शिक्षण की नवीन विधाएँ (उपागम) | महत्त्व, विशेषताए | Teaching Approaches

बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षण का केन्द्र बिन्दु बालक होता है। इसके अन्तर्गत बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों क्षमताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान..

शिक्षण की नवीन विधाएँ या उपागम (Teaching Approaches)

उपागम प्रणाली एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका उपयोग करके शिक्षण अधिगम के नीति निर्धारकों द्वारा ध्यानपूर्वक और क्रमबद्ध अध्ययन करने के पश्चात् शिक्षण अधिगम की समस्याओं को सुलझाने का प्रयत्न किया जाता है।

उपागम का उपयोग तब किया जाता है जब कोई शिक्षण की समस्या सामने आती है। उपागम के द्वारा समस्या का योजनाबद्ध ढंग से अध्ययन करके सही समाधान प्राप्त किया जाता है तथा शिक्षण प्रक्रिया को सरल एवं सार्थक बनाया जाता है। 

Approaches-Teaching
Approaches Teaching

बाल केन्द्रित शिक्षण (Child-centered Teaching)

बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षण का केन्द्र बिन्दु बालक होता है। इसके अन्तर्गत बालक की रुचियों, प्रवृत्तियों तथा क्षमताओं को ध्यान में रखकर शिक्षण प्रदान किया जाता है। 

बाल केन्द्रित शिक्षण में व्यक्तिगत शिक्षण को महत्त्व दिया जाता है। इसमें स्वाभाविक रूप से विकसित अनुशासन स्थापित होता है। 

इसमें बालक का व्यक्तिगत निरीक्षण कर उसकी दैनिक कठिनाइयों को दूर करने का प्रयास किया जाता है तथा बालक को स्वावलम्बी बनाकर उसमें स्वतन्त्रता की भावना उत्पन्न की जाती है। 

बालक चुने गये साधनों में से अपनी इच्छानुसार किसी भी साधन का चुनाव कर सकता है। चुने हुए साधन प्राप्त होने पर बालक उस साधन के साथ सन्तोष प्राप्त होने तक कार्य कर सकता है। इस प्रकार किये गये कार्य से बालक को मानसिक सन्तोष और शान्ति का अनुभव होता है। इस अनुभव से बालक का शारीरिक एवं मानसिक उत्साह उत्पन्न होने में सहायता मिलती है। 

बाल केन्द्रित शिक्षण जीवन की शिक्षण प्रणाली है। अतः एक विकसित शिशु से एक विकसित प्रौढ़ बनाने के लिये जो कार्य मूलत: सीखना आवश्यक है उन सभी क्रिया प्रणालियों का समावेश इस शिक्षण में किया गया है। बाल केन्द्रित शिक्षण पूर्णत: मनोवैज्ञानिक है।

बाल केन्द्रित शिक्षण का महत्त्व (Importance of Child Centred Teaching)

बाल केन्द्रित शिक्षण का महत्त्व निम्न है :

बालक प्रधान शिक्षण

बाल केन्द्रित शिक्षण का विशिष्ट महत्त्व यह है कि इसमें बालक को सबसे अधिक प्रधानता दी जाती है। इसमें बालक की रुचियों और क्षमताओं को ध्यान में रखकर ही सम्पूर्ण शिक्षण का आयोजन किया जाता है।

सरल और रुचिपूर्ण

बाल केन्द्रित शिक्षण अत्यन्त सरल और रुचिपूर्ण है। यह बालक को सरल ढंग से नवीन ज्ञान रुचिपूर्ण तरीके से प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण साधन है। 

आत्माभिव्यक्ति के अवसर

बाल केन्द्रित शिक्षण में बालकों को आत्माभिव्यक्ति के अवसर प्राप्त होते हैं।

ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण पर बल

बाल केन्द्रित शिक्षण में ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण पर विशेष बल दिया जाता है। वास्तव में ज्ञानेन्द्रियों के प्रशिक्षण से ही मस्तिष्क का विकास होता है।

व्यावहारिक और सामाजिक

बाल केन्द्रित शिक्षण बालक को व्यावहारिकता और सामाजिकता की शिक्षा प्रदान करता है। 

बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक की भूमिका (Role of Teacher in Child Centred Teaching)

बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक बालकों का सहयोगी, सेवक तथा मार्गदर्शक के रूप में होता है। वह बालकों का सभी प्रकार से मार्गदर्शन करता है और विभिन्न क्रियाकलापों को क्रियान्वित करने में सहायता करता है। 

शिक्षक को शिक्षण के यथार्थ उद्देश्यों के प्रति पूर्णतया सजग रहना चाहिये। शिक्षण का उद्देश्य बालकों को केवल पुस्तकीय ज्ञान प्रदान करना मात्र ही नहीं होता वरन् बाल केन्द्रित शिक्षण का महानतम् लक्ष्य बालक का सर्वोन्मुखी विकास करना है इसलिये शिक्षक को इस उद्देश्य की पूर्ति में बालक की अधिक से अधिक सहायता करनी चाहिये।

बाल केन्द्रित शिक्षण की सफलता शिक्षक की योग्यता पर निर्भर करती है। प्राचीन भारत में शिक्षक को ईश्वर के पश्चात् द्वितीय स्थान प्रदान किया जाता था। बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक माली के सदृश पौधों के समान बालकों का पोषण करके उनका शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिक विकास करता है। शिक्षक ही बालक को पशु प्रवृत्ति से निकालकर मानवीय प्रवृत्ति की ओर उन्मुख करता है।

इस प्रकार बाल केन्द्रित शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य को एकता का मूल आधार कहा गया है। शिक्षक का कर्त्तव्य है कि वह बालकों को इस तथ्य को बोध कराये कि वे स्वयं परम् शक्ति के अंश मात्र हैं। बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक को यह निर्णय लेना चाहिये कि बालक को क्या सिखाना है? उसके अनुसार ही स्थानीय पर्यावरण का चयन, पाठ्यक्रम, शाला, समय शाला दैनिक कार्यक्रम आदि का निर्णय स्थानीय समाज की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर करना चाहिये। 

निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि बाल केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक की मार्गदर्शक के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है बिना शिक्षक के मार्गदर्शन के शिक्षण अपंग हो जाता है।

शिक्षक केन्द्रित शिक्षण (Teacher Centred Teaching)

शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसमें समस्त शिक्षण कार्यक्रम शिक्षक को केन्द्र मानकर आयोजित किये जाते हैं। इससे बालकों के अन्दर भयनिर्मित बाह्य अनुशासन स्थापित किया जाता है। यह सामूहिक कक्षा शिक्षण पर आधारित है। इसमें बालक को आत्म-प्रकाशन का अवसर नहीं मिल पाता। इस शिक्षण में छात्र अध्ययन के लिये स्वतन्त्र नहीं होता। इसमें शिक्षण और निरीक्षण पर पूर्णत: शिक्षक का हस्तक्षेप रहता है।

इसमें बालक की क्षमता और रुचि का ध्यान नहीं रखा जाता। इस शिक्षण में बालक अध्ययन के लिये स्वतन्त्र नहीं होता। उसे वही पढ़ना होता है जो शिक्षक चाहता है। शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में बालक को आत्माभिव्यक्ति का अवसर नहीं मिलता। इस शिक्षण में सभी प्रयोगात्मक कार्य शिक्षक स्वयं करता है फलस्वरूप बालक में आत्म-निर्भरता तथा आत्मविश्वास की भावना का विकास नहीं होता। अतः शिक्षक केन्द्रित शिक्षण पूर्णत: अमनोवैज्ञानिक है।

बाल केन्द्रित शिक्षण और शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में अन्तर

बाल केन्द्रित शिक्षण और शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में अन्तर (Distinguish be tween child centred teaching and teacher centred teaching)
1. बाल केन्द्रित शिक्षण में बालक की आवश्यकता, रुचि एवं क्षमता को महत्त्वपूर्ण माना जाता है। 1. शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में शिक्षक सर्वोपरि है।
2. बाल केन्द्रित शिक्षण में शैक्षणिक कार्यक्रम का मुख्य आधार विद्यार्थी होता है। 2. शिक्षक केन्द्रित शिक्षण के शैक्षणिक कार्यक्रम पूर्व नियोजित होते हैं जो छात्र को अरुचिकर लगते हैं।
3. बाल केन्द्रित शिक्षण बालकों के अनुभवों पर आधारित होता है। अतः यह रुचिकर एवं उत्साहवर्द्धक होता है। इससे बालकों की सृजनात्मकता का विकास होता है 3. किन्तु शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में बालक की सृजनात्मक शक्ति का विकास नहीं हो पाता।
4. बाल केन्द्रित शिक्षण बच्चों में अनुशासन, स्वावलम्बन एवं अध्यवसाय जैसे गुण विकसित करता है 4. जबकि शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में बालक में स्वानुशासन, स्वावलम्बन, श्रम तथा स्वाध्याय जैसे गुण विकसित नहीं हो पाते।
5. बाल केन्द्रित शिक्षण में मूल्यांकन भी साथ-साथ होता रहता है 5. परन्तु शिक्षक केन्द्रित शिक्षण में मूल्यांकन वस्तुनिष्ठ नहीं होता। इससे सृजनात्मकता का प्रायः अभाव रहता है।


क्रिया आधारित / गतिविधि आधारित शिक्षण (Work/Activity-based Teaching)

क्रियापरक एवं गतिविधि आधारित शिक्षण उपागम का प्रवर्तक रूसो को माना जाता है। क्रियापरक उपागम का अर्थ है छात्र का अपनी स्वयं की क्रिया द्वारा ज्ञान प्राप्त करना। 

छात्र की क्रिया से तात्पर्य है जिस क्रिया को छात्र किसी उद्देश्य से पूर्ण करता है उसमें उसका मानसिक और शरीर दोनों क्रियाशील रहते हैं। इस आधार पर यह स्पष्ट है कि छात्र की क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं - शारीरिक तथा मानसिक 

चहलकदमी, आत्मक्रिया एवं आत्म अभिव्यक्ति इसके प्रमुख अंग माने जाते हैं। क्रियात्मक या क्रियापरक विधि का साधन सामूहिक शिक्षण अधिगम होता है। इस विधि का प्रयोग समस्त विषयों अथवा क्रियाओं के शिक्षण अधिगम के लिये किया जाता है परन्तु इसका प्रयोग करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि शिक्षण अधिगम को सम्पन्न करने में निर्धारित समय से अधिक समय न लगे। एक ही समूह के सभी बालकों को एक समय में एक ही कार्य करना चाहिये। जैसे एक ही समूह के छात्र किसी मॉडल का निर्माण कर रहे हैं तो सभी छात्रों को एक ही प्रकार का मॉडल बनाना चाहिये। 

गतिविधि आधारित शिक्षण को निम्नलिखित क्रियाओं में विभाजित किया जा सकता है - 

अनुभव प्राप्ति से सम्बन्धित क्रियाएँ

अनुभव प्राप्त करने वाली क्रियाओं का उद्देश्य है बालकों द्वारा नये अनुभव प्राप्त करना। बालक किसी स्थान का भ्रमण करके, किसी औद्योगिक संस्थान को देखकर या किसी वस्तु का निरीक्षण करके नवीन अनुभव प्राप्त कर सकते हैं।

ज्ञान प्राप्ति से सम्बन्धित क्रियाएँ

इन क्रियाओं का मूल उद्देश्य है छात्रों द्वारा अनेक तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करना; जैसे- बालकों द्वारा इस तथ्य का ज्ञान प्राप्त करना कि उनके घर में प्रयोग होने वाली वस्तुएँ कहाँ-कहाँ से आती हैं।

ज्ञान प्रदान से सम्बन्धित क्रियाएँ

इन क्रियाओं का मूल उद्देश्य यह है कि बालक किस प्रकार अपने अर्जित ज्ञान को व्यक्त कर सकता है ? बालक किसी विषय पर वाद-विवाद करके, किसी स्थान का मानचित्र बनाकर या उद्योगों का वर्गीकरण करके अपने अर्जित ज्ञान को प्रदर्शित कर सकते हैं।

क्रिया/गतिविधि आधारित शिक्षण के सिद्धान्त (Principles of activity based teaching)

क्रियापरक शिक्षण इस सिद्धान्त को प्रतिपादित करता है कि छात्र को ज्ञान प्राप्ति करने हेतु स्वतन्त्रता प्रदान करनी चाहिये। इसके अतिरिक्त इस उपागम के सिद्धान्तों का विवरण निम्नलिखित प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • क्रियापरक विधि आत्म स्वतन्त्रता के सिद्धान्त को मानती हैं। इसके अनुसार आत्म-स्वतन्त्रता की प्राप्ति हेतु आत्म-क्रिया करना आवश्यक होता है। 
  • इस उपागम के माध्यम से बालक का चहुँमुखी विकास उसकी स्वयं की क्रिया के द्वारा सम्पन्न होता है। 
  • यह विधि अन्तर्निहित क्रिया के सिद्धान्त को प्रतिपादित करती है। इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त प्राणियों में एक समान आन्तरिक प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है, जिसे वे अभिव्यक्त करना चाहते हैं। 
  • यह उपागम मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। यह छात्र की क्रिया चेतना के तीनों स्तरों को प्रभावित करती हैं - (i) चिन्तनात्मक, (ii) रुचि संकल्पना तथा (iii) निर्णय। 
  • इसके माध्यम से बालक प्रवृत्तियों की ओर प्रेरित होकर ज्ञान अर्जन करते हैं।

क्रिया / गतिविधि आधारित शिक्षण की विशेषताएँ (Characteristics of activities based teaching) 

सिद्धान्तों के आधार पर गतिविधि आधारित अधिगम उपागम अथवा क्रियापरक शिक्षण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं 
  • यह विधि बालक को करके सीखने का अवसर प्रदान करती है, जिससे बालक ज्ञानार्जन करते हैं। 
  • यह विधि बालक को कार्य करने में इतना मग्न कर देती है कि उसे ज्ञानार्जन करते समय थकान का अनुभव नहीं होता है। 
  • यह विधि बालक को स्वयं ज्ञान और अनुभव प्राप्ति का अवसर प्रदान करती है। 
  • यह विधि शिक्षक केन्द्रित न होकर बाल केन्द्रित होती है। 
  • इस विधि के द्वारा बालक क्रियाशील होकर अधिगम प्रक्रिया में रुचिपूर्ण सहभागिता करते हैं। 
  • यह विधि बालकों को अनेक वस्तुओं को बनाने का प्रशिक्षण प्रदान कर उनकी व्यावसायिक कुशलता को बढ़ाती है। 
  • यह विधि क्रिया के सिद्धान्त को केवल विषय के रूप में ही नहीं वरन् एक अधिगम विधि के रूप में भी प्रयोग करती है। 
  • यह विधि वस्तुओं के संग्रह, पर्यटन, अवलोकन और परीक्षण को महत्त्व देती है।

रुचिपूर्ण / आनन्दायी शिक्षण (Interest/Joyful Teaching)

रुचिपूर्ण या आनन्ददायी शिक्षण एक समयबद्ध कार्यक्रम तथा सुविचारित रणनीति है। यह बालकों के अधिगम हेतु आकर्षक एवं बाल केन्द्रित प्रणाली है, जिसमें बालकों को आनन्दित करने वाले क्रियाकलाप एवं शाला में बालकों के प्रति शिक्षक का मित्रतापूर्ण तथा आत्मीय व्यवहार सम्मिलित है। यह गीतों, कहानियों तथा खेलों द्वारा सरल गतिविधि प्रधान बाल केन्द्रित उपागम है। 

इस प्रकार रुचिपूर्ण शिक्षण एक विद्या है जो अधिगम को रोचक एवं प्रभावी बनाकर शिक्षा के सार्वजनीकरण के लक्ष्य प्राप्ति में सहायक है। रुचिपूर्ण अथवा आनन्ददायी शिक्षण का लक्ष्य ज्ञान एवं व्यवहार की दूरी को समाप्त कर अधिगम को जीवन से जोड़ना है, जिसके अन्तर्गत रुचिपूर्ण शिक्षण के निम्नलिखित उद्देश्य हैं -
  • बालकों का नामांकन, ठहराव तथा गुणात्मक शिक्षा की सम्प्राप्ति
  • विद्यालय का बाह्य एवं आन्तरिक सौन्दर्यीकरण करके, उसे एक आनन्ददायी क्रिया केन्द्र के रूप में विकसित करना। 
  • शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को क्रियाकलाप आधारित बनाकर इसमें प्रत्येक बालक की सहभागिता सुनिश्चित करना
  • शिक्षक को एक मित्र एवं सहयोगी के रूप में कल्पित करना। 
  • स्वनिर्मित एवं स्थानीय परिवेश में उपलब्ध सामग्री को अधिगम सहायक सामग्री के रूप में प्रयुक्त करना । 
  • बालकों की आपसी समझ और सहयोग की भावना को प्रोत्साहित कर उनकी बौद्धिक, सृजनात्मक एवं कलात्मक दक्षताओं का समुचित उपयोग करना। 
  • बालकों को स्वप्रतिभा विकास का अवसर प्रदान करना। 
  • समुदाय का सहयोग प्राप्त करना । 
  • निर्धारित दक्षताओं सम्बन्धी कौशलों का विकास करके न्यूनतम अधिगम स्तर को प्राप्त करना । 
  • पूर्व प्राथमिक शिक्षा में ह्रास एवं अवरोध को रोकना।


सहभागी शिक्षण (Participation Teaching)

सहभागी शिक्षण का सामान्य अर्थ शिक्षक एवं शिक्षार्थी की सहभागिता से लिया जाता है। शिक्षा शास्त्रियों का तर्क है कि शिक्षक एवं छात्र दोनों ही शिक्षण प्रक्रिया के महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं। इसलिये वह शिक्षण प्रक्रिया सफल होगी जिसमें दोनों समान रूप से भाग लें। शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षार्थी भी उतना ही महत्त्वपूर्ण बिन्दु है जितना कि शिक्षक। 

सहभागी शिक्षण को विद्वानों ने निम्नलिखित रूप में परिभाषित किया है -

प्रो. श्रीकृष्ण दुबे के शब्दों में, "सहगामी शिक्षण का आशय उस शिक्षण प्रक्रिया से है जिसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी की पूर्ण सहभागिता निश्चित होती है तथा सहभागिता द्वारा ही शिक्षण प्रक्रिया प्रभावशाली एवं उद्देश्यपूर्ण बनती है।"

श्रीमती आर.के. शर्मा के अनुसार, “जिस शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक द्वारा शिक्षार्थी का सहयोग प्राप्त करके उसे यह अनुभव कराया जाता है कि वह (छात्र) इस शिक्षण प्रक्रिया का महत्त्वपूर्ण पक्ष है, वह सहभागी शिक्षण कहलाता है।

अतः स्पष्ट हो जाता है कि सहभागी शिक्षण में शिक्षक एवं छात्र दोनों को ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाता है तथा शिक्षण प्रक्रिया को उद्देश्यपूर्ण, सरल एवं प्रभावी बनाने के लिये सहभागी शिक्षण में दोनों पक्षों की सहभागिता को आवश्यक माना जाता है।

सहभागी शिक्षण की विशेषताएँ (Characteristics of participation teaching) 

सहभागी शिक्षण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं- 
  • सहभागी शिक्षण में शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों पक्षों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया जाता है। 
  • इसमें शिक्षक एवं शिक्षार्थी दोनों की ही सहभागिता को अनिवार्य माना जाता है। 
  • इस शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षार्थी की सहभागिता लेने के कारण वह क्रियाशील बना रहता है तथा उसे यह अनुभव होता है कि वह शिक्षण प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। 
  • यह प्रक्रिया सहयोग एवं सहभागिता पर आधारित है। 
  • सहभागी शिक्षण प्रक्रिया से शिक्षक अधिगम प्रक्रिया प्रभावशाली एवं बोधगम्य रूप में प्रस्तुत की जाती है। 
  • यह प्रक्रिया वर्तमान समय की श्रेष्ठ शिक्षण प्रक्रियाओं में से एक है क्योंकि इसमें छात्र पूर्णतः क्रियाशील होते हैं।

सहभागी शिक्षण के उद्देश्य (Aims of participation teaching)

सहभागी शिक्षण वर्तमान समय की शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है क्योंकि इस प्रक्रिया से शिक्षण के समस्त पक्ष लाभान्वित होते हैं। सहभागी शिक्षण के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं -
  • शिक्षक एवं छात्र दोनों याशील स्थिति में रखना सहभागी शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है। 
  • छात्रों को स्थायी ज्ञान प्रदान करना सहभागी शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है क्योंकि इसमें छात्र क्रियाशील रहता है
  • छात्रों को उनकी महत्त्वपूर्ण स्थिति का ज्ञान कराने के लिये आवश्यक है। 
  • सहभागी शिक्षण के माध्यम से कक्षा के नीरस वातावरण को दूर किया जा सकता है। 
  • सहभागी शिक्षण के द्वारा विषवस्तु का सरल एवं बोधगम्य प्रस्तुतीकरण किया जा सकता है। 
  • छात्रों को शारीरिक एवं मानसिक रूप से क्रियाशील रखना सहभागी शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है। 
  • सहभागी शिक्षण के आधार पर छात्रों का चहुँमुखी विकास किया जा सकता है। 
  • कक्षा-कक्ष में सौहार्द्रपूर्ण वातावरण स्थापित करने के लिये सहभागी शिक्षण प्रक्रिया को अपनाया जाता है। 
  • छात्रों में सहयोग एवं सहकारिता की भावना का विकास करने के लिये सहभागी शिक्षण का प्रयोग किया जाता है। 
  • छात्रों में विषयवस्तु के प्रति लगाव एवं शिक्षण में रुचि उत्पन्न करने के लिये सहभागी शिक्षण को श्रेष्ठ माना जाता है।


दक्षता आधारित शिक्षण (Efficiency Based Teaching)

आधुनिक युग प्रतिस्पर्द्धा एवं प्रतियोगिता का युग है। इसमें बालकों को ज्ञान प्राप्ति के साथ ही समाज में अपना विशिष्ट स्थान बनाने के लिये किसी क्षेत्र में विशिष्ट दक्षता प्राप्त करना होती है। दक्षता मानसिक एवं भौतिक दोनों क्षेत्रों में हो सकती है। 

दक्षता प्राप्त करने के बाद ही बालक समाज में सुखी जीवन व्यतीत कर सकता है। अतः शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का यह महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बन जाता है कि यदि बालकों को समाज का महत्त्वपूर्ण सदस्य बनाना है तो बालकों में किसी न किसी दक्षता का विकास करना होगा; जैसे - चिन्तन, समस्या समाधान, शब्द कौशल, गणितीय गणनाएँ, वाचन, भाषण, नृत्य तथा संगीत आदि। 

यदि बालक के पास कोई दक्षता नहीं हो तो उसका व्यक्तित्व एकपक्षीय बनकर रह जाता है। दक्षता आधारित शिक्षण को निम्नलिखित सोपानों के माध्यम से बालकों के अधिगम हेतु प्रयुक्त किया जाता है - 
  • पूर्व तैयारी - उद्देश्य निर्धारण, सहायक सामग्री 
  • विषय वस्तु का प्रस्तुतीकरण । 
  • नियम निर्णय का समन्वयीकरण, सूचीकरण 
  • अभ्यास 
  • अभ्यास कार्य के मध्य की गयी त्रुटियों का शुद्धीकरण 
  • प्रयोग।

जब बालक अभ्यास कार्य के मध्य त्रुटियाँ करना बन्द कर दे तो दक्षता विकास हेतु पुनः अभ्यासात्मक प्रयोग कराया जाय और इस प्रक्रिया को तब तक जारी रखा जाय जब तक कि छात्र वांछित दक्षता प्राप्त नहीं कर ले। 

बालकों में दक्षता विकास में निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना चाहिये - 
  • दक्षता का कार्यक्षेत्र बालकों के स्तरानुकूल होना चाहिये। 
  • अभ्यास कार्य के समय बालकों की थकान का विशेष ध्यान रखा जाय। 
  • छात्र की अन्तर्निहित शक्तियों को ज्ञात करने के बाद उसके दक्षता विकास की प्रक्रिया आरम्भ की जाय। 
  • बालकों को अभ्यास कार्य के प्रति अभिप्रेरित करने के लिये दक्षता को उनके तात्कालिक जीवन से सम्बन्धित किया जाय। 
  • दक्षता विकास हेतु बालकों को आवश्यक मार्ग दर्शन दिया जाये। 
  • दक्षता विकास बालक तथा अध्यापकों को बड़े ही धैर्य के साथ मिलकर कार्य करना चाहिये क्योंकि इसकी सम्प्राप्ति में समय भी लग सकता है।


उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Teaching)

यदि कोई छात्र लगातार किसी विषय में अनुत्तीर्ण होता है या पढ़ने में कमजोर होता है तो छात्र की असफलता की जानकारी प्राप्त करना निदान कहलाता है। 

छात्र की असफलता के कारणों की जाँच कर इनके निराकरण के लिये उपाय किये जाते हैं तो यह उपचार कहलाता है। 

निदानात्मक परीक्षण और उपचारात्मक शिक्षण की प्रतिक्रियाएँ साथ-साथ रहती हैं। यह क्रिया निम्नलिखित पदों में पूर्ण होती है -

1. वर्गीकरण - पहले छात्रों को उनके बौद्धिक स्तर के आधार पर विभिन्न वर्गों से वर्गीकृत कर लिया जाता है। 
2. कठिनाई की प्रकृति की जानकारी - इसके पश्चात् छात्रों को होने वाली कठिनाइयों की जानकारी प्राप्त करते हैं। 
3. पिछड़ेपन का कारण - छात्रों की उपलब्धि अनेक आन्तरिक एवं बाह्य तथ्यों से प्रभावित होती है, जैसे- शैक्षिक क्षमता की कमी, अध्ययन की आदतें, कार्य करने की आदतें, कुशलताओं की कमी तथा भावनात्मक पर्यावरण और भौतिक कारण आदि।

शैक्षणिक निदान का सम्बन्ध छात्रों की व्यक्तिगत योग्यताओं एवं क्षमताओं की जाँच से ही नहीं वरन् उनकी क्षमताओं, कमजोरियों एवं कठिनाइयों के उपचार से भी है। विशिष्ट छात्र की विषयगत कमजोरी एवं कठिनाई को दूर करने के लिये शिक्षक को अपनी अध्यापन विधि में आवश्यक परिवर्तन लाना पड़ता है, जिससे छात्र अपनी योग्यता के अनुसार अधिगम अनुभव प्राप्त कर सके। अत: इस शिक्षण प्रक्रिया (Teaching procedure) को उपचारात्मक शिक्षण (Remedial teaching) कहते हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि शिक्षक का कार्य चिकित्सक के कार्य से अत्यन्त कठिन है। किसी रोगी के रोग का कारण जीवाणु या विषाणु (Virus) हो सकता है, लेकिन अध्यापक की शिक्षण प्रक्रिया के कारण इतने जटिल होते हैं कि उनका विश्लेषण करना कठिन हो जाता है, जिसके लिये वह विभिन्न प्रकार की विधियों, परीक्षणों एवं उपकरणों का सहारा लेता है। 

छात्र की कमजोरी का इस प्रकार उपाय कर चुकने के पश्चात् वह फिर अनेक उपचारात्मक विधियों (Remedial methods) की सहायता से उपचार करता है और छात्र की कमजोरियों को दूर करने का प्रयास करता है। छात्रों द्वारा की गयी त्रुटियों का ज्ञान होने पर उन्हें दूर करने के लिये उपचारात्मक कार्य व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों प्रकार से किया जाना चाहिये। 

उपचारात्मक कार्य करते समय विद्यार्थियों का वर्गीकरण (Classification) कर प्रखर तथा मन्द बुद्धि वाले छात्रों के लिये अलग-अलग प्रारूप भी तैयार किये जाने चाहिये। ब्लायर के अनुसार, "उपचारात्मक शिक्षण का प्रमुख कार्य है, दोषपूर्ण अध्ययन एवं अध्यापन के प्रभाव को दूर करना, इसका मुख्य लक्ष्य है, इन दोषों और दोषों के कारणों को खोजना तथा कमजोरियों का निराकरण करना।"

मन्द बुद्धि छात्रों के लिये शिक्षण (Remedial teaching for dull I. Q. students)

मन्द बुद्धि छात्रों के लिये निम्नलिखित उपचारात्मक कार्य किये जाने चाहिये - 
  • मन्द बुद्धि छात्रों को कक्षा में आगे बैठने का स्थान दिया जाये। 
  • चार्ट, मॉडल एवं क्रियात्मक कार्यों के माध्यम से प्रत्यय, सिद्धान्त से क्रियाएँ उन्हें समझायी जायें। कमजोर तथा पिछड़े छात्रों की कक्षा व्यवस्था अलग-अलग हो तथा इनकी संख्या कक्षा में 20 से अधिक नहीं होनी चाहिये। 
  • मन्द बुद्धि छात्रों के लिये अभ्यास तथा प्रत्यास्मरण कार्य पर विशेष बल दिया जाये। 
  • मन्द बुद्धि छात्रों के लिखित कार्य को विशेष रूप से जाँच कर व्यक्तिगत रूप से इनको मार्गदर्शन प्रदान किया जाये। 
  • प्रत्यय एवं सिद्धान्त से श्यामपट्ट कार्य कराया जाये अथवा अन्य कार्यों में इनका सहयोग लिया जाये। जाँच कार्य कर उसे आवश्यक सुझाव दिये जायें। 
  • मन्द बुद्धि छात्रों को आवश्यक प्रोत्साहन एवं सीखने के अवसर प्रदान किये जायें। 
  • दृश्य-श्रव्य उपकरण पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध होने चाहिये। 
  • मन्द बुद्धि छात्रों से क्रियात्मक एवं प्रयोगात्मक कार्य करवाये जायें अथवा उन्हें खेल विधि (Play method) द्वारा पढ़ाया जाये। सामान्य सिद्धान्तों का शिक्षण में प्रयोग किया जाये। 
  • मौखिक एवं लिखित प्रश्नों का भी अभ्यास कराया जाये। प्रश्न व्यावहारिक एवं समस्यामूलक होने चाहिये। 

प्रखर बुद्धि छात्रों के लिये उपचारात्मक शिक्षण (Remedial teaching for intelligent students)

प्रखर बुद्धि वाले छात्रों के लिये निम्नलिखित उपचारात्मक कार्य किये जाने चाहिये - 
  • प्रखर बुद्धि वाले छात्रों को उचित मार्गदर्शन के साथ-साथ अध्ययन हेतु विशेष सामग्री प्रदान की जाये। 
  • प्रखर बुद्धि छात्रों को उनके स्तर के अनुरूप पर्याप्त मात्रा में ज्ञान दिया जाये। 
  • उन्हें ऐसी शिक्षण विधियों से पढ़ाया जाये, जिससे उन्हें शीघ्रता से अधिक कार्य करने के अवसर प्राप्त हों। 
  • प्रखर बुद्धि वाले छात्रों के समक्ष अनेक प्रकार की जटिलतम समस्याएँ उत्पन्न की जायें अथवा रखी जायें, जिससे वे उन्हें चुनौती के रूप में लें तथा अपनी क्षमता का अधिकाधिक उपयोग उनके समाधान में कर सकें। 
  • प्रखर बुद्धि वाले छात्रों को मन्द बुद्धि वाले छात्रों को सहायता प्रदान करने हेतु प्रोत्साहित किया जाये। 
  • प्रखर बुद्धि छात्रों को समय-समय पर उचित सम्मान तथा परामर्श मिलता रहे, जिससे उनके स्वाभिमान को ठेस न पहुँचे। 
  • प्रखर बुद्धि छात्रों को गृह कार्य मन्द बुद्धि छात्रों की तुलना में अधिक दिया जाये तथा गृह कार्य में की गयी त्रुटियों को दूर करने के लिये सुझाव दिये जायें। 
  • प्रखर बुद्धि छात्रों को कक्षा में पढ़ाये जाने वाली सामग्री के अतिरिक्त इस प्रकार के कार्यों का अवसर प्रदान किया जाये, जिससे उनकी अभिरुचियों का विकास हो सके ? 
यदि शैक्षणिक निदान को उपचार से सम्बन्धित कर दिया जाये तो निश्चित ही इससे छात्रों को बहुत लाभ होगा। प्रयोगों के आधार पर यह सिद्ध किया जा चुका है कि शैक्षणिक निदान एवं उपचारात्मक शिक्षण सभी विषयों में उपयोगी सिद्ध हुए हैं। निदानात्मक परीक्षाओं एवं उपचारात्मक शिक्षण में चोली-दामन का सम्बन्ध है। 

बुनकर तथा मेलवी के शब्दों में "निदानात्मक परीक्षाओं का प्रमुख उद्देश्य किसी विषय-वस्तु में बालक की विशिष्ट कमजोरी को प्रकाश में लाना है, जिससे कमजोरी के कारणों की छानबीन कर सुधार के लिये उपचारात्मक कदम उठाये जा सके"


बहुकक्षा शिक्षण (Multi Classes Teaching)

बहुकक्षा शिक्षण से आशय है - एक अध्यापक द्वारा बहुत सी कक्षाओं को एक साथ पढ़ाना। बहुकक्षा शिक्षण को उचित रूप में चलाने के लिए हमें आवश्यक तथ्यों; जैसे- पाठ्य पुस्तकों, समय विभाजन चक्र, मॉनीटर, बैठक व्यवस्था, विषयवार समूह तथा बहुस्तरीय शिक्षण व्यवस्था आदि पर विचार करना होगा तथा उनका सही संयोजन करना होगा-

समान दक्षताओं वाले पाठों का संयोजन

किसी कक्षा में पाठ्य सामग्री का निर्धारण कक्षा में पढ़ रहे छात्रों की दक्षताओं के अनुसार होता है। एक ही विषय एक से अधिक कक्षाओं में फैला रहता है। विषय छोटी कक्षाओं में सरल तथा बड़ी कक्षाओं में जटिल होता जाता है। इन पाठों का स्तर कक्षा के छात्रों के स्तर के अनुसार होता है। यदि प्रत्येक कक्षा के लिये अलग शिक्षक हों तो पुस्तकें सहज रूप से पढ़ायी जा सकती हैं 

परन्तु शिक्षकों की संख्या कम होने पर अनेक कक्षाओं को एक साथ पढ़ाना पड़ता है। इसके लिये शिक्षक को सभी पुस्तकों के प्रत्येक पाठ को गहनता से पढ़ना और समझना आवश्यक है। सभी पाठ, सम्मिलित कक्षा में नहीं पढ़ाये जा सकते, उनको कक्षावार अलग से पढ़ाना होगा। एक ही विषय तथा समान दक्षताओं पर आधारित पाठों को एक साथ पढ़ाया जा सकता है। समान दक्षताएँ वाले पाठ हर विषय में पाये जाते हैं। ऐसे पाठों को नियोजित करने के लिये विद्यालय की समय-सारणी इस प्रकार बनानी होगी कि समान पाठ पढ़ने वाली कक्षाएँ एक साथ बैठें।

मॉनीटर 

बहुकक्षा शिक्षण पद्धति में शैक्षिक कार्य व्यवस्था तथा अनुशासन बनाये रखने के लिये मॉनीटर की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। अतः शिक्षण एवं शिक्षणोत्तर क्रियाकलापों की व्यवस्था मॉनीटर किस प्रकार करेगा ? इसके लिये शिक्षक द्वारा पूर्व में प्रशिक्षण देना आवश्यक है। 

ध्यान रहे मॉनीटर शिक्षक का विकल्प नहीं हो सकता। एक कक्षा में एक या एक से अधिक विषयवार मॉनीटर बना सकते हैं। मॉनीटर का चयन योग्यता तथा सर्व सहमति से कर सकते हैं, बालिकाओं को भी अवसर दें। बड़ी कक्षा के मॉनीटर का सहयोग कक्षा-1 एवं 2 की शैक्षिक एवं शिक्षणोत्तर क्रियाकलापों की व्यवस्था हेतु ले सकते हैं। ऐसी स्थिति में शिक्षक को मॉनीटर के लिये अतिरिक्त समय देना होगा।

संकेत - T= शिक्षक, M= मॉनीटर

नोट 1. मॉनीटर केवल एक कक्षा ही नियन्त्रित करेगा।
2. आवश्यकतानुसार शिक्षक एक बार में एक कक्षा भी ले सकता है। ऐसी स्थित में अन्य कक्षाएँ मॉनीटर के नियंत्रण में रहेंगी।

बैठक व्यवस्था

विद्यालय में बैठक की निम्नलिखित आवश्यकताएँ हो सकती हैं - 
  • चार शिक्षक पाँच कक्षाएँ। 
  • तीन शिक्षक पाँच कक्षाएँ। 
  • दो शिक्षक पाँच कक्षाएँ। 
  • एक शिक्षक पाँच कक्षाएँ। 
  • कक्षा-कक्ष का अभाव। 
  • छात्र संख्या की अधिकता। 
उक्त परिस्थितियों में आपको बैठक व्यवस्था के लिए कुछ न कुछ उपाय करने होंगे।

कक्षा शिक्षण की उपयुक्त व्यवस्था को इन उदाहरणों द्वारा समझा जा सकता है -

(1) एक शिक्षक पाँच कक्षाएँ - आप कक्षा (4+5) को एक कक्ष में कक्षा (2+3) को दूसरे कक्ष में तथा कक्षा-1 को बरामदे में बैठा सकते हैं। आपको प्रत्येक दशा में एक से अधिक मॉनीटरों का सहयोग लेना होगा।

(2) दो शिक्षक पाँच कक्षाएँ - आप कक्षा (1+2) को एक साथ तथा कक्षा (3+4+5) को साथ-साथ बैठा सकते हैं। दो कक्ष व एक बरामदा होने पर कक्षा (1 या 5) को अलग-अलग बैठा सकते हैं। कक्षा 1 की बैठक व्यवस्था अलग होने पर कक्षा (2+3) तथा (4+5) को एक साथ बैठा सकते हैं तथा कक्षा 5 के अलग बैठने पर कक्षा (1+2) तथा (3+4) को साथ-साथ बैठा सकते हैं। दोनों शिक्षकों को समय विभाजन के अनुसार क्रम से प्रत्येक कक्षा में समय देना होगा तथा शेष समय के लिये मॉनीटर की व्यवस्था करनी होगी।

(3) छात्र संख्या अधिक होने पर बैठक व्यवस्था - इस प्रकार की बैठक व्यवस्था का स्वरूप निम्नलिखित हो सकता है - 
  • कम छात्र संख्या वाली कक्षाएँ कक्ष में तथा अधिक छात्र संख्या वाली कक्षाएँ खुले में स्थान पर बैठा सकते हैं। 
  • कक्षा - 3, 4, 5, में छात्र संख्या कम होती है। अत: उन्हें कक्ष में बैठा सकते हैं तथा कक्षा-1 एवं 2 को खुले स्थान पर बैठा सकते हैं। 
  • सोचें, क्या आपके विद्यालय के लिये कोई दूसरी अधिक अच्छी व्यवस्था हो सकती है ? यदि हम योजनाबद्ध अर्थात् नियोजित पाठ योजना बनाकर कार्य करें तो सार्थक परिणाम निकलेंगे। 
(4) विषयवार छात्रों का समूह - छात्रों को स्वाधिगम हेतु प्रेरित करने के लिये निम्नलिखित समूह बना सकते हैं - 
  • भाषा समूह 
  • गणित समूह
  • पर्यावरण समूह (ई.वी. एस.) 
  • प्रत्येक समूह में प्रत्येक कक्षा के एक तिहाई छात्र सम्मिलित कर सकते हैं। 
  • समूहों में कक्षा-1 से 5 तक की विषयवस्तु से सम्बन्धित सीखने-सिखाने की सामग्री रख सकते हैं। 
  • सीखने-सिखाने की सामग्री का रखरखाव सम्बन्धित कक्षा का मॉनीटर कर सकता है।


बहुस्तरीय शिक्षण (Multi-Level Teaching)

विभिन्न स्तर के छात्रों को एक साथ पढ़ाना बहुस्तरीय कक्षा शिक्षण कहलाता है। दूसरे शब्दों में बहुस्तरीय शिक्षण का अर्थ है - अलग-अलग स्तर के (तेज, कमजोर) छात्रों को साथ-साथ सीखना- सिखाना। 

हम सभी जानते हैं कि दो जुड़वाँ बालक भी ठीक एक ही मानसिक स्तर के नहीं होते, इसीलिये किसी कक्षा के छात्रों को मुख्य रूप से सामान्य से कम, सामान्य तथा सामान्य से अधिक के स्तरों में बाँट सकते हैं, पर शिक्षकों के अभाव के कारण इन छात्रों को अलग-अलग समूहों में पढ़ा सकते हैं। 

इससे जहाँ सामान्य से कम स्तर के छात्रों को पुनरावृत्ति के अधिक अवसर मिलेंगे, सामान्य स्तर के छात्रों को पुनरावृत्ति तथा निरीक्षण के द्वारा ज्ञान विस्तार का अवसर मिलेगा। सामान्य से अधिक स्तर के छात्र इसे खेल के रूप में लेकर मनोरंजन प्राप्त करेंगे तथा आगे सिखायी जाने वाली क्रियाओं के लिये मानसिक रूप से तत्पर होंगे।

बहुस्तरीय स्थितियों में शिक्षण की तकनीकी बहुश्रेणी शिक्षण से ही सम्बन्धित होती है क्योंकि विभिन्न प्रकार की स्थितियों में छात्रों को उनकी आवश्यकता के अनुसार शिक्षा प्रदान करना भी बहुश्रेणी शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है। बहुस्तरीय स्थितियों में शिक्षण की आवश्यकता एवं महत्त्व को निम्नलिखित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है - 
  • इस प्रकार शिक्षण व्यवस्था में छात्रों की प्रक्रिया का स्वरूप बहुश्रेणी शिक्षण से सम्बन्धित होता है। 
  • बहुस्तरीय स्थितियों में शिक्षण की प्रक्रिया का स्वरूप बहुश्रेणी से सम्बन्धित होती है क्योंकि दोनों के मुख्य उद्देश्य एक-दूसरे से मिलते हैं। 
  • जहाँ शिक्षकों का अभाव होता है तथा छात्रों की संख्या अधिक होती है उस स्थिति में बहुश्रेणी शिक्षण की आवश्यकता अनुभव की जाती है। 
  • एक ही कक्षा में जब विभिन्न मानसिक योग्यताओं वाले छात्र एवं छात्राएँ अध्ययन करते हैं तो बहुश्रेणी शिक्षण की आवश्यकता अनुभव की जाती है। 
  • छात्रों को सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक ज्ञान प्रदान करने के लिये बहुश्रेणी शिक्षण की आवश्यकता अनुभव की जाती है। 
  • बहुस्तरीय स्थितियों में शिक्षण के अन्तर्गत उपलब्ध संसाधनों का सर्वोत्तम रूप से प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति में शिक्षा के उद्देश्यों को सरलता से प्राप्त किया जा सकता है।
"उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि बहुस्तरीय स्थितियों में शिक्षण की आवश्यकता भारतीय विद्यालयों के लिये अधिक है क्योंकि भारतीय विद्यालयों में शिक्षकों का अभाव भी पाया जाता है तथा संसाधनों की उपलब्धता भी कम होती है।

इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।