता है और समय भी कम लगता है।

14. रटने का अन्त 

यह प्रणाली रटने की प्रथा का अन्त करती है, क्योंकि इस प्रणाली में कुछ प्रश्नों के उत्तरों को रट लेने से काम नहीं चलता है। अतः छात्र रटने के बजाय विषय वस्तु को ध्यान से पढ़कर स्मरण करते हैं।

15. ज्ञान की वास्तविक जाँच 

इस प्रणाली में छात्रों को अति संक्षिप्त उत्तर देने पड़ते हैं। अतः वे अपनी अज्ञानता को भाषा के आवरण में नहीं छिपा पाते हैं। इस प्रकार, यह प्रणाली छात्रों के ज्ञान की वास्तविक जाँच करती है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के दोष

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निरन्तर प्रयोग से इनके कुछ ऐसे दोष उभर कर सामने आ गये हैं, जिनके कारण अनेक शिक्षाविद् इनको छात्रों के लिए अहितकर समझने लगे हैं। इस प्रकार के कुछ दोष दृष्टव्य है 
 

1. अनुमान को प्रोत्साहन 

ये परीक्षण, छात्रों में अनुमान लगाने की अवांछनीय प्रवृत्ति को प्रोत्साहन देते हैं। वे बुद्धि का प्रयोग न करके केवल अनुमान से सत्य या असत्य पर चिन्ह लगा देते हैं और शब्दों को रेखांकित कर देते हैं।

2. भाव प्रकाशन की असमर्थता 

ये परीक्षण, छात्रों की अभिव्यंजना शक्ति का विकास नहीं करते हैं। अतः वे अपने भावों का प्रकाशन करने में असमर्थ रहते हैं।

3. भाषा व शैली की दुर्बलता 

इन परीक्षणों का भाषा और शैली से कोई प्रयोजन नहीं है। अतः छात्र इन बातों की ओर रंचमात्र भी ध्यान नहीं देते हैं। फलस्वरूप, उनकी भाषा और शैली सदैव के लिए दुर्बल हो जाती है।

4. श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव 

इन परीक्षणों द्वारा श्रेष्ठ मानसिक शक्तियों की जाँच असम्भव है। उदाहरणार्थ, इन परीक्षणों में तर्क, चिन्तन, मौलिक विचार, सृजनात्मक कल्पना और विश्लेषणात्मक शक्तियों की जाँच का कोई स्थान नहीं है।

5. केवल तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच 

इन परीक्षणों द्वारा केवल तथ्यात्मक ज्ञान पर बल दिया जाता है। अतः केवल इसी ज्ञान की जाँच की जा सकती है।

6. विवादग्रस्त तथ्यों व समस्याओं की अवहेलना 

साहित्य, इतिहास और सामाजिक विज्ञान में अनेक विवादग्रस्त तथ्य और समस्याएँ होती हैं, एवं इनको अत्यधिक महत्वपूर्ण समझा जाता है। क्योंकि वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों के उत्तर सन्देहपूर्ण नहीं हो सकते हैं, इसलिए इन महत्वपूर्ण विवादग्रस्त तथ्यों और समस्याओं को सदैव के लिए छोड़ दिया जाता है। फलस्वरूप, छात्रों की तर्क और चिन्तन शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं।

7. अधिक धन की आवश्यकता 

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों में प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक होती है। इन प्रश्नों को बोलना या श्यामपट पर लिखना असम्भव है। अतः हर बार इनकी उतनी ही प्रतियाँ छपवानी पड़ती हैं, जितने कि छात्र होते हैं। इसके लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता पड़ती है।

8. शिक्षक पर अत्यधिक भार 

ये परीक्षण, शिक्षक पर अत्यधिक भार डालते हैं। छोटे उत्तरों वाले प्रश्नों का निर्माण करने में उसे पर्याप्त कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त इनकी संख्या भी बहुत अधिक होती है। अतः उसका अधिकांश समय इन प्रश्नों की रचना में व्यतीत हो जाता है। उससे इतने परिश्रम की माँग करना उसके प्रति अन्याय करना है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का योगदान

स्किनर का मत है कि अपनी सीमाओं के बावजूद वस्तुनिष्ठ परीक्षणों ने शिक्षा को चार रूपों में अपूर्व योगदान दिया है
  1. इन परीक्षणों ने छात्रों में वैयक्तिक भेदों की उपस्थिति पर बल देने वाले साधनों के रूप में काम किया है। 
  2. इन्होंने छात्रों की शक्तियों और उपलब्धियों का अधिक उत्तम वर्गीकरण करने की विधि प्रस्तुत की है। 
  3. इन्होंने छात्रों के बारे में शिक्षकों के अति त्वरित, अति संकुचित और अति वैयक्तिक निर्णयों पर अंकुश लगा दिया है। 
  4. जैसा कि हम स्किनर के शब्दों में कह सकते हैं - "ऐसे परीक्षणों के बिना जिन पर अंक वस्तुनिष्ठ दृष्टि से दिये जाते हैं, बच्चों और युवकों के मानसिक और शैक्षिक विकास पर बहुत सा ऐसा अनुसन्धान नहीं हो पाता, जिसने शिक्षा की प्रक्रिया पर प्रभाव डाला है।"

उपलब्धि परीक्षाओं के उपयोग 

थार्नडाइक एवं हेगन ने विद्यालय में उपलब्धि परीक्षाओं के अनेक उपयोगों का उल्लेख किया है; 

1. श्रेणी विभाजन 

ये परीक्षाएँ, छात्रों की योग्यताओं का मूल्यांकन करने की सबसे निर्दोष विधि है। अतः इसका प्रयोग करके छात्रों को अति उत्तम ढंग से विभिन्न श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है।

2. वर्गीकरण

इन परीक्षाओं में छात्रों को जो अंक प्राप्त होते हैं, उनसे उनके मानसिक स्तरों का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। अतः उन्हें शिक्षण के लिए अपने मानसिक स्तरों के अनुकूल वर्गों में स्थान दिया जा सकता है।

3. प्रेरणा 

ये परीक्षाएँ, छात्रों को प्रेरणा प्रदान करने में अति सफल सिद्ध हुई हैं। उनको व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से परीक्षाओं को सुनकर या परीक्षाफलों के चार्ट दिखाकर अधिक अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

4. व्यक्तिगत शिक्षण 

इन परीक्षाओं की सहायता से कुशाग्र बुद्धि छात्रों की समय से पूर्व कक्षोत्रति की जा सकती है और मन्द-बुद्धि छात्रों को अधिक कार्य देकर कक्षा के सामान्य स्तर पर लाया जा सकता है। 

5. व्यक्तिगत सहायता 

इन परीक्षाओं का प्रयोग करके सामान्य प्रतिभा, मन्द बुद्धि और विभिन्न विषयों में विशेष योग्यता वाले छात्र का सरलता से चयन करके उनको उनकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार सहायता दी जा सकती है। 

6. शैक्षिक निर्देशन 

इन परीक्षाओं में छात्रों द्वारा प्राप्त किये गये अंकों के पूर्व और वर्तमान अभिलेखों का अध्ययन करके उनको उन विषयों को न लेने का निर्देशन किया जा सकता है, जिनमें उनकी उपलब्धियाँ अति निम्न हैं।

7. छात्रों को परामर्श 

ये परीक्षाएँ, छात्रों की विशिष्ट रुचियों और कार्य क्षमताओं का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करती हैं। अतः इनके आधार पर छात्रों को भावी अध्ययन के सम्बन्ध में परामर्श देकर उनको लाभान्वित किया जा सकता है।

8. छात्रों की कठिनाई का निदान 

ये परीक्षाएँ, छात्रों की सामान्य कठिनाइयों का ज्ञान प्रदान करती हैं। यह ज्ञान प्राप्त हो जाने पर उनका निवारण किया जा सकता है और इस प्रकार छात्रों की प्रगति में प्रत्यक्ष योग दिया जा सकता है।

9. अध्यापक के कार्य का परीक्षण 

उपलब्धि परीक्षाएँ एक प्रकार से शिक्षक के कार्य का परीक्षण करती हैं; उदाहरणार्थ, यदि किसी परीक्षा में अधिकांश छात्रों को कम अंक प्राप्त होते हैं, तो इसका अभिप्राय यह है कि अध्यापक की शिक्षण विधि दोषपूर्ण थी या शिक्षण सामग्री में कोई त्रुटि थी सम्भवतः अध्यापक की शिक्षण विधि, पाठ्य विषय या शिक्षा सामग्री, छात्रों के मानसिक स्तर के अनुकूल नहीं थी। सम्भवतः उसने शिक्षणं-सामग्री की स्पष्ट व्याख्या नहीं की। इस प्रकार के और भी अन्य कारण हो सकते हैं। अतः उपलब्धि परीक्षाएँ, अध्यापक के कार्य का परीक्षण करती हैं। इस प्रसंग में कोलेसनिक ने लिखा है - बुद्धिमान अध्यापक को परीक्षाओं को अपने स्वयं के कार्य का परीक्षण समझना चाहिए।

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परीक्षा सम्बन्धी प्रश्न 

  1. निबन्धात्मक परीक्षाएँ किन आवश्यक बातों में प्रमापित परीक्षणों से भिन्न हैं ? 
  2. संक्षिप्त - उत्तर परीक्षण के लाभ और हानियाँ क्या हैं ? शिक्षक-निर्मित परीक्षण की तुलना में प्रमापित परीक्षण की श्रेष्ठता सिद्ध कीजिए।
  3. वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की विशेषताएँ क्या हैं ? उसके लाभ और सीमाएँ कौन-सी हैं ?
  4. स्कूलों में उपलब्धि परीक्षणों के क्या प्रयोग या लाभ हैं ?
इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।