अपेक्षित अधिगम स्तर | Expected Learning Outcomes

अधिगम का अर्थ है, सीखना अथवा व्यवहार में परिवर्तन। यह परिवर्तन अनुभव के द्वारा होता है।

 अपेक्षित अधिगम स्तर (Expected Learning Outcomes)

अधिगम (सीखने) का अर्थ (Meaning of Learning) 

अधिगम का अर्थ है, सीखना अथवा व्यवहार में परिवर्तन। यह परिवर्तन अनुभव के द्वारा होता है। संकुचित अर्थ में सीखना केवल ज्ञान प्राप्ति की क्रिया है और व्यापक अर्थ में सीखना घर पर भी होता है और बाहर भी। यह एक मानसिक क्रिया है, जिसे व्यक्ति जान-बूझकर अपनाता है, जिससे वह अपने लक्ष्य को सफलतापूर्वक प्राप्त सके।

प्रत्येक प्राणी में कार्य करने की प्रवृत्ति होती है। इन्हीं कार्यों के द्वारा वह अपने जीवन की रक्षा करता है। बालक सहज क्रियाओं और मूल प्रवृत्तियों के अनुसार सीखते हैं। व्यक्ति के अनुभव के आधार पर इनमें परिवर्तन होता रहता है। अनुभव के इस प्रकार लाभ उठाने की क्रिया को सीखना कहते हैं। 

प्रत्येक प्राणी अपने जीवन में कुछ न कुछ सीखता है। जिस व्यक्ति में सीखने की जितनी अधिक शक्ति होती है, उतना ही अधिक उसके जीवन का विकास होता है। बालक प्रत्येक समय और प्रत्येक स्थान पर कुछ न कुछ सीखता रहता है। अनुभव तथा इनका उपयोग ही सीखना या अधिगम कहलाता है। सीखना किसी स्थिति के प्रति सक्रिय प्रतिक्रिया है। मनोवैज्ञानिकों ने सीखने को मानसिक प्रक्रिया माना है। यह क्रिया जीवनभर निरन्तर चलती रहती है।

सीखना एक सार्वभौम अनुभव है। शिशु जन्म से ही सीखना प्रारम्भ करता है। पहले वह माता के स्तन से दूध पीना सीखता है, तत्पश्चात् वह ध्वनि एवं प्रकाश के प्रति प्रतिक्रिया का सीखता है। भूखे रहने पर वह रोना सीखता है जिससे माँ उसे दूध पिला दे। बोतल द्वारा दूध पिलाये जाने पर वह निपल कैसे मुँह में ले यह सीखता है। फिर क्रमश: वह माता-पिता को एवं रिश्तेदारों को पहचानना, उन्हें पुकारना, उनका अभिवादन करना, कपड़े पहनना, चलना, दौड़ना अपने परिवेश के बारे में जानना तथा विद्यालय जाना इत्यादि सीखता है। 

इस प्रकार सीखने की प्रक्रिया जीवन पर्यन्त बिना रुके चलती रहती है। बालक को जन्म के कुछ समय बाद ही से अपने वातावरण में कुछ न कुछ सीखने को मिल जाता है। पहली बार आग को देखकर बालक उसे छू लेता है और जल जाता है। फलस्वरूप उसे एक नया अनुभव होता है। अतः जब वह आग को फिर देखता है तब उसके प्रति उसकी प्रतिक्रिया भिन्न होती है। अनुभव ने उसे आग को न छूना सिखा दिया है। अतः वह आग से दूर रहता है। 
अतः हम कह सकते हैं कि छोटा बालक यह सीख गया है कि जलती हुई वस्तु को छूने से हाथ जल जाता है। अब वह जलती हुई वस्तु को कभी नहीं पकड़ेगा। दूसरे शब्दों में उसके व्यवहार में परिवर्तन हो गया। पहला व्यवहार खेलने और पकड़ने का था, जबकि दूसरा परिवर्तित व्यवहार है न पकड़ने का। यहाँ बाद का व्यवहार उद्दीपन (Stimulus) तथा अनुक्रिया (Response) है।

सीखने-का-व्यवहार-Learning-Behaviour
Learning Behaviour

विभिन्न विद्वानों ने अधिगम को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया है :

स्किनर के अनुसार : "सीखना व्यवहार में उत्तरोत्तर सामंजस्य की प्रक्रिया है।" 

गिलफोर्ड के शब्दों में : "व्यवहार के कारण, व्यवहार में परिवर्तन ही सीखना है।"  

वुडवर्थ के अनुसार : "किसी भी ऐसी क्रिया को जो कि व्यक्ति के (अच्छे या बुरे किसी भी तरह के) विकास में सहायक होती है और उसके वर्तमान व्यवहार एवं अनुभवों को जो कुछ वे हो सकते थे, भिन्नता स्थापित करती है, सीखने की संज्ञा दी जा सकती है।" 

गेट्स एवं अन्य के शब्दों में : "अनुभवों के द्वारा व्यवहार में होने वाला परिवर्तन अधिगम एवं प्रशिक्षण है।"

बर्नहर्ट के अनुसार : "सीखना व्यक्ति के कार्यों में एक स्थायी परिवर्तन लाना है, जो निश्चित परिस्थितियों में किसी उद्देश्य या लक्ष्य को प्राप्त करने अथवा किसी समस्या को सुलझाने के प्रयास में अभ्यास द्वारा किया जाता है।" 
 
इन सभी परिभाषाओं के आधार पर स्पष्ट होता है कि अगम वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा प्राणी किसी परिस्थिति में प्रतिक्रिया के कारण नये प्रकार के व्यवहार को ग्रहण करता है, जो किसी सीमा तक उसके सामान्य व्यवहार को बाध्य एवं प्रभावित करता है।

अधिगम की प्रकृति (Nature of Learning)

अधिगम के फलस्वरूप व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण में परिवर्तन आता है। सीखने के आधार पर वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने की भी क्षमता बढ़ती है। सीखने की प्रक्रिया के कारण कुछ उत्प्रेरक (Stimulus) हो सकते हैं। जो कार्य इन उत्प्रेरकों को सन्तुष्ट करते हैं, व्यक्ति उन कार्यों को दोहराने का प्रयत्न करता है। 

इस प्रकार व्यक्ति धीरे-धीरे नये व्यवहार सीख जाता है या पुराने व्यवहार में परिवर्तन लाता है। इस प्रकार अधिगम एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। अधिगम की प्रकृति की व्याख्या निम्नलिखित प्रकार की जा सकती है :
  • सीखना एक सक्रिय प्रक्रिया है। 
  • सीखने का अवलोकन हम प्रत्यक्ष नहीं कर सकते बल्कि यह व्यवहारों में प्रकट होता है। 
  • इसके फलस्वरूप व्यक्ति के व्यवहारों में स्थायी परिवर्तन आते हैं। 
  • अधिगम अभ्यास तथा अनुभव पर निर्भर करता है। 
  • सीखना सहज क्रिया नहीं है।   
  • अधिगम वातावरण द्वारा प्रस्तुत उत्तेजकों पर आधारित होता है। 
  • रुचि, निपुणता, योग्यता सभी सीखने की क्रिया की ही उपज हैं। 
  • सीखना समायोजित हो सकता है अथवा असमायोजित।  
  • सीखना व्यवहार, मानव संस्कार अथवा क्षमता में स्थायी अथवा अस्थायी परिवर्तन है।  
  • सीखने की प्रक्रिया में दो मूल तत्त्व निहित हैं परिपक्वता एवं अनुभूति। 
  • अभिप्रेरणा सीखने की प्रक्रिया को गतिशील बनाता है।

अधिगम के प्रकार (Kinds of Learning)

सीखने की क्रिया, ढंग तथा विषयवस्तु के आधार पर सीखने के निम्न प्रकार हैं :

1. संज्ञानात्मक अधिगम (Cognitive learning)

संज्ञानात्मक अधिगम बौद्धिक विकास तथा ज्ञान अर्जित करने की समस्त क्रियाओं पर आधारित होता है। इसे तीन भागों में विभाजित किया जाता है :

I. प्रत्यक्षात्मक अधिगम

जब किसी वस्तु को देखकर, सुनकर या स्पर्श करके उसका ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो उसे प्रत्यक्षात्मक सीखना कहते हैं। शैशवावस्था और बाल्यावस्था में इसी प्रकार से सीखा जाता है।

II. प्रत्यात्मक अधिगम

जब बालक साधारण ज्ञान या अनुभव प्राप्त कर लेता है तो वह तर्क, चिन्तन और कल्पना के आधार पर सीखने लगता है। इस प्रकार वह अनेक अमूर्त बातें सीख जाता है। इसी को प्रत्यात्मक सीखना कहते हैं।

III. साहचर्यात्मक अधिगम 

जब पुराने ज्ञान तथा अनुभव के द्वारा किसी नवीन तथ्य को सीखा जाता है तो इसे साहचर्यात्मक सीखना कहते हैं। प्रत्यात्मक सीखने में साहचर्य होने की क्रिया स्वाभाविक रूप से होती रहती है।

2. संवेदनात्मक अधिगम (Emotional learning) 

जब सीखना संवेदनशील क्रियाओं द्वारा होता है, तो उसे संवेदनात्मक अधिगम कहते है । इस प्रकार के सीखने में गामक क्षमताओं का प्रशिक्षण होता है। इसमें किसी कौशल के कार्य को सम्मलित किया जाता है; जैसे : तैरना, साइकिल चलाना या टाइप करना सीखना आदि। 

3. गामक अधिगम (Dynamic learning)

जिसे सीखने में अंग संचालन तथा गति पर नियन्त्रण की आवश्यकता होती है, उसे गामक अधिगम कहते हैं। इसमें समस्त शारीरिक कुशलता के कार्य सम्मिलित किये जा सकते हैं। इस सीखने के उदाहरण हैं- (1) देखना। (2) सिर उठाना। (3) बैठना। (4) चलना।

अधिगम की विशेषताएँ

सीखने की विशेषताएँ तथा इसके गुण निम्न प्रकार के हैं :

सीखना एक प्रक्रिया है

मानवीय सीखना एक प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है। सीखने में वृद्धि होने से हमारे मस्तिष्क में कुछ रेखाचित्र बनते हैं, जो अभ्यास से दृढ़ एवं स्पष्ट होते रहते हैं और भविष्य में जाग्रत होकर हमारी सहायता करते रहते हैं। अतः सीखना धीरे धीरे निश्चित तरीके से उन्नति की ओर बढ़ना है। यही सीखने की प्रक्रिया है।

सही प्रतिचारों का चुनाव

किसी कार्य को सीखते समय सीखने वाला जो प्रयास करता है, वे सभी प्रतिचार कहलाते हैं। सीखते समय सही प्रतिचारों का चयन करना होता है जिससे समय एवं शक्ति का सही प्रयोग हो सके। 

अभ्यास

उद्दीपक और प्रतिचार के बीच परिवर्तनीय सम्बन्ध अभ्यास कहा जाता है। सीखने में सही प्रतिचारों का बार-बार प्रयोग किया जाता है जिससे सीखना स्थायी हो जाय।

परिवर्तन में स्थायित्वता

जब किसी कार्य को करने में स्थायित्वता आ जाती है तो वह हमारे व्यवहार का स्थायी अंग बन जाता है। हम कभी भी उसका प्रयोग आसानी से कर सकते हैं। यही ज्ञान की वृद्धि में सहायक होता है।

लक्ष्य की प्राप्ति

सीखने में लक्ष्य प्राप्त करना आवश्यक होता है। बिना लक्ष्य निर्धारण के कोई भी सीखना सफल नहीं हो पाता। यह लक्ष्य जीवन की आवश्यकताओं से सम्बन्धित होता है। इसी से सीखने वाले को उत्साह एवं बल प्राप्त होता रहता है।

विभेदीकरण 

मानव प्राणी की यह विशेषता होती है कि वह एक क्रिया और दूसरी क्रिया में क्या अन्तर है, स्वत: ही पहचान लेता है। इसी को मनोवैज्ञानिक विभेदीकरण मानते हैं। सीखने के क्षेत्र में यह बहुत पाया जाता है। व्यक्ति की मानसिक तत्परता इसी पर निर्भर करती है।

अतः हम कह सकते हैं कि अधिगम एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये अभ्यास के द्वारा व्यवहार में स्थायी परिवर्तन धारण करता है ।

सीखने के नियम (Laws of Learning)

विभिन्न खोजकर्त्ताओं ने सीखने को सरल और प्रभावशाली बनाने के लिये कुछ बातों पर बल दिया है। इनके पालन से सीखने में शीघ्रता होती है और अपेक्षाकृत समय एवं शक्ति की बचत होती है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक थॉर्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर सीखने में उत्पन्न होने वाले परिवर्तनों के प्रति कुछ निष्कर्ष निकाले, जिन्हें सीखने के नियम माना जाता है। थॉर्नडाइक का मत है कि जब उद्दीपक और प्रतिचार (सीखने वाला और क्रिया) के बीच सम्बन्ध उत्पन्न होने लगता है तो दोनों में अनुबन्ध (Bond) स्थापित हो जाता है। यही अनुबन्ध सीखना होता है। 

अतः सीखने को प्रभावशाली बनाने के लिये नियमों का गठन किया गया है। सीखने के ये नियम निम्नलिखित प्रकार हैं

प्रभाव का नियम (Law of effect)

प्रभाव के नियम से तात्पर्य सीखे जाने वाले कार्य का सीखने वाले के लिये महत्त्व से है। जब हमें सीखने के परिणाम से सन्तोष, सुख या प्रसन्नता प्राप्त होती है, तो हम सीखने की ओर तत्परता (शक्ति) से जुटते हैं और शीघ्र सीख लेते हैं। 

इस नियम में सन्तोषजनक अवस्था एवं असन्तोषजनक अवस्था को महत्त्व दिया जाता है। सन्तोषजनक अवस्था को सीखने वाला छोड़ना नहीं चाहता और असन्तोषजनक अवस्था की पुनरावृत्ति नहीं चाहता है, तभी सम्भव हो पाता है।

तत्परता का नियम

सीखने की दशा में तन्त्रिका तन्त्र में उद्दीपकों और प्रतिक्रियाओं के बीच संयोग बन जाता है। इन संयोगों को (SR) सूत्र द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। जब सीखने वाला अपनी ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों में तत्परता उत्पन्न कर लेता है तो कार्य को जल्दी सीख लेता है। अतः सीखने वाला सुख प्राप्त करता है।

अभ्यास का नियम

उद्दीपक और प्रतिचार के बीच परिवर्तनीय सम्बन्धों को अभ्यास कहा जाता है। 
जब सीखने वाला सही प्रतिचारों का चयन करके इन्हें बार-बार दोहराता है और इससे सीखने में उन्नति होती है तो उसे सीखने में अभ्यास कहा जाता है। अभ्यास के द्वारा सीखने के प्रति होने वाली प्रतिक्रिया स्थायी हो जाती है।

थॉर्नडाइक ने इस नियभ को दो रूपों में प्रस्तुत किया है :

I. उपयोग का नियम 

जब उद्दीपक प्रतिचार के परिवर्तित रूप बन्ध (Bond) बनाते हैं तो उपयोग का नियम कार्य करता है, 

II. अनुपयोग का नियम

जब उद्दीपक प्रतिचार के परिवर्तित रूप से कोई बन्ध (Bond) नहीं बनता तो उसे अनुपयोग का नियम कहते हैं।

अतः सीखने की क्रिया को बार-बार दोहराया जाय तो वह अधिक प्रभावशाली एवं स्थायी बन जाती है अन्यथा समय के साथ विस्मृत होने लगती है। इसलिये अभ्यास के द्वारा क्रिया की उपयोगिता बनी रहती है।

सीखने के अन्य नियम (Other Laws of Learning)

प्रारम्भ में थॉर्नडाइक ने देखा कि उद्दीपक-प्रतिचार के सम्बन्धों को पुरस्कार द्वारा सुदृढ़ बनाया जा सकता है और दण्ड के द्वारा निर्बल। 
सन् 1930 के पश्चात् इन्होने अपने प्रयोगों से स्पष्ट किया कि पुरस्कार सीखने में सहायक होता है लेकिन दण्ड असहायक नहीं। अतः थॉर्नडाइक ने कुछ अन्य नियमों का भी प्रतिपादन किया जो निम्न से प्रकार हैं :

विविध प्रतिचारों का नियम

सीखने के विभिन्न प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि नवीन कार्य को सीखते समय जीव विभिन्न प्रकार की प्रतिक्रियाएँ करता है। ये क्रियाएँ उस समय तक की जाती हैं, जब तक कि सन्तोषजनक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता है।

मनोवृत्ति का नियम

सीखने की सम्पूर्ण प्रक्रिया जीव की सम्पर्ण मनोवृत्ति और तत्परता पर निर्भर करती है। हम किसी भी कर्म को उस समय तक ठीक से नहीं सीख पाते हैं, जब तक कि हमारा दृष्टिकोण स्वस्थ्य एवं विकसित मनोवृत्ति का नहीं होता। व्यक्ति को सीखने की ओर प्रेरित करने के लिये पूर्व अनुभव, विश्वास, मनोवृत्तियाँ और पूर्ववृत्तियाँ आदि पूर्ण सहायता देती हैं।
  

वर्णनात्मक अनुक्रिया

वर्णनात्मक अनुक्रिया से तात्पर्य सीखने वाले के द्वारा निश्चित की गयी अनुक्रियाएँ हैं, जिनके प्रयोग से सीखने में सहायता मिल सकती है। सीखते समय हम केवल वर्णनात्मक क्रियाओं का ही प्रयोग करते हैं और कष्टदायक अनुक्रियाओं को त्यागते हैं। जब बिल्ली को समस्यात्मक-बॉक्स में बन्द किया गया तो उसने दरवाजे और उससे सम्बन्धित सिटकनी पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया। बाद में बिल्ली ने उन्हीं क्रियाओं का प्रयोग करके समस्या-बॉक्स से बाहर आना सीख लिया। 

अतः वर्णनात्मक अनुक्रिया के द्वारा सार्थक एवं निरर्थक प्रतिचारों में भेद किया जाता है।

समानता का नियम

इस नियम से तात्पर्य है नवीन क्रिया सीखने के पूर्व सीखे हुए ज्ञान की सहायता लेना। जब दो परिस्थितियों में समानता होती है तो हमारे अनुभव स्वत: ही स्थानान्तरित होकर सीखने को सरल बना देते हैं। इसमें व्यक्ति को अपने मस्तिष्क में समान अनुरेखन को खोजना होता है। इसी आधार पर थॉर्नडाइक ने समान तत्त्व  के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था ।

साहचर्य परिवर्तन का नियम

यह नियम पावलॉव के साहचर्य के द्वारा सीखने के सिद्धान्त पर आधारित है। जब सीखने वाला स्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिचार करना सीख लेता है और फिर अस्वाभाविक उद्दीपक के प्रति स्वाभाविक प्रतिचार करना सीख लेता है और स्वाभाविक प्रतिचार करना प्रारम्भ कर देता है तो इसे साहचर्य के द्वारा सीखना कहते हैं।  

सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व

Educational Importance of Laws of Learning

सीखने से सम्बन्धित सभी प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि मानव बार-बार प्रयत्न करके एवं भूलों में सुधार करके अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है। बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है, सीखने के क्षेत्र में उन्नति करता है। विद्वानों ने सीखने की क्षमता को बढ़ावा देने के लिये सीखने के नियमों का शैक्षिक महत्त्व माना है, जो इस प्रकार से है :

उद्देश्यों की स्पष्टता

शिक्षा के क्षेत्र में ज्ञान का उद्देश्य निश्चित, स्पष्ट एवं जीवनोपयोगी होना चाहिये। जब छात्र इसे समझ लेगा तो स्वत: ही सीखने के क्षेत्र में अपने ध्यान को एकाग्र कर सकेगा। प्रत्येक जीव की यह प्रकृति होती है कि वह उस कार्य को शीघ्र करना चाहता है, जो उसे सुख देता है या देने वाला होता है।

उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया चयन

छात्र की शारीरिक एवं मानसिक क्षमता का मूल्यांकन करने के पश्चात् ही सीखने वाले को उपयुक्त ज्ञान एवं क्रिया और विधि का चुनाव करना चाहिये। इससे छात्र को सही प्रतिचार के चुनाव में स्थानान्तरण में एवं अभ्यास में सरलता होती है।

तत्परता जाग्रत करना

बालक अपने कार्य को तभी सीख सकेगा जब वह सीखने के लिये तैयार होगा। सीखने की तैयारी को तत्परता का नाम दिया जाता है। तत्परता बालक की रुचि, उत्साह, शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य आदि पर निर्भर करती है। अतः शिक्षक को चाहिये कि वह बालकों को सिखाने से पहले तैयार कर लें ताकि वे ज्ञान को ठीक तरीके से ग्रहण कर सकें।

अनुभव स्थानान्तरण

सीखने के नियमों ने स्पष्ट कर दिया है कि मानवीय अनुभव का सबसे अधिक महत्त्व होता है। शिक्षकों को चाहिये कि वह छात्रों को अधिक से अधिक अनुभव एकत्रित करने का अवसर दें। इसके पश्चात् वे छात्रों को अनुभवों की नवीन समस्या या कार्य के सीखने में उपयोगिता बतायें। इस प्रकार से बार-बार के अभ्यास और प्रयोग से छात्र स्वतः ही अनुभवों का प्रयोग करना सीख जायेंगे और इसीलिये 'सीखना अनुभवों से लाभान्वित होना भी कहा गया है।

स्वक्रिया पर बल

सीखने के क्षेत्र में रूसो ने सबसे पहले स्वक्रिया को प्रतिपादित किया था अर्थात् अधिगमकर्त्ता को स्वयं हाथों से कार्य को करके सीखना चाहिये। इससे अधिगमकर्त्ता के अनुभव सुदृढ़ एवं स्थायी बनते हैं। अधिगमकर्त्ता प्रारम्भ में अनर्गल और निरर्थक प्रयत्न करता है, बाद में उचित कार्य का चुनाव करके कार्य को स्वत: ही सीख लेता है। इससे निर्भरता समाप्त होती है और स्वनिर्भरता का विकास होता है।

प्रेरकों का प्रयोग

सीखने के नियमों से स्पष्ट है कि सीखने के लिये प्रेरकों का प्रयोग आवश्यक है। जब हम बालकों को पुरस्कार एवं दण्ड, प्रशंसा एवं निन्दा के द्वारा सीखने के लिये तैयार करते हैं तो वे सीखने के प्रति उत्साह एवं रुचि को प्रकट करते हैं। 

अतः उनके सीखने में शीघ्र उन्नति होती है। शिक्षकों को चाहिये कि शिक्षा देते समय उत्साही प्रेरकों का प्रयोग करते रहें। इससे बालक भी प्रसन्न रहते हैं और शिक्षक को भी कम परिश्रम करना पड़ता है।

इस प्रकार से शिक्षा के क्षेत्र में थॉर्नडाइक के नियमों ने एक क्रान्ति उत्पन्न कर दी है। सीखना मानव विकास के लिये अनिवार्य है। अतः सीखने के प्रति छात्रों को उत्साहित बनाना शिक्षक का परम कर्त्तव्य होता है।


अपेक्षित अधिगम स्तर की संकल्पना

Concept of Expected Learning Outcome 
अपेक्षित अधिगम स्तर की रचना तीन शब्दों से हुई है: अपेक्षित, अधिगम और स्तर। अपेक्षित शब्द का अर्थ होता है ज्ञात करना। अधिगम शब्द का अर्थ होता है, सीखना अर्थात् सीखने को जीवनोपयोगी दक्षताओं में परिवर्तन करना ही अपेक्षित अधिगम कहलाता है। 

स्तर शब्द का आशय उपलब्धि के स्तरों से लगाया जाता है। दक्षता का अर्थ होता है किसी कार्य को कुशलतापूर्वक कर लेने की क्षमता अर्थात् किसी कक्षा में किसी पूर्ण इकाई के निश्चित अंश को निश्चित शिक्षार्थियों द्वारा निर्धारित समय में अर्जित करना ही दक्षता है। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 की संस्तुति के अनुसार विद्यालयीन शिक्षा के प्रत्येक स्तर हेतु अधिगम के न्यूनतम स्तर निर्धारित किये जायें जिससे सभी छात्र दक्षताओं को प्राप्त कर सकें। सन् 1990 में इस संस्तुति को प्राथमिक स्तर पर क्रियान्वित करने हेतु एक समिति गठित की गयी। इस समिति ने भाषा, गणित और पर्यावरणीय अध्ययन आदि विषयों में अपेक्षित अधिगम स्तर निर्धारित किये गये। 

अपेक्षित अधिगम स्तर की विशेषताएँ

Characteristics of Expected Learning Outcome 
भारत में प्राथमिक शिक्षा की अनिर्वायता निःशुल्क तथा सार्वजनीकरण के सम्प्रत्यों की निर्बाध रूप से प्राप्ति हेतु अपेक्षित अधिगम स्तर की संकल्पना की गयी, जिसके माध्यम से लिंग, जाति, धर्म के भेदभाव सहित सभी बालकों की पहुँच शिक्षा तक सम्भव हो सके। अपेक्षित अधिगम की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं :
  • अपेक्षित अधिगम स्तर के माध्यम से सभी वंचित वर्गों को गुणात्मक शिक्षा प्राप्त होती है। 
  • यह बालकों के प्रत्याशित व्यवहार का प्रत्यक्ष रूप में मापने का प्रयास है। 
  • अपेक्षित अधिगम स्तर समानता एवं शिक्षा के क्षेत्र में प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष विभेदों के निराकरण हेतु प्रयास करता है। 
  • यह प्राथमिक शिक्षा में लागू किये गये कार्यक्रम का तार्किक रूप से विवेचन करता है। 
  • अपेक्षित अधिगम स्तर विद्यालयी शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन लाने हेतु संकलित प्रयास है।
  • इसे उद्देश्यों के वर्गीकरण अथवा प्रत्याशित व्यवहार दोनों के आधार पर समझा जा सकता है। 
  • अपेक्षित अधिगम स्तर छात्रों, शिक्षकों एवं शिक्षण अधिगम •प्रक्रिया को प्रभावी बनाता है एवं एक सुनिश्चित दिशा निर्देश प्रदान करता है। 
  • प्राथमिक शिक्षा में अध्ययनरत छात्रों को दक्षताधारित कक्षा 5 तक का पाठ्यक्रम तैयार करने में सहायता प्रदान करता है।  
  • इसके माध्यम से प्रत्येक छात्र में न्यूनतम दक्षताओं एवं अपेक्षाओं की आशा की जाती है।  

अधिगम स्तर की सम्प्राप्ति में अधिगम अनुभवों का संयोजन 

Connection of Learning Experiences in Achieving of Learning Outcome 
आजकल अधिकांश विद्यालयों में विद्यार्थियों का अपेक्षित अधिगम बहुत निम्न स्तर का होता है। इस समस्या को गुणवत्ता की कमी के नाम से भी जाना जाता है। इसके अतिरिक्त एक ही क्षेत्र के भिन्न-भिन्न विद्यालयों में विद्यार्थियों की उपलब्धि का स्तर कहीं उच्च तथा कहीं निम्न पाया जाता है। शिक्षा में गुणवत्ता की समानता को प्राप्त करने हेतु अपेक्षित अधिगम स्तरों का निर्धारण किया जाता है। 

इस प्रकार अपेक्षित अधिगम स्तर छात्रों को गुणवत्ता की क्षमता से जोड़ने का महत्त्वपूर्ण प्रयास माना जाता है। वांछित दक्षताओं को निपुणता के स्तर तक प्राप्त करना ही गुणवत्ता है। शिक्षक का कार्य एक नाविक की तरह है जो छात्रों को विद्यालय में नामांकित कर पाठ्यक्रम रूपी नाव में बैठाकर सहायक सामग्री एवं शिक्षण विधियों की सहायता से नदी के दूसरे किनारे तक पहुँचाता है। 

प्रदेश में आज भी प्राथमिक स्तर पर नामांकन एव ठहराव की समस्या बनी हुई है क्योंकि कुछ ही छात्र प्राथमिक स्तर की शिक्षा पूर्ण कर पाते हैं। जब विद्यालय में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र दक्षताओं की प्राप्ति में पारंगत हो जाते हैं तभी उन्हें शिक्षा की गुणवत्ता की संज्ञा प्रदान की जाती है। सभी छात्रों को पारंगतता के स्तर तक ले जाना ही अपेक्षित अधिगम स्तर का लक्ष्य है। 

अपेक्षित अधिगम प्रतिफल का अधिगम के पुनर्बलन में महत्त्व

Importance in Reinforcement of Learning of Expected Learning Result
इस गुणवत्ता को समान रूप से सभी को उपलब्ध कराने के लिये यह प्रयास करना होगा कि अधिक से अधिक छात्र अधूरी प्राथमिक शिक्षा से बढ़कर गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्राप्त कर सकें। शिक्षा में समानता से तात्पर्य है कि पहले शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि की जाय बाद में उसे सार्वजनिक बनाने का प्रयास किया जाय। वास्तविकता यह है कि प्राथमिक स्तर पर प्रदेश के सभी छात्र पारंगतता के उच्चतम स्तर तक पहुँच जायें, यही सामाजिक समता कहलाती है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिये छात्रों में पुनर्बलन को स्थापित करने की आवश्यकता होती है। 

अध्ययन अध्यापन की प्रक्रिया में शिक्षक छात्रों को अधिगम के अवसर सुलभ कराकर विद्यार्थी को अधिगम अनुभव प्राप्त कराता है। शिक्षक द्वारा अधिगम प्रक्रिया को पूर्ण करने हेतु विद्यार्थियों को पढ़ने-लिखने, विचार-विमर्श करने, प्रेक्षण वर्गीकरण करने, सामान्यीकरण करने, तुलना करने तथा निष्कर्ष निकालने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। अपेक्षित अधिगम स्तर के अन्तर्गत दक्षताओं का निर्धारण विषय तथा कक्षावार किया जाता है। दक्षताओं के विकास में विद्यालय, घर, परिवार तथा छात्र का परिवेश समान रूप से महत्त्वपूर्ण होता है। 

जिन छात्रों की सामाजिक, आर्थिक अथवा पारिवारिक पृष्ठभूमि शिक्षा की दृष्टि से ठीक है ऐसे छात्रों की भाषा आदि विषयों की दक्षता के विकास में अधिक सरलता रहती है। इसी प्रकार पर्यावरणीय अध्ययन में जिन छात्रों को अपने परिवेश को देखने और परखने के अधिक अवसर उपलब्ध होते हैं ऐसे छात्रों में पर्यावरणीय अध्ययन की दक्षताएँ अपेक्षाकृत अधिक विकसित हो जाती हैं। 

अपेक्षित अधिगम स्तर के क्षेत्र

Scope of Expected Learning Outcome 
अपेक्षित अधिगम स्तर के क्षेत्र को प्राय: दो भागों में बाँटा जा सकता है :

I. संज्ञानात्मक क्षेत्र

इस क्षेत्र के अन्तर्गत उन तथ्यों को सीखा जाता है जिनका सम्बन्ध मानसिक क्रियाओं से अधिक होता है; जैसे-जानना, समझना, चिन्तन करना, तर्क करना, कल्पना करना तथा पूर्वानुमान लगाना इत्यादि ।

II. संज्ञानेत्तर क्षेत्र

इस क्षेत्र का सम्बन्ध अधिगम के उस भाग से होता है जो भावात्मक तथा मनोशारीरिक क्रियाओं से जुड़ा होता है, जैसे- समयबद्धता, नियमितता, स्वच्छता, श्रमशीलता, सहभागिता, उत्तरदायित्व की भावना, सच्चाई तथा देश-प्रेम इत्यादि ।

दक्षताओं के विकास में संज्ञानात्मक तथा संज्ञानेत्तर दोनों क्षेत्रों की समान सहभागिता होती है। दक्षता आधारित शिक्षण में कक्षा विशेष के लिये निर्धारित दक्षता को विद्यार्थियों में प्रवीणता के स्तर तक विकसित किया जाता है। इसके लिये बाल केन्द्रित तथा क्रिया आधारित शिक्षण प्रक्रिया को सर्वोत्तम माना जाता है। 

मूल्यांकन शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का अभिन्न अंग होता है अत: इसे शिक्षण अधिगम क्रिया कलापों के साथ जोड़ना आवश्यक है। इसलिये मूल्यांकन एवं तीसरी प्रक्रिया को सतत् तथा व्यापक बनाना चाहिये। ऐसा करने से शिक्षकों को यह ज्ञात होता है कि छात्रों की दक्षताओं के विकास की प्रगति क्या है तथ छात्र दक्षताओं की सम्प्राप्ति के लिये तैयार हैं या नहीं ? कक्षा में शिक्षार्थियों की तुलनात्मक स्थिति तथा उपलब्धियों के बारे में सामान्य स्तर क्या है ? इत्यादि तथ्यों को शिक्षक द्वारा ही सम्पन्न किया जाता है। 

अपेक्षित अधिगम स्तर की प्राप्ति हेतु प्रयास

Efforts Conducted for Achieveing Expected Learning Outcome 
अपेक्षित अधिगम स्तर की धारणा से लोग सन् 1986 में परिचित हुए जबकि प्रथम राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसके महत्त्व को स्वीकार किया गया था किन्तु राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद् नयी दिल्ली ने यूनीसेफ के सहयोग से सन् 1978 में इस योजना पर कार्य करना प्रारम्भ किया था। इस योजना के क्रियान्वयन हेतु शिक्षाविदों ने कक्षा 1 से 5 तक के लिये भारतीय मानकों को तैयार किया और इस योजना में तैयार किये गये इन मानकों को सन् 1984 के पायलेट योजना में पुन: समीक्षित किया गया। 

इस योजना रिपोर्ट के आधार पर अपेक्षित अधिगम स्तर नामक राष्ट्रीय पत्र को तैयार किया गया। सन् 1986 की नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति के द्वारा इस परियोजना को व्यापक स्तर पर क्रियान्वित किया गया। भविष्य में इन मानकों को औपचारिक एवं अनौपचारिक शिक्षा केन्द्रों द्वारा समान रूप से अपना लिया गया।

अपेक्षित अधिगम स्तर की धारणा को विश्व कान्फ्रेंस 1990 में सभी के लिये शिक्षा' पर हुई थी बल मिला। उसी समय डॉ. आर. एच. की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया, जिसने अपेक्षित अधिगम स्तर आव्यूह को ठोस तरीके से क्रियान्वित करने पर बल दिया। इसी के आधार पर सन् 1991-92 में अनेक अभिनव परियोजनाएँ तैयार की गयीं, जिनमें 3000 प्राथमिक विद्यालयों तथा 250000 छात्रों को सम्मिलित किया गया।


इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।