सूक्ष्म शिक्षण एवं शिक्षण के आधारभूत कौशल Micro Teaching and Fundamental Skills of Teaching

सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ,आवश्यकता, महत्त्व एवं सिद्धान्त, शिक्षण कौशल की अवधारणा, अर्थ, परिभाषाएँ, विशेषताएँ एवं विकास
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सूक्ष्म शिक्षण एवं शिक्षण के आधारभूत कौशल

सूक्ष्म शिक्षण एवं शिक्षण के आधारभूत कौशल Micro Teaching and Fundamental Skills of Teaching

सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ Meaning of Micro Teaching 

सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण की एक प्रक्रिया है, जो शिक्षण की संस्थितियों को सरल बनाती है और यह एक समय एक शिक्षण-कौशल का प्रशिक्षण प्रदान कर शिक्षक के शिक्षण में वांछित सुधार लाती है। संक्षेप में कह सकते है :
सूक्ष्म शिक्षण का मुख्य उद्देश्य शिक्षक व्यवहार में सुधार एवं परिवर्तन लाना है। 

सूक्ष्म शिक्षण की परिभाषाएँ :

एलन के अनुसार : "सूक्ष्म शिक्षण कक्षा आकार, पाठ की विषयवस्तु, समय तथा शिक्षण की जटिलता को कम करने वाली संक्षिप्तीकृत कक्षा शिक्षण की तकनीक है ।" 

वी. एम. शोर के मत में : "सूक्ष्म शिक्षण कम समय, कम छात्रों तथा कम क्रियाओं वाली तकनीक है।"

मेक्लीज एवं अनविन के शब्दों में : "सूक्ष्म शिक्षण कृत्रिम वातावरण में शिक्षण का एक रूप है, जो शिक्षण की जटिलताओं को कम करता है तथा पृष्ठपोषण प्रदान करता है।" 

संक्षेप में सूक्ष्म शिक्षण तकनीक में सामान्य शिक्षण की प्रक्रिया की जटिलताओं को इस प्रकार से कम किया जाता है- 
  • पाठ्यवस्तु की लम्बाई एवं क्षेत्र को सूक्ष्म (छोटा) किया जाता है। 
  • पाठ पढ़ाने की अवधि को 40-45 मिनट से घटाकर केवल 5-7 मिनट का बनाकर छोटा किया जाता है।
  • कक्षा को भी 30-40 छात्रों की संख्या को घटाकर 5-10 छात्रों की कक्षा बनाकर छोटा किया जाता है। 
  • पाठ के शिक्षण में अनेक शिक्षण-कौशलों के स्थान पर एक ही शिक्षण कौशल पर बल दिया जाता है। 
संक्षेप में सूक्ष्म शिक्षण में पाठ्यवस्तु, पाठ पढ़ाने की समयावधि और छात्र संख्या को सूक्ष्म बनाया जाता है।

सूक्ष्म शिक्षण की आवश्यकता Need of Micro Teaching

सूक्ष्म शिक्षण, शिक्षण के नियन्त्रित अभ्यास की प्रणाली या तकनीक है, जिसमें प्रशिक्षणार्थी किसी विद्यालय विषय की इकाई के प्रकरण को एक शिक्षण-कौशल का प्रयोग कर कुछ छात्रों को अल्पावधि में पढ़ाता है। सूक्ष्म शिक्षण के द्वारा शिक्षण की जटिल प्रक्रिया को सरल क्रियाओं में विभक्तकर शिक्षक में शिक्षण-कौशलों का विकास किया जाता है। अन्त में सभी शिक्षण-कौशलों को क्रमश: जोड़कर प्रभावी रूप से शिक्षण करना सिखाया जाता है। 

अतः शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावी बनाने के लिये सूक्ष्म शिक्षण की आवश्यकता होती है।

सूक्ष्म शिक्षण के आधारभूत सिद्धान्त Fundamental Principles of Micro Teaching

अपनी पुस्तक, माइको टीचिंग : ए डिस्क्रिप्शन जो अमेरिका की स्टेनफोर्ड यूनिवर्सिटी का प्रकाशन है, में एलन और रियान ने सूक्ष्म शिक्षण को अग्रलिखित पाँच आधारभूत सिद्धान्तों पर आधारित बताया है- 
  1. सूक्ष्म शिक्षण वास्तविक शिक्षण है। 
  2. इसमें सामान्य कक्षा शिक्षण की जटिलताओं को कम कर दिया जाता है। जैसे - विषयवस्तु, शिक्षण अवधि एवं छात्र संख्या को कम करना। 
  3. इसमें एक समय में एक शिक्षण-कौशल के प्रशिक्षण पर बल दिया जाता है। 
  4. इसमें शिक्षण कौशल का वांछित अभ्यास कराया जाता है। 
  5. इसमें प्रतिपुष्टि का समुचित उपयोग किया जाता है। 

सूक्ष्म शिक्षण का महत्त्व Importance of Micro Teaching

सूक्ष्म शिक्षण का महत्त्व निम्नलिखित प्रकार है :
  • सूक्ष्म शिक्षण विभिन्न शिक्षण-कौशलों का प्रशिक्षण एवं अभ्यास सुगम एवं सम्भव बनाता है। 
  • इसमें शिक्षक का पूर्ण ध्यान एवं प्रयास एक समय में एक ही शिक्षण-कौशल पर केन्द्रित रहता है। 
  • यह शिक्षण की जटिलताओं को कम कर देता है। 
  • यह प्रशिक्षणार्थी के श्रम एवं समय दोनों की बचत करता है। 
  • यह व्यक्तिगत शिक्षण पर बल देता है। 
  • इसके द्वारा प्रशिक्षणार्थी अपने शिक्षण में सुधार करता है। 
  • इसमें प्रशिक्षणार्थी के सूक्ष्म पाठ का अन्य प्रशिक्षणार्थियों एवं पर्यवेक्षक, जो विषय विशेषज्ञ होता है, द्वारा समुचित अवलोकन कर उसे प्रतिपुष्टि दी जाती है। 
  • सूक्ष्म शिक्षण यदि भली-भाँति प्रयोग में लाया जाय तो यह प्रशिक्षणार्थियों का प्रभावी रूप से प्रशिक्षण करता है। 
  • यह अध्यापकों के लिये पूर्व सेवाकालीन शिक्षण एवं सेवाकालीन शिक्षण में वांछित सुधार लाने की दृष्टि से लाभदायक है। 
  • इसमें वीडियो टेप के प्रयोग से प्रशिक्षणार्थी स्वयं के शिक्षण का अवलोकन कर अथवा उसके बारे में अन्य प्रशिक्षणार्थियों से सुनंकर त्रुटि-निवारण प्रयास करते हैं।

शिक्षण कौशल की अवधारणा Need of Teaching Skills

शिक्षण कौशल को समझने से पूर्व 'कौशल' शब्द को यदि समझा जाय तो अधिक अच्छा रहेगा। कौशल का सम्बन्ध किसी क्षेत्र विशेष से ही हो, ऐसा बिल्कुल नहीं है। कौशलों का सम्बन्ध सभी क्रिया क्षेत्रों से है। जहाँ क्रियाएँ हैं, वहीं कौशल भी। 

शिक्षण भी एक ऐसा ही कार्य है जो किसी एक नहीं अनेकों सम्बन्धित क्रियाओं से जुड़ा है। कभी पाठ की प्रस्तावना करनी होती है तो कभी उसके क्लिष्ट अंशों को समझाना। इन क्रियाओं के लिये भी कई-कई युक्तियों का आश्रय लेना होता है। कहीं केवल प्रश्न पूछकर काम चल जाता है तो कहीं चित्र भी बनाने या दिखाने पड़ सकते हैं। 

पुनः इन क्रियाओं को तो सभी शिक्षक करते ही हैं। फिर भी, किसी शिक्षक का शिक्षण इतना नीरस होता है कि कुछ सुनने को या देखने तक को मन करता नहीं तो कुछ के कथन और सहायक साधनों का प्रदर्शन इतना प्रभावी होता है कि मन उन क्रियाओं को सुनने तथा देखने से हटता तक नहीं। इन्हीं का नाम है, शिक्षण कौशल। 

ये शिक्षण कौशल केवल कुछ प्रश्न पूछने, उदाहरण देने, दृष्टान्त सुनाने, चित्र दिखाने आदि तक ही सीमित नहीं। कक्षा में उपस्थित विद्यार्थियों को इस प्रकार व्यवस्थित ढंग से बिठाने कि वे सभी शिक्षक द्वारा कहे जाने वाले कथनों, दिखाये जाने वाले सहायक साधनों को सरलता से सुन तथा देख सकें आदि भी शिक्षण कौशल के अन्तर्गत आते हैं। यही नहीं पढ़ाते समय भी शिक्षक को अपनी दृष्टि केवल पुस्तक में ही नहीं; अपितु विद्यार्थियों पर भी रखनी ही होती है ताकि अनुशासन भंग न हो तथा उसकी प्रत्येक क्रिया को सुन, देख तथा समझकर छात्र सम्बन्धित पाठ की विषयवस्तु को न केवल समझे ही अपितु उसे आत्मसात् भी कर सकें।

इस प्रकार शिक्षण कौशल के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि शिक्षण कौशल शिक्षण-पूर्व अथवा वास्तविक शिक्षण के समय, शिक्षक द्वारा की जाने वाली वे समस्त क्रियाएँ तथा प्रक्रम है जो विषयवस्तु को विद्यार्थियों के अधिगम की दृष्टि से रुचिकर सरल तथा बोधगम्य बनाते हैं।

शिक्षण कौशल का अर्थ एवं परिभाषाएँ Meaning and Definitions of Teaching Skills

कक्षा में शिक्षक जो कुछ पढ़ाता है या जो कुछ बताता है या जिस प्रकार का व्यवहार करता है उसी को शिक्षण कौशल कहते हैं अर्थात् शिक्षण कौशल समान व्यवहारों का एक समूह है शिक्षण प्रक्रिया का निर्माण करते हैं। यदि शिक्षक आधारभूत शिक्षण कला में निपुण नहीं है तो वह छात्रों का उचित मार्गदर्शन करने और उनमें वांछित परिवर्तन लाने में सफल नहीं हो सकता। शिक्षक को शिक्षण कला में निपुण होने के लिये शिक्षण क्रिया के समय शिक्षक द्वारा प्रतिपादित व्यवहारों की जानकारी करके उनका अभ्यास करना नितान्त आवश्यक है। शिक्षण प्रक्रिया के समय शिक्षक द्वारा विभिन्न व्यवहारों का सम्पादन होता है। 

इस तरह के व्यवहारों को शिक्षण कौशल (Teaching skill) कहते हैं। प्रभावशाली शिक्षण के विभिन्न शिक्षण कौशलों का ज्ञान तथा उसकी पहचान करना एक कुशल शिक्षक के लिये महत्त्वपूर्ण कार्य है। इस सम्बन्ध में अनेक विद्वानों ने शिक्षण की प्रभावशीलता तथा शिक्षण के लिये विश्लेषण का अध्ययन किया और अपने दृष्टिकोण से शिक्षण कौशल को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित भी किया है,

मैकिन्टेयर तथा ह्वाइट के अनुसार, “शिक्षण कौशल सम्बद्ध शिक्षण व्यवहारों का वह स्वरूप होता है जो कक्षा की विशिष्ट अन्तः प्रक्रिया को उत्पन्न करता है जो शैक्षिक उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक होता है और छात्रों को सीखने में सुगमता प्रदान करता है।"

बी. के. पासी एवं ललिता के शब्दों में, "शिक्षण कौशल का तात्पर्य सम्बन्धित शिक्षण क्रियाओं तथा व्यवहारों के सम्पादन से है जो छात्रों को सीखने के लिये सुगमता प्रदान करने के उद्देश्य में किये जाते हैं।"

एन.एल. गेज के मतानुसार, "शिक्षण कौशल वह अनुदेशन प्रक्रियाएँ हैं जिन्हें अध्यापक अपनी कक्षा शिक्षण में प्रयोग करता है। यह शिक्षण क्रम की विभिन्न क्रियाओं से सम्बन्धित होता है जिन्हें शिक्षक अपने कक्षा अन्तःक्रिया में लगातार उपयोग करता है।" 

शिक्षण कौशल की विशेषताएँ Characteristics of Teaching Skills 

शिक्षण कौशल की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं- 
  • शिक्षण कौशल कक्षा शिक्षण व्यवहार की एक इकाई से सम्बन्धित हैं। 
  • शिक्षण कौशल के माध्यम से शिक्षक शैक्षिक विशिष्ट उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक होते हैं। 
  • शिक्षण कौशल छात्रों को सीखने में सहायता एवं सुगमता प्रदान करते हैं। 
  • शिक्षण कौशल द्वारा कक्षागत अन्तः प्रक्रिया की परिस्थिति पैदा की जाती है। 
  • शिक्षण कौशल शिक्षण क्रियाओं अथवा व्यवहारों से सम्बन्धित होते हैं। 
  • शिक्षण कौशल शिक्षण विधि को प्रभावी तथा सफल बनाते हैं।

शिक्षण कौशल का विकास Development of Teaching Skill 

शिक्षण कौशलों के विकास में मुख्य रूप से पाठ प्रस्तावना कौशल, प्रश्न पूछने तथा उत्तर प्राप्त करने का कौशल, शिक्षार्थी सहभागिता कौशल, शिक्षण अधिगम सामग्री के प्रयोग करने का कौशल तथा निष्कर्ष निकालने का कौशल आदि आते हैं। इन कौशलों में पारंगतता प्राप्त करना एक कुशल अध्यापक का प्रमुख दायित्व होता है। इन शिक्षण कौशलों के विकास के लिये अभीष्ट प्रयत्न करने पड़ते हैं। 

एक अध्यापक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये विभिन्न प्रकार के शिक्षण कौशलों को निम्नलिखित प्रकार से विकसित कर सकता है

पाठ प्रस्तावना कौशल Skill of Introducing a Lesson 

प्रस्तावना कक्षा में प्रथम कार्य है। पढ़ाने के लिये अध्यापक की प्रस्तावना अच्छी रही तो पाठ की सफलता सुनिश्चित हो जाती है। शिक्षण पाठ्यांश के वास्तविक शिक्षण से पूर्व उसकी प्रस्तावना करना आवश्यक है। जो कुछ पढ़ाया जाना है वह विषयवस्तु की दृष्टि से विद्यार्थियों के लिये अज्ञात है। इस अज्ञात अथवा अनसमझी बात को शिक्षक, अपने विद्यार्थियों को स्वतन्त्र रूप से भी बता सकता है और यह भी कर सकता है कि वह इस बात का पता लगाये कि विद्यार्थी क्या जानते हैं और क्या नहीं? जो कुछ विद्यार्थी जानते और समझते हैं उसी के माध्यम से नयी बात, अर्थात् पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु को उसके साथ जोड़ दिया जाय। 

ऐसा करने से न केवल समझायी जाने वाली विषयवस्तु सरलता से उनकी समझ में आ जाती है; अपितु उनकी पूर्व जानकारी के साथ इस प्रकार स्थायी रूप से जुड़ जाती है कि विद्यार्थी उसे प्रायः कम ही भूलते हैं। इस प्रकार विद्यार्थियों द्वारा पूर्वार्जित ज्ञान या जानकारी के माध्यम से नवीन या अनजानी जानकारी को जोड़ना ही पाठ की प्रस्तावना कहलाती है।  

प्रस्तावना का उद्देश्य यही है कि विद्यार्थियों के मन एवं मस्तिष्क में चल रहे विचारों को स्थान पर पढ़ाये जाने वाली विषयवस्तु से सम्बन्धित विचारों को स्थापित किया जाय। इस दृष्टि से पाठ की प्रस्तावना सदैव विद्यार्थियों की पूर्व जानकारी चित्र आदि पर आधारित सुनने की दृष्टि से रोचक तथा विचार करने की दृष्टि से विचार प्रधान होनी ही चाहिये। साथ ही पाठ की प्रस्तावना विद्यार्थियों में जिज्ञासा उत्पन्न करने वाली होनी चाहिये। 

यह जिज्ञासा किसी एक प्रकार से नहीं अपितु अनेकों प्रकार से की जा सकती है। प्रस्तावना पूर्व ज्ञान पर भी आधारित हो सकती है तो शिक्षण के विभिन्न साधनों का भी उपयोग किया जा सकता है।

पाठ की प्रस्तावना एक कला है और अच्छी प्रस्तावना करने वाला शिक्षक एक कलाकार बालक का ध्यान कई प्रकार से नया पाठ पढ़ाने के लिये तैयार किया जाता है; जैसे- प्रश्न पूछकर, विषय की व्याख्या करके कहानी सुनाकर, कविता सुनाकर, चित्र दिखाकर आदि।

प्रस्तावना कौशल के घटक- 

प्रस्तावना कौशल के घटक इस प्रकार हैं-
  • कथनों एवं प्रश्नों का छात्रों के पूर्व ज्ञान से सम्बन्ध। 
  • कथनों एवं प्रश्नों का मूल पाठ तथा उसके उद्देश्यों से सम्बन्ध। 
  • कथनों एवं प्रश्नों में शृंखलाबद्धत्ता। 
  • छात्र स्तर के उपयुक्त उपकरणों एवं साधनों का चयन एवं प्रयोग। 
  • उपयुक्त एवं समुचित अवधि विस्तार। 
  • छात्र ध्यान एवं रुचि आकर्षण। 
  • छात्रों को अभिप्रेरित करना। 
  • अध्यापक में उत्साह एवं सजगता।

उद्देश्य कथन कौशल Aim Statement Skill

किसी भी अर्थपूर्ण कार्य का सदैव कुछ उद्देश्य होता है। छात्रों को दी जाने वाली शिक्षा सोद्देश्य होती है और उसके प्रायोजन आरम्भ से ही सामने रखे जाते हैं। इन्हीं प्रायोजनों को शैक्षिक उद्देश्यों की संज्ञा दी जाती है। शिक्षा छात्रों के व्यवहार को इच्छित दिशा में परिवर्तित करने की प्रक्रिया है। इसी कारण इच्छित दिशा की ओर छात्रों के व्यवहार को मोड़ देने हेतु स्पष्ट संकेत निर्धारित करना वांछित है। 

बी. एस. ब्लूम ने शैक्षिक उद्देश्यों की व्याख्या करते हुए कहा है : "शिक्षण उद्देश्यों से तात्पर्य उन रीतियों के निर्माण से है, जिनसे शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से छात्रों के व्यवहार में निर्देशित परिवर्तन लाना सम्भव हो।"

प्रो. ब्लूम के नेतृत्व में अनेक प्रतिष्ठित शिक्षाविदों ने शिक्षा के व्यवहारगत उद्देश्यों का वर्गीकरण प्रस्तुत किया। शिक्षा के उद्देश्योंको तीन पक्षों में बाँटा गया : 
(1) ज्ञानात्मक पक्ष, 
(2) भावात्मक पक्ष, 
(3) क्रियात्मक पक्ष

1. ज्ञानात्मक पक्ष

इस श्रेणी के अन्तर्गत वे व्यवहारगत उद्देश्य आते हैं, जिनका सम्बन्ध ज्ञान के पुनर्निर्माण एवं पुनर्पहिचान और बौद्धिक क्षमताओं तथा कौशलों के विकास से होता है। ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों को निम्नलिखित वर्गों में रखा गया है और प्रत्येक वर्ग के उप-वर्ग भी दर्शाये गये हैं। यह निम्नलिखित प्रकार के होते हैं 
  1. ज्ञान:- परिभाषा, प्रत्यास्मरण, पहचान, सारणीकरण, विभेदीकरण, मापन
  2. बोध:- व्याख्या, संकेत, चयन, निर्णय, वर्गीकरण, सूत्र देना। 
  3. प्रयोगात्मक:- घोषणा, जाँचना, अनुमान, गणना, प्रदर्शन, प्रयोग।
  4. विश्लेषण:- विभाजन, तुलना, विभेदीकरण, आलोचना, सारांशीकरण, विरोध जता।
  5. संश्लेषण:- तर्क करना, वाद-विवाद, सामान्यीकरण, सम्बन्ध निर्माण, भविष्य वक्तव्य, स्तर प्रस्तुतीकरण।
  6. मूल्यांकन:- निर्णय लेना, निर्धारण, भूल्यांकन, प्रतिवादन, मानसिक अनुक्रमण, खोजना।

2. भावात्मक पक्ष

भावात्मक पक्ष के माध्यम से छात्रों की वांछित रुचियों, अभिरुचियों एवं परिबोध का निश्चित दिशाओं में विकास किया जाता है। इस पक्ष के भी छः वर्ग निम्नलिखित वर्ग होते हैं
  1. ग्राह्यता – स्वेच्छा से सुनना, पढ़ना एवं ग्रहण करना।
  2. अनुक्रिया – निर्देशित अपेक्षाओं का अनुसरण, उद्दीपन के प्रति क्रिया, रुचि एवं प्रतिभास की प्रतिक्रिया।
  3. अनुमूल्यन – ऐसी स्थितियों में जब उन पर कोई दबाव न हो तो किसी भी धारणा अथवा अभिरुचियों पर आधारित व्यवहार दर्शाइये।
  4. प्रत्ययीकरण – ग्रहण किये व्यवहार को इस प्रकार अपनाना कि जब आवश्यक हो उसी तरह की परिस्थितियों में वही व्यवहार किया जाये। 
  5. व्यवस्थीकरण – व्यवहार द्वारा प्रदर्शित करना कि निर्धारित मूल्यों के प्रति समर्पित हैं।
  6. मान्यीकरण – सम्पूर्ण व्यवहार में मूल्यों का अभ्यान्तरण करना। 

3. क्रियात्मक (मनोपक्षीय) पक्ष

इसके अन्तर्गत छात्रों के क्रियात्मक व्यवहार एवं कौशलों का विकास किया जाता है। इस पक्ष की श्रेणियों का विकास सबसे बाद में हुआ। क्रियात्मक पक्ष छात्रों में हाथों से किये जाने वाले व्यवहारों के क्रियात्मक कौशलों के विकास में एकमात्र माध्यम है। इस पक्ष में छः वर्ग निम्नलिखित होते हैं 
  1. अनुकरण : छात्र कौशल को देखकर दोहराने का प्रयत्न करते हैं और इसे दोहराते हैं।
  2. व्यवहार कौशल : निर्देशन के अनुरूप व्यवहार कौशल करना, बजाय देखकर अनुकरण करने के लिये । 
  3. सूक्ष्मता - सुस्पष्टता : मूल सूत्र से स्वतन्त्र कौशल की पुनर्रचना, परिशुद्ध सही माप और निश्चित स्वरूप पर आधारित है।
  4. सन्धियोजना : एक से अधिक कौशल को सन्धि कर क्रम से सुव्यवस्थित एवं संगति से प्रस्तुत करें। 
  5. सहजीकरण : एक या अधिक कौशल को सहजता से बिना किसी शारीरिक एवं मानसिक दबाव के पूर्ण कर सकता है।
  6. स्वभावीकरण : सभी व्यवहारगत कौशल सहजता से उच्चस्तरीय मानदण्ड तक करने का स्वभावीकरण । 

शैक्षिक उद्देश्य दो प्रकार के होते हैं-विषय अथवा इकाई के विशाल दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर निर्मित उद्देश्य सामान्य उद्देश्य कहलाते हैं। पाठ के विशिष्ट प्रायोजनों को ध्यान में रखते हुए बनाये गये उद्देश्य विशिष्ट उद्देश्य कहलाते हैं। 

उदाहरणार्थ - नागरिकशास्त्र के उद्देश्य हैं- छात्रों में सुनागरिकता के गुणों का विकास करना, यह सामान्य उद्देश्य है। पाठ में नागरिकता के विषय पर चर्चा हो तो पाठ उद्देश्य होगा- छात्र पाठ के अन्त में बता सकेंगे कि नागरिकता प्रदान करने की आवश्यक शर्तें क्या हैं ? यह विशिष्ट उद्देश्य होगा।

शैक्षिक उद्देश्य लेखन के घटक Components of Writing Instructional Objectives 

शैक्षिक उद्देश्य लेखन के घटक निम्नलिखित प्रकार हैं- 
  1. रगष्ट वर्णन? 
  2. अधिगम परिणाम की दृष्टि से पर्याप्त ? विषयवस्तु से सम्बन्धित? 
  3. विषयवस्तु की दृष्टि से पर्याप्त? 
  4. छात्रों के निष्पादित व्यवहारों का स्पष्ट विवरण एवं जाँच-योग्य? 
  5. ज्ञानात्मक पक्ष स्तर? 
  6. भावात्मक पक्ष स्तर? 
  7. क्रियात्मक पक्ष स्तर?

3. प्रश्न कौशल Skill of Questioning 

शिक्षण प्रक्रिया आदि काल से ही प्रश्न उत्तर के रूप में प्रारम्भ हुई थी और आज भी जिज्ञासु छात्र प्रश्न पूछता है तथा शिक्षक उसका उत्तर देता है। शिक्षक छात्र अधिगम की जाँच हेतु अथवा पाठ्यवस्तु के विषय में जिज्ञासा उत्पन्न करने हेतु प्रश्न पूछता है। प्रश्न पूछना एक आवश्यक शिक्षण कौशल है जिसे शिक्षक को सीखना चाहिये। प्रश्नों का संकलन अर्थपूर्ण होना चाहिये। यहाँ पर अर्थपूर्ण प्रश्नों का अर्थ है कि प्रश्नों के पूछने में संरचना, प्रक्रम और उत्पाद तीनों का ध्यान रखा जाना चाहिये।

प्रश्न पूछना तथा उनका उत्तर निकलवाना एक बहुत ही अधिक महत्त्वपूर्ण कौशल है। इसका सम्बन्ध केवल शिक्षण से ही नहीं अपितु मानव जीवन के प्रत्येक क्रिया क्षेत्र से है। कुशल अधिवक्ता प्रश्नों के माध्यम से सच को निकलवा लेता है तो कुशल मनोचिकित्सक या मार्गदर्शक व्यक्ति के मन में छिपी हुई बातों को तथा चयनकर्ता सम्बन्धित क्षेत्र की जानकारी को। शिक्षा एवं शिक्षण के क्षेत्र में भी प्रश्न कम महत्त्वपूर्ण नहीं। 

शैक्षणिक क्रियाओं की दृष्टि से कभी प्रश्न विद्यार्थियों का ध्यान विषयोन्मुख करने की दृष्टि से प्रस्तावना के रूप में पूछे जाते हैं तो कभी किसी अध्ययन बिन्दु के विकासार्थ उस अंश को समझाने की दृष्टि से और कभी मूल्यांकन के रूप में यह जानने हेतु कि पाठ्यांश की विषयवस्तु किस सीमा तक विद्यार्थियों की समझ में आ रही है? 

शैक्षणिक क्रियाओं को करते समय प्रश्न पूछने में शिक्षक को कक्षा के शैक्षिक स्तर, विद्यार्थियों की बौद्धिक क्षमता आदि बहुत सी बातों का ध्यान रखना पड़ता है। कभी उसे अति सरल प्रश्न पूछने पड़ते हैं तो कभी ऐसे विचारोत्तेजक (Thoughtstimulating ) प्रश्न जिनका उत्तर बहुत सोचने के पश्चात् ही दिया जा सकता है। कभी प्रश्न विद्यार्थियों की सामान्य जानकारी पर आधारित होते हैं तो कभी पठित अंश पर।

प्रश्न पूछने के उद्देश्य Aims of Questioning

शिक्षण से सम्बन्धित प्रश्न पूछने के उद्देश्य निम्नलिखित हैं- 
  • विद्यार्थियों के पूर्व ज्ञान का पता लगाना जिससे वे पाठ के विकास में सहयोग दे सकें। 
  • विद्यार्थियों का ध्यान पाठ पर केन्द्रित करना। 
  • विद्यार्थियों को उत्तर देने हेतु प्रेरित करना।
  • नवीन जानकारी अथवा ज्ञान-ग्रहण हेतु पाठ में छात्रों की जिज्ञासा उत्पन्न करना।
  • विद्यार्थियों की कल्पना एवं तर्क-शक्ति का विकास करना। 
  • विद्यार्थियों प्रश्नों के उत्तर देने में भाषा सम्बन्धी कुछ अशुद्धियाँ हों तो उनका आधार संगत ढंग से निवारण करना।
  • विद्यार्थियों की कठिनाइयों आदि का पता लगाना जिससे उनका निवारण किया जा सके। 
  • शिक्षण में सजीवता एवं रोचकता लाना। 
  • विद्यार्थियों की संकोचशीलता को दूर करना। 

प्रश्नों के प्रकार Types of Questions

प्रश्न उत्तर की निश्चितता, अनिश्चितता, उत्तर की लम्बाई आदि की दृष्टि से सामान्यतया तीन प्रकार के होते हैं 
  1. निबन्धात्मक : इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर की न तो कोई निश्चितता ही होती है और न ही कोई शब्द सीमा आदि।
  2. लघुत्तरात्मक : इनका उत्तर पूरी तरह निश्चित न होते हुए भी बहुत कुछ निश्चित होता है। शब्द-सीमा के आधार पर इनका उत्तर एक वाक्य में भी हो सकता है तो 50, 100, 150 आदि शब्दों की सीमा से बँधा हुआ भी। 
  3. वस्तुनिष्ठात्मक : वस्तुनिष्ठ शब्दों का उत्तर केवल एक शब्द तक ही सीमित रहता है। 
यदि एक अच्छे मूल्यांकन परीक्षण की कसौटी पर कसा जाय तो जहाँ निबन्धात्मक प्रश्नों में उत्तर की अनिश्चितता के साथ-साथ अच्छे परीक्षण के विशिष्ट गुणों में से एक भी गुण नहीं पाया जाता, किन्तु अभिव्यक्ति अवश्य होती है। इसके ठीक विपरीत वस्तुनिष्ठ प्रश्नों में अच्छे परीक्षण के तो लगभग सभी गुण होते हैं परन्तु इनमें अभिव्यक्ति नहीं होती है। लघुत्तरात्मक प्रश्नों में जहाँ एक ओर अभिव्यक्ति भी होती और दूसरी ओर उत्तर की पूर्णतया निश्चितता न होते हुए भी कुछ निश्चितता होती है। 

इस प्रकार शिक्षण की दृष्टि से प्रश्न ऐसे अधिक हों जिनका उत्तर पूरे वाक्यों में हो; जिससे उनकी अभिव्यक्ति का भी परीक्षण किया जा सके तथा वाक्य रचना की दृष्टि से यदि कोई अशुद्धि हो तो उसे भी शुद्ध किया जा सके। इस दृष्टि से शिक्षण के प्रश्न यथासम्भव लघुत्तरात्मक ही होने चाहिये क्योंकि
  • लघुत्तरात्मक प्रश्न अभिव्यक्ति प्रधान होते हैं। 
  • व्याख्या सम्बन्धी प्रश्न विद्यार्थियों से पूछकर उनकी कल्पना एवं चिन्तन क्षमता को विकसित किया जा सकता है। 
  • प्रश्नों के उत्तर अभिव्यक्ति प्रधान होने के कारण वाक्य संरचना सम्बन्धी उनकी अशुद्धियों को सुधारा जा सकता है। 
  • यदि वाक्य संरचना में किसी अनुपयुक्त शब्द का प्रयोग किया गया है तो उसे भी शुद्ध करके शब्द के सही अर्थ से उन्हें अवगत कराया जा सकता है। 
  • शिक्षण एवं कक्षागत परीक्षण में ऐसे लघुत्तरात्मक प्रश्न न पूछे जायें जिनका उत्तर बहुत लम्बा हो। 
  • यह भी नियम नहीं बनाया जाय कि वस्तुनिष्ठ प्रश्न पूछने ही नहीं हैं। 

शुद्ध एवं सामाजिक विज्ञानों के विभिन्न विषयों में जहाँ आँकड़ों अथवा तथ्यों पर प्रश्न पूछना अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाय वहाँ वस्तुनिष्ठ प्रश्न भी पूछे जा सकते हैं, किन्तु यदि विद्यार्थी उनका सही उत्तर एक ही शब्द में दे देते हैं तो उन्हें इस बात के लिये बाध्य न किया जाय कि जिस प्रश्न का उत्तर एक शब्द में ही सही-सही दिया जा सकता है उसका भी उत्तर वे पूरे वाक्य में दें; यथा- किसी राजा का जन्म, गद्दी पर बैठना, घटनाओं का काल आदि पूछना। कोई सूत्र, किसी वैज्ञानिक का नाम, जन्म आदि पूछना। किसी कवि या साहित्यकार का जन्म, उसकी कृतियों आदि का नाम पूछना।

प्रश्न कौशल का घटक

सूक्ष्म शिक्षण पाठ योजना प्रारूप

सूक्ष्म-शिक्षण-पाठ-योजना-प्रारूप
सूक्ष्म शिक्षण पाठ योजना प्रारूप

इसमे प्रश्न कौशल के निरीक्षण प्रपत्र तीन होंगे :
  1. प्रश्नों की संरचना
  2. प्रश्नों का प्रस्तुतीकरण
  3. प्रश्नों का वितरण

प्रश्नों की संरचना

प्रश्नों-की-संरचना
प्रश्नों की संरचना

प्रश्नों के उत्तर प्राप्त करना Receiving Answers

प्रश्न पूछना एक कौशल है तो उत्तर प्राप्त करना भी उसके कम कुशलता का परिचायक नहीं। कुछ शिक्षक, पहले किसी विद्यार्थी को खड़ा करके फिर उससे प्रश्न पूछते हैं। ऐसा करना बिल्कुल ठीक नहीं, क्योंकि ऐसी स्थिति में वही विद्यार्थी प्रश्न का उत्तर सोचता है जिसे खड़ा किया गया है किन्तु शिक्षण का उद्देश्य है सभी विद्यार्थियों को मानसिक एवं बौद्धिक रूप से सक्रिय रखना। इस दृष्टि से प्रश्न पूछते समय शिक्षक को ध्यान में रखना चाहिये कि
  • प्रश्न सभी विद्यार्थियों से पूछा जाय, किसी एक से नहीं।
  • जब सभी सोचने लगें तो. उनसे हाथ उठाने को कहा जाय जो उत्तर दे सकते हैं। 
  • प्रश्न का उत्तर उससे प्रायः कम पूछा जाय जो प्रतिदिन बड़ी जल्दी उत्तर दे देते हैं। 
  • यदि विद्यार्थी सही उत्तर देते हैं तो उनकी थोड़ी प्रशंसा भी की जाय, परन्तु अत्यधिक नहीं।  
  • यदि कोई विद्यार्थी गलत उत्तर दे तो उसे गलत न कहकर उसके सही उत्तर को उन्हें बता दें। 
  • सही उत्तर को पुनः उन विद्यार्थियों से पूछे जो उत्तर देने में प्राय: संकोच करते हैं। ऐसे करने से उनके संकोच में कमी आयेगी। 
  • अन्त में किसी भी बात को नियम या औपचारिक न बनाएँ; अपितु सब कुछ सहज रूप में चलना चाहिये।

4. व्याख्यान कौशल Explaination Skill

विषय को ग्राह्य एवं सरल बनाने हेतु शिक्षक जिस कौशल का प्रयोग करता है, उसे व्याख्या कौशल कहते हैं। व्याख्या को निम्नलिखित प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है। "किसी घटना, संप्रत्यय, सिद्धान्त या तथ्य को, किसी व्यक्ति को समझाने की दृष्टि से अनेक परस्पर सम्बन्धित कथनों का प्रयोग करना पड़ता है, यही व्याख्या है।"
व्याख्या का उद्देश्य है विषयवस्तु की गूढ़ता समाप्त कर उसे सरल बोधगम्य बनाना, जिससे छात्र उसे आसानी से समझ सकें।

व्याख्या कौशल के घटक (Components of Skill of Explaining) 

व्याख्या कौशल को प्रभावी रूप से प्रदर्शित करने हेतु कुछ व्यवहार ऐसे हैं, जिनका प्रयोग किया जाना चाहिये, जो व्यवहार वांछनीय व्यवहार कहलाते हैं। इसके ठीक विपरीत कुछ व्यवहार ऐसे होते हैं, जिनका प्रयोग व्याख्या में बाधक होता है। ऐसे व्यवहार अवांछनीय व्यवहार कहलाते हैं। नीचे व्याख्या कौशल के घटकों को सूचीबद्ध किया गया है 

SN.वांछनीय घटक (Desirable Components)अवांछनीय घटक (Undesirable Components)
1.स्पष्ट प्रारम्भिक कथन देना (Clear Begining Statement)असम्बद्ध कथनों का प्रयोग (Using Irrelevent Statement)
2.स्पष्ट उपसंहारात्मक कथन देना (Clear Concluding Statement)निरन्तरता की कमी (Lack of Continuity)
3.जोड़ने वाली कड़ियों का प्रयोग जो कथनों को आपस में जोड़ती हैं। (Use of Explaning Links which they are attached of statements)धारा प्रवाहिता का अभाव (Lacking of Fluency)
4.मुख्य बिन्दुओं का समावेश (Inclusion of Essential Points)अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग (Using of Inappropriate Vocabulary)
5.छात्रों के जाँच हेतु बोधात्मक प्रश्न पूछना (Testing Students Understanding)
6.दृश्यों का उपयोग (Use of Visuals)
7.तकनीकी शब्दों को परिभाषित करना (Defining the Technical Terms)

व्याख्या कौशल-पाठ योजना

व्याख्या कौशल-पाठ योजना
विषय : अर्थशास्त्र
प्रकरण (Topic) : पूँजीवाद के दोष
कौशल (Skill) : व्याख्या कौशल
दिनांक :
अवधि : 6 मिनट
कक्षा : 11 वीं
शिक्षक व्यवहारछात्र व्यवहारघटक
छात्रों, आज हम पूँजीवाद के दोषों के बारे में पढ़ेंगे।
पूँजीवाद के निम्न लिखित तीन दोष हैं :
(1) वर्ग संघर्ष।
(2) सामाजिक एवं आर्थिक असमानता।
(3) सम्पत्ति पर अधिकार (श्यामपट्ट पर तीनों बिन्दु लिखता है)।

आइये सर्वप्रथम हम पढ़ें कि पूँजीवाद का पहला दोष क्या है?
पूँजीवाद का पहला दोष है वर्ग संघर्ष। वर्ग संघर्ष से तात्पर्य है, दो वर्गों के बीच कटुता एवं लड़ाई। पूँजीवाद में समाज पूँजीपति एवं श्रमिक, दो वर्गों में विभाजित हो जाता है। दोनों वर्ग अपने-अपने हितों के लिये संघर्ष करते हैं। परिणाम स्वरूप अशांति फैलती है।
इस प्रकार आपने पूँजीवाद का एक दोष पढ़ा वर्ग संघर्ष।

प्रश्न : वर्ग संघर्ष का उदाहरण दीजिये।

ठीक है, आइये अब पूँजीवाद का दूसरा दोष पढ़ें।

पूँजीवाद का दूसरा दोष है सामाजिक एवं आर्थिक असमानता। पूँजीवाद में विकसित अर्थतन्त्र के कारण निर्धनता अधिक पायी जाती है। यद्यपि उत्पादन की विकसित तकनीक से उत्पादन तो बढ़ता है।
परन्तु निर्धनता के कारण क्रय-शक्ति कम हो जाती है। इस कारण से लोग उत्पादन वृद्धि का लाभ नहीं उठा पाते। परिणामस्वरूप एक वर्ग शोषक एवं दूसरा शोषित हो जाता है। यही से आर्थिक असमानता का प्रारम्भ होता है।

प्रश्न : बताइये उत्पादन वृद्धि में लोगों की निर्धनता के कारण क्रय-शक्ति क्यों नहीं बढ़ती है?

इस प्रकार आपने पूँजीवाद के दो दोषों के बारे में पढ़ा।
प्रश्न : बताइये ये दो दोष कौन से हैं?








जब फैक्टरी के मालिक मजदूरों को बोनस नहीं देते तो मजदूर हड़ताल करते हैं।






उ. लोगों को निर्धनता के कारण।
उ. वर्ग संघर्ष सामाजिक एवं आर्थिक असमानता।
प्रारम्भिक कथन ।

दृश्य साधन का प्रयोग ।
प्रारम्भिक कथन ।
जोड़ने वाली कड़ी


जोड़ने वाली कड़ी।

उपसहारात्मक कथन।

मुख्य बिन्दु का समावेश

प्रारम्भिक कथन।
जोड़ने वाली कड़ी
बोधात्मक प्रश्न।
उपसंहारात्मक कथन। बोधात्मक प्रश्न
मुख्य बिन्दु का समावेश

व्याख्या कौशल के पाठ का मूल्यांकन

व्याख्या कौशल के पाठ का मूल्यांकन (Evaluation of Lesson of Explaining Skill)
व्याख्या कौशल : निरिक्षण तालिका
छात्राध्यापक का नाम :
अवधि :
प्रकरण :
कक्षा :
SN.घटकवांछनीय (Dsirable)टेली अवांछनीय (Undsirable)
वांछनीय व्यवहार
1.स्पष्ट प्रारम्भिक कथन का प्रयोग किया गया।
2.स्पष्ट उपसंहारात्मक कथन का प्रयोग किया गया।
3.विचारों एवं कथनों को जोड़ने वाली कड़ियों का समुचित प्रयोग किया गया।
4.छात्रों की जाँच हेतु बोधात्मक प्रश्न पूछे गये।
5.व्याख्या के मुख्य बिन्दुओं का समावेश था।
6.तकनीकी शब्दों को परिभाषित किया गया।
अवांछनीय व्यवहार
1.निरन्तरता की कमी।
2.धाराप्रवाह का अभाव।
3.अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग।
4.व्याख्या में असम्बद्धता।

व्याख्या कौशल : निर्धारण मापनी

व्याख्या कौशल : निर्धारण मापनी
SN.घटक12345
वांछनीय व्यवहार
1.प्रारम्भिक कथन का प्रयोग।
2.उपसंहारात्मक कथन का प्रयोग।
3.जोड़ने वाली कड़ियों का प्रयोग।
4.मुख्य बिन्दुओं का समावेश ।
5.तकनीकी शब्दों की परिभाषा।
6.बोधात्मक प्रश्न पूछना।
अवांछनीय व्यवहार
1.असम्बद्ध कथनों का प्रयोग।
2.धारा प्रवाहिता।
3.अनुपयुक्त शब्दों का प्रयोग।
4.निरन्तरता।

5. दृष्टान्त कौशल Illustrating Skill 

छात्रों को अनेक बार अमूर्त विचारों अथवा संप्रत्यय के विषय में समझाना बहुत कठिन हो जाता है। ऐसी स्थिति में स्पष्ट रूप से तथा साधारणतया रुचिपूर्ण तरीके से छात्रों को यह भाव, विचार अथवा संप्रत्यय समझाने हेतु उदाहरणों एवं दृष्टांतों का प्रयोग किया जाता है। इस कौशल में विचार या संप्रत्यय का विवरण एवं व्याख्या होती है, जिसमें उदाहरण एवं दृष्टान्त का यथास्थान उपयोग किया जाता है। 

अध्यापक को दृष्टान्त कौशल में पारंगत होने हेतु निम्नलिखित क्षमताएँ उत्पन्न करनी होंगी- 
  • विचार, सम्प्रत्यय अथवा सिद्धान्त पर आधारित उपयुक्त या दृष्टान्त तैयार कर सके। 
  • दृष्टान्त छात्रों को प्रभावशाली ढंग से बता सके। इसके लिये अध्यापक को जाँच प्रश्न पूछने पड़ेंगे।
दृष्टान्त ऐसे होने चाहिये, जो आसानी से समझ में आ सकें, प्रासंगिक हों और छात्रों को रुचिकर लगे एवं बोधगम्य हों। इस हेतु इनके लिये उपयुक्त माध्यम का उपयोग भी आवश्यक हो जाता है। दृष्टान्तों या उदाहरणों में प्रस्तुतीकरण हेतु निम्नलिखित माध्यमों का उपयोग किया जाता है:-

अशाब्दिक माध्यम

अशाब्दिक माध्यम के अन्तर्गत प्रमुख साधन इस प्रकार हैं
  1. वास्तविक वस्तुओं का प्रदर्शन - वास्तविक वस्तुओं को उदाहरणस्वरूप दिखाया जा सकता है, जैसे-फूल, पत्ते, पम्प एवं थर्मामीटर आदि दिखाकर अपनी बात समझायी जाये, यह वस्तुएँ दिखाकर प्रश्नों द्वारा सिद्धान्त या सम्प्रत्यय का स्पष्टीकरण किया जा सकता है।
  2. मॉडल -ऐसे आदर्श या मॉडल तैयार किये जाते हैं, जिनके माध्यम से किसी विचार, सम्प्रत्यय और सिद्धान्त की दृष्टान्त द्वारा व्याख्या की जाती है। यह मॉडल वास्तविकता की प्रतिकृति होते हैं। ऐसे मॉडल, जिनके विभिन्न खण्ड अलग कर एक-एक भाग की सहायता से मुख्य सम्प्रत्यय को समझाया जा सके, बहुत लाभदायक होते हैं।
  3. चित्र - जब वास्तविक वस्तु उपलब्ध न हो तब उसके चित्रों द्वारा उसके विषय में व्याख्या की जा सकती है। चित्र कक्षा में आसानी से लाया एवं दिखाया जा सकता है मौखिक विवरण से यह अधिक लाभप्रद होता है। 
  4. मानचित्र एवं रेखाचित्र - इतिहास, भूगोल एवं विज्ञान पढ़ाने में रेखाचित्र एवं मानचित्र बहुत उपयोगी होते हैं। इनकी सहायता से पाठ के मुख्य बिन्दुओं की व्याख्या की जा सकती है। अध्यापक ऐसे रेखाचित्र श्यामपट्ट पर बना सकते हैं और व्याख्या करने में उनका उपयोग किया जा सकता है। पोस्टर भी प्रस्तुत किये जा सकते हैं।
  5. प्रायोगिक प्रदर्शन - विज्ञान, प्रकृति अध्ययन और भूगोल प्रदर्शन से विषय को स्पष्ट एवं प्रभावशील रूप से समझाने में बहुत सहयोग मिलता है और इससे नियम या सिद्धान्त को वास्तविक प्रक्रिया द्वारा स्पष्ट किया जाता है।

शाब्दिक माध्यम

शाब्दिक माध्यम में अध्यापक मौखिक उदाहरण, कहानी, घटनाओं तथा चुटकुले कहकर अपने तथ्य को छात्रों को समझाता है। सादृश्य, तुलना एवं विपरीत भाव के उदाहरण भी प्रस्तुत किये जाते हैं। अध्यापक किसी सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए छात्रों के पूर्व अनुभवों पर प्रश्न पूछ- पूछ कर उनके उत्तरों से सहयोग लेते हैं तो यह कृत्य भी शाब्दिक माध्यम के अन्तर्गत आते है।

दृष्टान्त कौशल में शाब्दिक एवं अशाब्दिक दोनों प्रकार के उदाहरणों का उपयोग करने की दो विधियाँ हैं 
  1. आगमन विधि : इस विधि में अध्यापक विभिन्न उदाहरण देते हुए सिद्धान्त अथवा सम्प्रत्यय का स्पष्टीकरण करता है और इस आधार पर परिणामों एवं निर्गमों की व्याख्या करता है।
  2. निगमन विधि : इस विधि में अध्यापक पहले सम्प्रत्यय अथवा सिद्धान्त बताता है, फिर सम्बन्धित उदाहरणों एवं दृष्टान्तों के माध्यम से उसकी व्याख्या करता है।

दृष्टान्त कौशल के घटक

दृष्टान्त कौशल के घटक निम्नलिखित हैं :
  1. उदाहरण या दृष्टान्त सुगम हों - ऐसे उदाहरण जो छात्रों की आयु, ज्ञान एवं अनुभव से मेल खायें उनको समझने में कठिनाई न हो। 
  2. प्रत्यय प्रासंगिकता - दृष्टान्त/उदाहरण विचार, नियम अथवा सम्प्रत्यय से सम्बन्धित हों और उसे स्पष्ट करने में सहायक हों। 
  3. रोचकता - ऐसे दृष्टान्त जो छात्रों की जिज्ञासा और अभिरुचि को जागृत करें, जिससे वे मनोयोग से विषय को समझ पायें। स्वाभाविक है कि दृष्टान्तों/उदाहरणों का चयन सावधानी से किया जाये और यदि इनमें मनोरंजन का भी पुट हो तो वे अधिक सफल होंगे। छात्रों की आयु, उनकी परिपक्वता और उनके मनोवैज्ञानिक स्तर को ध्यान में रखना बहुत आवश्यक है।
  4. उपयुक्त माध्यम - दृष्टान्तों को उचित एवं अधिक प्रभावशील माध्यम शाब्दिक अथवा अशाब्दिक के द्वारा प्रस्तुत किया जाना चाहिये। इससे इनका प्रभाव अधिक एवं स्थायी होता है। 
  5. उपयुक्त विधियाँ - उदाहरणों के उपयोग की दोनों विधियों आगमन एवं निगमन का कक्षा में सम्प्रत्यय अथवा सिद्धान्त की दृष्टि से चयन कर उपयोग करना चाहिये। 

दृष्टान्त कौशल पर आधारित पाठ योजना

दृष्टान्त कौशल पर आधारित पाठ योजना (Lesson Plan for Illustrating with Examples)
विषय (Sub.) : विज्ञान
Topic : पदार्थ की अवस्थाएँ
कौशल (Skill) : दृष्टान्त कौशल
दिनांक (Date):
कक्षा (Class) : 7th
समय (Time) : 5 Min.
SN.शिक्षक व्यवहार (Teacher Behaviour)छात्र व्यवहार (Pupil Behaviour)घटक (Components)
1.पदार्थ कितनी अवस्थाओं पाया जाता है।पदार्थ तीन अवस्थाओं में पाया जाता है।रोचकता
2.कौन-कौन सी ?ठोस, द्रव, गैसप्रत्यय प्रासंगिकता
3.बर्फ को गर्म करने से क्या होता है ?बर्फ पानी में बदल जाती है।दृष्टान्त सुगम
4.बर्फ ठोस पदार्थ है। सामान्य ताप पर पानी किस अवस्था में रहता है ?पानी द्रव अवस्था में रहता है।प्रत्यय प्रासंगिकता
5.इस प्रकार के ठोस से द्रव में बदलने के कुछ और उदाहरण बताओ ?1. घी गर्म करने पर द्रव बन जाता है।, 2. मोम पिघल कर तरल बन जाता है।दृष्टान्त सुगम
6.द्रव मोम को ठण्डा करने पर क्या होता है ?मोम ठोस पदार्थ में बदल जाता है।रोचकता
7.घी को गर्म करने पर द्रव बनता है, जिसे ठण्डा कर पुनः ठोस घी बन जाता है। इसी प्रकार का अन्य कोई उदाहरण दें।बर्फ गर्मी पाने पर द्रव बन जाती है और इस द्रव पानी को ठण्डा करने पर पुन: बर्फ बन जाती है।उपयुक्त माध्यम
8.आप उपरोक्त उदाहरणों से क्या निष्कर्ष निकालते हैं ?गर्म एवं ठण्डा करने पर पदार्थ की अवस्था में परिवर्तन होता है।उपयुक्त विधियाँ

दृष्टान्त कौशल पाठ का मूल्यांकन

दृष्टान्त कौशल पाठ का मूल्यांकन निम्नलिखित प्रकार से किया जाता है :
1. निरीक्षण तालिका (Observation Table) : छात्राध्यापक पाठ के समय जिस घटक का जितनी बार प्रयोग करता है। उतनी बार उस घटक के समझ टैली लगायी जाती है। यदि घटक का प्रयोग उचित नहीं किया गया है, तब टैली को अवांछनीय स्तम्भ में लगायें।

SN.घटक (Components)वांछनीयअवांछनीय
1.उदाहरण या दृष्टान्त सुगम थे
2.प्रत्यय प्रासंगिकता
3.रोचकता
4.उपयुक्त माध्यम
5.उपयुक्त विधियाँ

2. दृष्टान्त कौशल निर्धारणमापनी (Illustration Skill Rating Scale) : इससे पता चलता है कि छात्रों ने दृष्टान्त कौशल का उपयोग किस सीमा तक सफलता से किया है? अंक 1 न्यूनतम सफलता एवं अंक: अधिकतम् सफलता को दर्शाता है। अंक पर वृत्त बनाना होता है।

SN.घटक (Components)न्यूनतम् (Minimum)अधिकतम् (Maximum)
1.उदाहरण या दृष्टान्त सुगम थे1234567
2.प्रत्यय प्रासंगिकता1234567
3.रोचकता1234567
4.उपयुक्त माध्यम1234567
5.उपयुक्त विधियाँ1234567

6. छात्र सहभागिता कौशल Student's Participation Skill 

अध्ययन अध्यापन संस्थितियों में शिक्षक के साथ-साथ शिक्षार्थियों की मानसिक, बौद्धिक तथा क्रियात्मक सक्रियता ही छात्र सहभागिता है। शिक्षा के उद्देश्यों की दृष्टि से यदि देखा जाय तो शिक्षा का उद्देश्य, विद्यार्थियों के व्यवहार में वांछित परिवर्तन लाना है और यह तभी सम्भव है जब अधिगमार्थी का मन किसी बात को जानना, समझना तथा सीखना चाहे तथा बौद्धिक एवं शारीरिक क्रियाएँ तदनुरूप हों। अतः मन, बुद्धि तथा क्रियाओं की दृष्टि से छात्र सहभागिता, अधिगम का एक आवश्यक अंग है। अब प्रश्न उठता है कि छात्र सहभागिता को कैसे बढ़ावा दिया जाय?

शिक्षण के अन्तर्गत किसी भी पाठ को समझाते समय छात्र सहभागिता को बढ़ाने के लिये विचार प्रधान प्रश्न सर्वोत्तम साधन हैं। शिक्षक जो भी प्रश्न पूछे उनका सम्बन्ध छात्रों द्वारा दिये जाने वाले उत्तर की विचार प्रधानता से होना चाहिये। इस दृष्टि से शिक्षक, छात्र सहभागिता को दो प्रकार से बढ़ा सकता है
  1. प्रथम तो वह किसी भी विषय की जिस विषयवस्तु को कक्षा में रहा है, उसमें जो भी तथ्य, कठिन वाक्यांश अथवा वाक्य आये हैं, उनको अपनी ओर से बताने या समझाने से पूर्व, विद्यार्थियों से ही पूछे कि उस अंश का अर्थ क्या है अथवा ऐसा क्यों किया गया ? यदि इसके स्थान पर ऐसा किया जाता तो क्या अन्तर आता ? अमुक बात या शासन व्यवस्था अथवा निर्णय किन-किन अर्थों में अमुक व्यवस्था से भिन्न या समान है आदि। शुद्ध विज्ञानों के क्रिया-प्रधान पाठों, विशेषकर गृह-विज्ञान में खाना बनाना, कढ़ाई, बुनाई आदि सिखाते समय तथा रसायन-विज्ञान में गैस बनाने की प्रक्रिया समझाते समय-यह पूछना कि ऐसा ही करना क्यों आवश्यक है? किसी गैस-जार में गैस एकत्रित करने हेतु जार को पानी भरकर उल्टा रखने का क्या कारण हो सकता है आदि ?
  2. द्वितीय प्रकार से छात्र सहभागिता को बढ़ावा देने हेतु शिक्षक पढ़ाये जाने वाले अंश को कक्षा में वहीं पढ़ने अथवा घर से पढ़कर लाने के लिये यह निर्देश देकर कह सकता है कि पाठ को पढ़कर समझें और यदि कोई बात समझ में न आये तो पूछें। ऐसा करने में समय अधिक लगने की सम्भावना है। अत: यह भी किया जा सकता है कि पाठ को समझाने के पश्चात् छात्रों को कहा जाय कि वे अपनी शंकाओं को खुलकर पूछें। यही नहीं, कुशल शिक्षक अनेकों रूपों में शिक्षण के समय छात्र सहभागिता को बढ़ा सकता है, बशर्ते कि वह ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर देने में स्वयं भी सक्षम हो।

इस प्रकार शिक्षण में छात्रों की सहभागिता को प्रत्येक विषय में बढ़ावा दिया जा सकता है। शिक्षक प्रशिक्षण का मूलोद्देश्य भी यही है कि किसी भी पाठ को छात्रों का समझाते समय उन्हें मानसिक एवं वौद्धिक दोनों ही रूप से अधिक से अधिक सक्रिय रखा जाय तथा उन्हीं के द्वारा पाठ का विकास कराया जाय जिससे वे अधिक से अधिक सीख सकें। शिक्षक तो केवल उनकी शंकाओं के निवारण कर्त्ता समस्याओं का समाधान कर्त्ता तथा मार्गदर्शक के रूप में कार्य करे।

7. उद्दीपन परिवर्तन कौशल Stimulus Variation Skill 

यदि शिक्षण को प्रभावी तथा अधिगम को अधिकतम बनाना है तो शिक्षक को चाहिये कि वह जिन शब्दों अथवा अशाब्दिक शारीरिक क्रियाओं का उपयोग विद्यार्थियों की पाठ को समझाने के लिये भावनाओं एवं क्रियाओं को उद्दीप्त करने हेतु कर रहा है, उनमें यान्त्रिकता या अभ्यस्त शब्दों के अधिकतम प्रयोग से यथासम्भव दूर रहे अर्थात् प्रसंग एवं परिस्थिति के अनुरूप जहाँ, जो उद्दीपक सर्वाधिक प्रभावी सिद्ध हो उसी का उपयोग करे। इसी का नाम है उद्दीपन परिवर्तन (Stimulus variation)। 

इस दृष्टि से भी शिक्षक को अपनी निजी क्रियाओं के साथ ही साथ ऐसे साधनों का उपयोग करना चाहिये जो उस प्रसंग को समझाने हेतु सर्वाधिक उपयुक्त प्रतीत हो । ऐसा करने से भी स्वतः ही उद्दीपन परिवर्तन भी होगा तथा पाठ की विषयवस्तु भी सरलता से समझ में आ जायेगी। इस दृष्टि से कह सकते हैं कि-पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु को समझाने हेतु, विद्यार्थियों की मानसिक एकाग्रता तथा वौद्धिक सक्रियता को उद्दीप्त करने की दृष्टि से शिक्षक द्वारा 'स्व' एवं 'सह' दृश्य एवं श्रृव्य क्रियाओं में प्रसंग एवं परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तन करते रहना ही उद्दीपन परिवर्तन है। 

शिक्षण की सफलता का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि छात्रों का ध्यान आकर्षित करने के लिये तथा ध्यान को पाठ में लगाये रखने के लिये शिक्षक अपने व्यवहारों में जान-बूझकर परिवर्तन लाता है। इसे ही उद्दीपन परिवर्तन कौशल कहते हैं। शिक्षण में रोचकता लाने के लिये शिक्षक अनेक प्रकार के उद्दीपनों का प्रयोग करता है; जैसे- श्यामपट्ट पर लिखना या श्यामपट्ट के पास आना, छात्रों के बीच जाकर प्रश्न पूछना, अपने चेहरे के हाव-भाव बदलकर अपनी बात कहना, हाथ के इशारे से सहायक सामग्री का प्रयोग करना आदि। 

सी. पी. आर. भटनागर के अनुसार : एक अच्छा शिक्षक सदैव प्रभावशाली शिक्षण के लिये उद्दीपन परिवर्तन कौशल का प्रयोग करता है। कक्षा में पढ़ाते समय शिक्षक को एक स्थान पर खड़े न होकर आवश्यकतानुसार अपने शरीर संचालन, हावभाव तथा स्वर में उतार-चढ़ाव लाना चाहिये तथा किसी विशेष बिन्दु पर केन्द्रीकरण एवं विराम का प्रयोग करना चाहिये। इस प्रकार शिक्षक छात्रों का ध्यान आकर्षित करके विद्यार्थियों का सहयोग प्राप्त कर सकता है। 

उद्दीपन परिवर्तन कौशल के घटक 

उद्दीपन परिवर्तन कौशल के निम्नलिखित घटक होते हैं :
  1. शरीर संचालन (Body movement) - छात्र किसी उद्दीपन (वस्तु) को एक ही स्थिति में देर तक देखता है तो उसका ध्यान उससे हटने लगता है। यह स्थिति अध्यापक के साथ भी होती है और छात्र आपस में बातें करने लगते हैं। अत: पाठ की ओर छात्रों का ध्यान आकर्षित के लिये शरीर संचालन करना चाहिये।
  2. हाव-भाव या भावभंगिमा (Gesture) - शिक्षक को पाठयवस्तु को पढ़ाते समय उसके अनुसार हाव-भाव करने चाहिये। यदि दुःख की बात है तो चेहरे पर दुःख के भाव और यदि खुशी की बात है तो चेहरे पर खुशी के भाव झलकने चाहिये।
  3. स्वर में आरोह-अवरोह (Change of voice)-पाठ पढ़ाते समय शिक्षक को पाठ्यवस्तु के अनुसार ऊँची, जोर की, तेज या तीव्र आवाज में बोलना चाहिये। आवाज की गति में उतार-चढ़ाव आना चाहिये। किसी-किसी शब्द पर दबाव डालकर बोलना चाहिये।
  4. केन्द्रीयकरण (Focussing)-छात्रों का ध्यान आकर्षित करने के लिये किसी बिन्दु पर केन्द्रीयकरण करना चाहिये। इससे छात्रों का ध्यान आकर्षित हो जाता है और अधिक अधिगम होता है; जैसे यह कहना कि "इधर ध्यान दो, यह चित्र देखो" या किसी निश्चित बिन्दु पर हाथ रखकर कुछ बताना, या Pointer के संकेत से बताना आदि।
  5. अन्तः क्रिया शैली में परिवर्तन (Change in interaction style (pattern)) - जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक-दूसरे से मौखिक वार्तालाप करते हैं तो इसे मौखिक अन्तः क्रिया की संज्ञा दी जाती है। कक्षा में कई प्रकार की अन्तः क्रिया होती हैं। छात्र सहभागिता के लिये अन्तः क्रिया शैली में परिवर्तन से प्रोत्साहन मिलता है।
  6. विराम (Pause) - विराम का अर्थ है शिक्षक का बोलते-बोलते रुक जाना जिससे छात्रों का ध्यान उस ओर हो जाये। यदि शिक्षक स्वयं बोलता जाता है और छात्र को कुछ बोलने का मौका नहीं देता तो पाठ नीरस हो जाता है। अतः बीच में रुककर छात्र की सहभागिता लेनी चाहिये। पाठ्यवस्तु के शिक्षण में छात्रों की सहभागिता लेनी चाहिये।
  7. दृश्य-शृव्य क्रम परिवर्तन (Audio visual switching) - शिक्षक पढ़ाते समय चित्र, मॉडल, चार्ट आदि दिखाता है जिससे छात्र अधिक सीखते हैं। शिक्षक को बदल-बदल कर ये चीजें दिखानी चाहिये।'

8. पुनर्बलन कौशल Reinforcement Skill

पुनर्बलन का अर्थ है शिक्षक का वह व्यवहार जिससे छात्रों को पाठ के विकास में भाग लेने हेतु एवं प्रश्नों का सही उत्तर देने हेतु प्रोत्साहन प्राप्त हो। अत: पुनर्बलन वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा प्रतिक्रिया के तुरन्त बाद किसी उद्दीपक को यदि उपस्थित किया जाये तो वाणी की प्रतिक्रिया शक्ति बढ़ती है। शिक्षक कक्षा में शिक्षण देने के साथ-साथ अनेक क्रियाएँ करता है तो शिक्षक उसे शाब्दिक या अशाब्दिक स्वीकृति प्रदान करके पुनर्वलित करता है। इससे बालक की प्रतिक्रिया शक्ति को बढ़ावा मिलता है। 

स्किनर का मानना है कि शिक्षक द्वारा छात्र की प्रशंसा करने, उत्तर को स्वीकार करने अथवा सिर हिलाने मात्र से ही पुनर्बलन सम्भव है। यह शिक्षक के व्यवहार पर निर्भर करता है कि वह किस व्यवहार को किस समय व किस प्रकार से पुनर्बलित करता है। N.C.E.R.T. (1976) के एक दल ने अध्ययन किया और पाया कि शिक्षक अथवा सहपाठी द्वारा यदि शिक्षण के मध्य पुनर्वलित किया जाये तो दोनों ही लगभग समान रूप से प्रभावशाली होते हैं। 

स्किनर के अनुसार : "पुनर्बलन वह स्थिति है जो छात्र की प्रतिक्रिया में वृद्धि करती है।"
 
इस प्रकार प्रशंसा करने, पुरस्कृत करने अथवा किसी अन्य रूप में उसे मान्यता प्रदान "करने तथा बढ़ावा देने को ही पुनर्बलन (Reinforcement) कहते हैं। कभी-कभी शिक्षक कुछ कहता नहीं फिर भी उसकी भाव-भंगिमाओं का विद्यार्थियों की उपलब्धि पर सकारात्मक (Positive) अथवा नकारात्मक (Negative) प्रभाव पड़ सकता है। उसका हँसना, मुस्कराना, स्वीकारात्मक, सिर हिलाना आदि उसके उत्साह को पुनर्बलित करते हैं तो उसका आँख दिखाना, हाथ उठाना नकारात्मक रूप में सिर हिलाना आदि उनकी आशा को निराशा में और उत्साह को हताशा में बदल देते हैं।

पुनर्बलन के प्रकार 

पुनर्बलन, मूलतः दो प्रकार का हो सकता है- 
  1. धनात्मक या सकारात्मक (Positive)
  2. ऋणात्मक या नकारात्मक (Negative)
इन दोनों ही प्रकार के पुनर्बलन के, दो-दो रूप हो सकते हैं।
  • शाब्दिक (Verbal)
  • अशाब्दिक या सांकेतिक (Non-verbal)
यदि सकारात्मक पुनर्बलन पक्षपातपूर्ण बन जाय अथवा उसकी अति होकर अनावश्यक लगने लगे तो वह भी नकारात्मक बन जाता है इसलिये पुनर्बलन के सम्बन्ध में कुछ बातों का ध्यान विशेष रूप से रखा जाय। 

  • पुनर्बलन का प्रयोग तभी किया जाय जब किसी छात्र द्वारा किसी प्रश्न का उत्तर अथवा समस्या का समाधान अप्रत्याशित हो। 
  • सामान्य उत्तरों के लिये पुनर्बलन का प्रयोग कभी नहीं किया जाय; यथा- माता-पिता का नाम बताने पर भी, कहना- "शाबाश!" बहुत अच्छा उत्तर दिया। आदि। 
  • पुनर्बलन, चाहे शाब्दिक हो अथवा अशाब्दिक, वह सहज रूप में होना चाहिये कृत्रिमता लिये हुए नहीं। 
  • पुनर्बलन की अति भी नकारात्मक रूप धारण कर लेती है; अत: उसका अत्यधिक प्रयोग न करके आवश्यकतानुसार प्रयोग किया जाय। 
  • नकारात्मक पुनर्बलन की दृष्टि से कभी भी जाति, सम्प्रदाय क्षेत्र अथवा वर्गगत टिप्पणी न की जाय; अन्यथा घातक सिद्ध हो सकती है।  

पुनर्बलन कौशल के घटक

पुनर्बलन कौशल के प्रमुख घटकों को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है :

  1. प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग : शिक्षक अपने कार्य को अच्छा करवाने के लिये या शिक्षण कार्य को अधिक ग्रहण कराने के लिये प्रशंसात्मक शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे-अच्छा, शाबास, हाँ-हाँ, ठीक है, सही उत्तर होने पर मुस्कराना, सिर हिलाना या हाथ के संकेत आदि। इनका छात्रों पर अधिक प्रभाव पड़ता है जिससे वे प्रोत्साहित होते हैं। 
  2. छात्र के उत्तर की पुनरावृत्ति : सही उत्तर को दुहराना तथा गलत उत्तर को संशोधित करना । 
  3. सकारात्मक / धनात्मक अशाब्दिक पुनर्बलनों का प्रयोग : शिक्षक के हावभाव; जैसे- छात्रों को आशाभरी दृष्टि से देखना, शिक्षक की प्रसन्न भाव-अभिव्यक्ति द्वारा कक्षा में प्रवेश करना अर्थात् शिक्षक बिना बोले या बिना शब्दों का उपयोग किये सिर या हाथ के संकेतों से अथवा चलकर पास आने आदि से छात्रों को प्रोत्साहित करता है।
  4. छात्र के उत्तर को श्यामपट्ट पर लिखना : छात्र के उत्तर को श्यामपट्ट पर लिखना चाहिये जिससे छात्रों में उत्साह आता है एवं सीखने की प्रेरणा मिलती है।
  5. हतोत्साहित करने वाले शब्दों का प्रयोग न करना : इसमें शिक्षक "नहीं गलत है, सोचकर बोलिये, जरा ठहरो" आदि कहता है। इस प्रकार के शब्दों का प्रयोग शिक्षक को नहीं करना चाहिये।
  6. नकारात्मक अशाब्दिक पुनर्बलनों का प्रयोग : छात्र द्वारा गलत उत्तर देने पर या अनुचित बात करने पर शिक्षक अपनी अस्वीकृति का प्रदर्शन करता है; जैसे- शिक्षक द्वारा नाराजगी से छात्र की ओर देखना, नकारात्मक सिर हिलाना, घूर कर देखना, पैर से जमीन थपथपाना, तेज चलना आदि। इस प्रकार का व्यवहार शिक्षक को कम करना चाहिये।
  7. पुनर्बलनों का अनुचित प्रयोग : पुनर्बलनों का आवश्यकता से अधिक प्रयोग करना इसके महत्त्व को कम कर देता है।
  8. नकारात्मक शाब्दिक पुनर्बलनों का प्रयोग : शिक्षक मौखिक या शाब्दिक रूप से छात्रों में अनुचित या गलत व्यवहार या उत्तर के प्रति अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है, जिससे छात्र पुनः ऐसा व्यवहार न करे। इसमें अध्यापक "नहीं, ऊँहूँ, गलत, बिल्कुल गलत, नो, रुको, सोचकर बोलो" आदि शब्द कहता है। "बेवकूफ, गधा, तुम तो गोबर- गणेश हो, तुम्हारे दादा ने पढ़ा है" आदि शब्दों का प्रयोग अध्यापक को नहीं करना चाहिये। इस कौशल में मुख्यत: पहले चार घटकों का प्रयोग अधिक होता है। बाढ़ के घटकों का प्रयोग कम करना चाहिये।

9. श्यामपट्ट लेखन कौशल Black Board Writing Skill

शिक्षण के उस सहायक/आवश्यक साधन को जिसका उपयोग शिक्षक द्वारा किसी बात को लिखकर समझाने अथवा पठितांश का सार लिखने तथा लिखाने हेतु किया जाता है उसे श्यामपट्ट / हरापट्ट आदि नामों से उसके रंग के आधार पर पुकारा जाता है। यह सर्वाधिक प्राचीन, शिक्षण का सहायक ही नहीं अपितु आवश्यक साधन है। इसके अभाव में शिक्षक का काम चल ही नहीं सकता। इन्हें लगभग सभी पाठशालाओं में कमरे की दीवारों पर काले रंग से पुते हुए रूप में सरलता से देखा जा सकता है।

ये सामान्यत: आयताकार रूप में तथा कमरे की दीवार की लम्बाई-चौड़ाई, जिस पर श्यामपट्ट बनाना है, का ध्यान रखते हुए बनाया जाता है। इनकी लम्बाई-चौड़ाई प्राय: 4'x6' के आयताकार रूप में होती है। इनके अतिरिक्त चल श्यामपट्ट भी होते हैं, जिन्हें किसी भी स्थिति में समायोजित किया जा सकता है। कमरे की दीवारों पर श्यामपट्ट बनवाना स्थान तथा व्यय की बचत दोनों ही दृष्टियों से सुविधाजनक होने के कारण बहु प्रचलित हैं। जैसे आजकल शीशे के भी पट्ट आने लगे हैं जो महँगे भले ही हों एक लम्बी अवधि तक स्थायी रूप में काम में आने वाले होते हैं। इनका रंग सामान्यतः हरा, काला या हल्का आसमानी भी हो सकता है। काठ या शीशे के बने हुए श्याम या हरित या आसमानी पट्ट चल (Portable) अथवा नियत (Fixed) दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं। 

श्यामपट्ट की आवश्यकता एवं उपयोग 

लिखने का यह हरित या श्याम या किसी भी गहरे रंग का जिस पर सफेद तथा रंगीन चॉक या खड़िया सरलता से दिखाई दे सके, शिक्षक का सबसे बड़ा साथी तथा सहारा है। इसकी है गिनती भले ही सहायक साधनों के अन्तर्गत की जाती हो, परन्तु गहराई से सोचा जाय तो यह एक ऐसा साधन है, जिसके अभाव में शिक्षक का काम चल ही नहीं सकता। अत: इसे शिक्षण का आवश्यक साधन कहा जाय तो अनुचित नहीं होगा। श्यामपट्ट की उपयोगिता के प्राय: दो रूप हैं
  1. पाठ्यांश को समझाने की दृष्टि से श्यामपट्ट की उपयोगिता : शिक्षण विषय कोई भी क्यों न हो, उसमें कुछ ऐसे क्लिष्ट अंश होते ही हैं, जिन्हें मौखिक रूप से समझाना बहुत ही कठिन अथवा यों कहिए कि कभी-कभी तो असम्भव हो जाता है। अतः इन्हें श्यामपट्ट पर लिखकर आसानी से समझाया जा सकता है।
  2. पठितांश का सार (Summary) लिखने में श्यामपट्ट की उपयोगिता : पठितांश का सार लिखाने की दृष्टि से भी जिससे विद्यार्थी पठितांश को घर पर या कभी भी दुहरा सकें तथा उसका अभ्यास कर सकें, श्यामपट्ट का उपयोग कम महत्त्वपूर्ण नहीं। पाठ्यांश को समझाने के पश्चात् कि पढ़ाया हुआ अंश विद्यार्थियों की समझ में किस सीमा तक आया, यह जानने की दृष्टि से जो बोधप्रश्न पूछे जाते हैं, उनके उत्तरों को संशोधित तथा सार रूप में यदि श्यामपट्ट पर लिख दिया जाय तो विद्यार्थी उसे अपनी उत्तर पुस्तिकाओं में उतारकर, कभी भी घर पर या पाठशाला में दुहरा सकते हैं। इसी का नाम श्यामपट्ट सार (Blackboard summary) है।

पाठ्यांश को समझाने के पश्चात् अपवादस्वरूप गणित जैसे विषयों को छोड़कर प्राय: सभी विषयों में पाठ्यांश के सार की आवश्यकता होती ही है; ताकि विद्यार्थी उसे यथावश्यकता कभी भी दुहरा सकें। विवरण प्रधान विषयों में तो श्यामपट्ट सार लिखना एक अनिवार्य आवश्यकता है। इस दृष्टि से सभी सामाजिक विज्ञानों तथा शुद्ध विज्ञानों में जहाँ सैद्धान्तिक पक्ष को समझाया जा रहा है। पठितांश का सार लिखाया ही जाना चाहिये।

श्यामपट्ट के उपयोग में सावधानियाँ Precautions is Use of Block Beard

श्यामपट्ट का उपयोग करते समय शिक्षक को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये
  • श्यामपट्ट पर जो कुछ भी लिखा जाये, वह सुन्दर एवं सुडौल अक्षरों में तथा भाषायी दृष्टि से स्पष्ट होना चाहिये।
  • पाठ के किसी अंश को समझाने की दृष्टि से यदि श्यामपट्ट पर चित्र बनाये जायें तो वे देखने में सुन्दर तथा आकर्षक होने चाहिये। 
  • श्यामपट्ट पर लिखते समय उसके रंग के विपरीत रंग वाली चॉकों का प्रयोग किया जाये, जिससे विद्यार्थियों को सब कुछ स्पष्ट दिखाई दे सके। 
  • श्यामपट्ट पर लिखी गयी बातों की उपयोगिता न रहने पर उन्हें झाड़न से ही मिटाना चाहिये न कि हाथ से। 
  • श्यामपट्ट पर यदि विद्यार्थियों द्वारा कुछ लिखवाना है तो वह शब्दों तक ही सीमित रहे तो अच्छा है जिससे समय का सदुपयोग हो सके। 
  • श्यामपट्ट पर सार लिखाते समय छोटे-छोटे; किन्तु सार्थक एवं सारगर्भित वाक्यों का ही उपयोग किया जाय। 
  • निर्धारित समय का अधिकांश भाग पाठ को समझाने में व्यतीत किया जाय न कि केवल पाठ का सार लिखवाने में। 
  • लिखने की गति न तो इतनी अधिक धीमी ही हो कि समय बहुत लगे और न ही इतनी तेज कि जो कुछ लिखा जाये, वह स्पष्ट दिखाई ही न दे। 
  • पाठ का सार लिखने से पूर्व, पाठ को समझाने हेतु जो कुछ भी लिखा गया है, उसे मिटा देना चाहिये।  
  • श्यामपट्ट पर लिखते समय यदि कुछ बोलने की आवश्यकता पड़े तो ही बोलना चाहिये अन्यथा नहीं। 
इसी प्रकार परिस्थितियों के अनुरूप यदि कहीं कोई परिवर्तन करना पड़े किया जाना चाहिये परन्तु विवेकपूर्वक।

10. पुनरावृत्ति कौशल Repetition Skill

पुनरावृत्ति कौशल से आशय है कि शिक्षक इस कुशलता से युक्त हो कि वह छात्रों को पढ़ाये गये पाठ का समुचित अभ्यास करा सके। यदि कोई प्रकरण छात्रों की समझ में न आ रहा हो तो शिक्षक को उसे बार-बार दोहराना पड़ता है। यही शिक्षक का पुनरावृत्ति कौशल कहलाता है। शिक्षक के लिये यह एक महत्त्वपूर्ण कौशल है जिसमें दक्षता प्राप्त करना आवश्यक होता है। अन्यथा वह अपने कार्य को भली-भाँति नहीं कर सकता। किसी प्रकरण को पढ़ाने के बाद उसकी पुनरावृत्ति से यह ज्ञात किया जा सकता है कि छात्रों ने कितना अधिगम किया है? 

पुनरावृत्ति की प्रक्रिया छात्रों के अधिगम की जाँच से सम्बन्धित जो शिक्षक की शैक्षिक कुशलता का परिचायक है। पुनरावृत्ति से शिक्षक स्वयं अपने शिक्षण कार्य की जाँच कर लेता है कि उसे कहाँ तक सफलता प्राप्त हुई। सामान्यत: जब एक शिक्षक अपनी कमजोरियों को पहचान कर दूर कर लेता है तो उसकी शिक्षण प्रक्रिया प्रभावी हो जाती है तथा बालकों का अधिगम स्तर उच्च हो जाता है। अतः आवश्यक है कि शिक्षक पुनरावृत्ति कौशल का स्वयं में विकास करे।

शिक्षण में एक से अधिक कौशलों एवं गतिविधियों का समावेश

शिक्षण को शिक्षक एक जटिल प्रक्रिया मानता है। अतः शिक्षक के लिये यह आवश्यक हो जाता है कि वह पहले एक-एक करके शिक्षण कौशलों का अभ्यास करे। जब विभिन्न कौशलों पर पूर्ण अधिकार हो जाये तो उनका एकीकरण एवं अभ्यास कर शिक्षण प्रक्रिया को वह प्रभावशाली बना सकता है। इस प्रकार एक सफल अध्यापक कौशलों के एकीकरण द्वारा शिक्षण में एक ही सम्बोध को पढ़ाने के लिये एक से अधिक कौशलों का समावेश कर सकता है परन्तु मनोवैज्ञानिक कौशलों के एकीकरण को असम्भव मानते हैं, कुछ इसे पूर्णरूपेण सम्भव मानते हैं। यही कारण है कि इस क्षेत्र में अनेक अनुसन्धान किये जा रहे हैं। अनुसन्धानों से यह स्पष्ट हो गया है कि शिक्षण कौशलों का प्रयोग विषय के साथ-साथ परिस्थितिजन्य है। अतः कौशलों के प्रयोग में एकीकरण तथा पृथक्ता दोनों ही शिक्षण के अनुसार मान्य हैं।

इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।