शिक्षण के सिद्धान्त: करके सीखना, अभिप्रेरणा, रुचि, नियोजन, व्यक्तिगत विभिन्नता आदि का सिद्धान्त

शिक्षण एक कला है और शिक्षक एक कलाकार प्रत्येक कला के कुछ सिद्धान्त होते हैं। वही शिक्षक या कलाकार के सिद्धान्त बन जाते हैं।
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शिक्षण के सिद्धान्त | Principles of Teaching - Teaching Exams

शिक्षण के सिद्धान्त Principles of Teaching

शिक्षक और शिक्षार्थी के बीच अन्तः क्रिया होती है और शिक्षक शिक्षण के माध्यम से विद्यार्थी के व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करता है। शिक्षण एक कला है और शिक्षक एक कलाकार प्रत्येक कला के कुछ सिद्धान्त होते हैं। वही शिक्षक या कलाकार के सिद्धान्त बन जाते हैं। इसी प्रकार शिक्षण के भी सिद्धान्त होते हैं। इन सिद्धान्तों की सहायता से शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है। इस प्रकार सिद्धान्त किसी भी विषय, क्षेत्र या प्रक्रिया के विषय में वैज्ञानिक तरीके से आयोजन करना होता है कि वह प्रक्रिया स्पष्ट रूप में सभी के सामने आ सके।

शिक्षण के सिद्धान्त Principles of Teaching

शिक्षण के क्षेत्र में हुए शोधकार्यो, प्रयोगों तथा सामान्य परम्पराओं के फलस्वरूप शिक्षण के सामान्य सिद्धान्त विकसित हुए हैं। शिक्षण के सिद्धान्त निम्न प्रकार के हैं-

1. क्रियाशीलता या करके सीखने का सिद्धान्त (Principle of Activity or Learning by Doing)
2. अभिप्रेरणा का सिद्धान्त (Principle of Motivation)
3. रुचि का सिद्धान्त (Principle of Interest)
4. निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त (Principle of Definite Aim)
5. नियोजन का सिद्धान्त (Principle of Planning)
6. चयन का सिद्धान्त (Principle of Selection)
7. व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त (Principle of Individual Differences)
8. लोकतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त (Principle of Democratic Behaviour)
9. जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त (Principle of Linking with Life)
10. आवृत्ति का सिद्धान्त (Principle of Repetition)
11. निर्माण एवं मनोरंजन का सिद्धान्त (Principle of Recreation and Formation)
12. विभाजन का सिद्धान्त (Principle of Division)

शिक्षण के अधिगम आधारित विशिष्ट सिद्धान्त Learning-Based Specific Principles of Teaching

1. आत्मीयता का सिद्धान्त (Principle of Rapport)
2. स्वाभाविक क्रम का सिद्धान्त (Principle of Natural Order)
3. अन्तः क्रिया का सिद्धान्त (Principle of Interaction)
4. विश्लेषण एवं संश्लेषण का सिद्धान्त (Principle of Analysis and Synthesis)

शिक्षण के सिद्धान्त Principles of Teaching

क्रियाशीलता या करके सीखने का सिद्धान्त

यह शिक्षण का एक मूल्यवान् सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार, सीखने के लिये छात्र का क्रियाशील होना अति आवश्यक है। 
क्रियाशीलता दो प्रकार की होती है- शारीरिक तथा मानसिक। 

शारीरिक क्रियाशीलता

शारीरिक क्रियाशीलता के अन्तर्गत छात्रों को कर्मेन्द्रियों की क्रियाशीलता का शिक्षण दिया जाना चाहिये। 

मानसिक क्रियाशीलता

मानसिक क्रियाशीलता में ज्ञानेन्द्रियों का शिक्षण दिया जाना चाहिये। 

मनोविज्ञान के अनुसार, प्रत्येक छात्र अपने स्वभाव से ही क्रियाशील होता है। अत: क्रियाशीलता उसकी प्रकृति के अनुरूप होती है। शारीरिक तथा मानसिक क्रियाशीलताएँ एक-दूसरे पर निर्भर रहती हैं। बालक जन्म लेने के कुछ समय पश्चात् ही शारीरिक दृष्टि से क्रियाशील होने लगता है तथा जैसे-जैसे वह बड़ा होता जाता है, उसकी मानसिक क्रियाशीलता का क्षेत्र भी विस्तृत होता जाता है। 

छात्र का शरीर तथा मन दोनों साथ-साथ कार्य करते हैं, इसलिये वह प्रत्येक तथ्य को सीखने एवं कार्य करने में अधिक से अधिक रुचि लेता है। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री फ्रॉबेल ने (Froebel) इसी को ध्यान में रखते हुए "करके सीखने (Learning by doing)" के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया तथा इसी के आधार पर किण्डर-गार्टन (Kinder Garten) पद्धति का प्रतिपादन किया।

अभिप्रेरणा का सिद्धान्त

शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में अभिप्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार, शिक्षक और छात्र दोनों ही अभिप्रेरित होकर कार्य करते हैं। फलस्वरूप शिक्षण अधिगम प्रक्रिया प्रभावशाली होती है। कभी आपने दो पशुओं, पक्षियों अथवा पहलवानों की लड़ाई अथवा खेलों की कोई प्रतियोगिता देखी हो तो यह भी देखा होगा कि अपने पक्ष के प्रतिभागियों को जिताने की दृष्टि के उनके समर्थक तरह-तरह की क्रियाओं, नारों आदि को काम में लेते हैं। ऐसा करना ही प्रतिभागी की दृष्टि से उत्प्रेरणा (Motivation) कहलाता है तथा इन क्रियाओं को उत्प्रेरक (Motives) कहते हैं। उत्प्रेरकों के अन्तर्गत वे सभी बातें एवं क्रियाएँ आती हैं जो किसी को अपनी पूरी क्षमता एवं योग्यता के साथ कार्य करने हेतु प्रेरित करती हैं।

रुचि का सिद्धान्त

पिन्सेट ने अपनी पुस्तक “The Principle of Teaching Method" में कहा है कि "जब तक छात्रों में सक्रिय रुचि जाग्रत नहीं होगी, तब तक शिक्षक का सर्वोत्तम कार्य नहीं होगा।" अतः शिक्षण कार्य करते समय शिक्षक को सर्वप्रथम छात्रों की रुचि का पता लगाना चाहिये और इस रुचि का विकास करने का प्रयास करना चाहिये। 

विषय के प्रति रुचि विकसित हो जाने पर छात्र स्वयं ही ज्ञान के अर्जन करने में व्यस्त रहता है। छात्र विषय से सम्बन्धित विभिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़ता है, विषय से सम्बन्धित समस्याओं पर विचार-विमर्श करता है, विषय के विभिन्न पक्षों पर लेख लिखता है आदि। अतः शिक्षक को विषय के प्रति रुचि अवश्य विकसित करनी चाहिये।

इस सिद्धान्तानुसार विषयवस्तु सरल से कठिन क्रम में प्रस्तुत की जानी चाहिये, इससे कि सभी छात्र सरलता एवं सफलतापूर्वक सीख सकेंगे। सफलता छात्र को सन्तोष देती है, जिससे छात्र की विषय के प्रति रुचि विकसित होती है। इसके अतिरिक्त स्वयं शिक्षक की विषय के प्रति प्रगाढ़ रुचि का छात्रों पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अतः शिक्षकों को भी विषय के प्रति रुचि रखनी चाहिये ।

निश्चित उद्देश्य का सिद्धान्त

उद्देश्यों का निर्धारण करना शिक्षण का प्रमुख सिद्धान्त है क्योंकि उद्देश्य ही शिक्षण प्रक्रिया को दिशा प्रदान करते हैं। शिक्षक उद्देश्यों के अभाव में उस नाविक के समान है, जिसे अपने गन्तव्य स्थान का पता नहीं है और छात्र उस पतवारहीन नाव के समान है, जो लहरों के थपेड़े खाती हुई कहीं भी किनारे लग जाती है। अतः स्पष्ट है कि उद्देश्य निश्चित किये बिना पढ़ाना शिक्षण कार्य नहीं है।

नियोजन का सिद्धान्त

जब अध्यापक पाठ्य सामग्री का उचित चुनाव कर ले तो उसे क्रमबद्ध तरीके से अन्य तत्वों का निर्माण करना चाहिये; जैसे-पाठ योजना का निर्माण, सहायक सामग्री का प्रयोग, गृह कार्य एवं पुनरावृत्ति। 

किसी भी कार्य को करने से पूर्व बुद्धिमत्तापूर्वक की गयी अग्रिम तैयारी की योजना कहते हैं। इसके अन्तर्गत करणीय कार्य के विभिन्न पक्षों पर पूर्व चिन्तन किया जाता है ताकि वह कार्य कुशलतापूर्वक एवं प्रभावशाली ढंग से पूर्ण किया जा सके। 

वास्तव में योजना अपने इसी महत्त्व के कारण आधुनिक युग में प्रत्येक कार्य को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने की दिशा में एक आवश्यक चरण हो गया है। शिक्षण योजनाओं को मोटे रूप से दो विभागों में विभाजित किया जा सकता है 
(1) दीर्घकालीन योजना। 
(2) अल्पकालीन योजना।

दीर्घकालीन योजना (Long Range Planning)

इसके अन्तर्गत पूरे शिक्षण सत्र तथा उपसत्र की योजनाएँ सम्मिलित की जाती हैं।

अल्पकालीन योजना (Short Range Planning)

इसके अन्तर्गत इकाई तथा दैनिक पाठ योजनाएँ आती हैं।

चयन का सिद्धान्त

वर्तमान समय में प्रत्येक विषय में ज्ञान की मात्रा इतनी अधिक हो गयी है कि किसी व्यक्ति के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह विषय के सभी पक्षों का गहरायी से अध्ययन कर सके। अतः छात्रों की मानसिक परिपक्वता, निर्धारित उद्देश्य, शिक्षक कुशलता, समयावधि तथा साधन-सुविधाओं को ध्यान में रखकर विषयवस्तु का चयन करना चाहिये। 
पढ़ाने का सम्बन्ध मूलत: शिक्षक से ही होता है। पढ़ाने से पूर्व तथा पढ़ाते समय उसे कई बातों पर विचार करना होता है। सरल माध्यम से कठिन अंश को बताया जाय तो विद्यार्थियों को विषयवस्तु समझ में जल्दी आ जाती है।

व्यक्तिगत विभिन्नता का सिद्धान्त

छात्रों में व्यक्तिगत विभिन्नताएँ पायी जाती हैं। इनकी बुद्धि, स्वभाव, योग्यताएँ, क्षमताएँ एवं रुचियाँ आदि पृथक्-पृथक् होती हैं। एक योग्य शिक्षक अपने शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये छात्रों की इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं को दृष्टिगत रखते हुए ही शिक्षण व्यवस्था करता है। 

इन विभिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए शिक्षक को कक्षा व्यवस्था भी इस प्रकार करनी चाहिये कि किसी भी विद्यार्थी को किसी अन्य विद्यार्थी के कारण परेशानी नहीं हो और सभी शिक्षक द्वारा कही हुई बातों को तथा श्यामपट्ट पर लिखी हुई विषयवस्तु को समान रूप से सुन और पढ़ सकें।

इसी के साथ शिक्षक को विद्यार्थियों से यदि कोई प्रश्न पूछना है तो प्रश्न को पूछे तो सभी से, किन्तु उसका उत्तर देने की दृष्टि से उत्तर उन विद्यार्थियों से पूछा जाये जो उसका उत्तर दे सकें। इस दृष्टि से अपेक्षाकृत सरल प्रश्नों के उत्तर बौद्धिक या शैक्षिक दृष्टि से कमजोर विद्यार्थियों से पूछे जायें, ताकि वे उनका उत्तर दे सकें और उनमें हीन भावना (Inferiority complex) भी विकसित न हो। 

इसी प्रकार कठिन प्रश्नों के उत्तर उन विद्यार्थियों से पूछे जायें जो स्वयं को बहुत होशियार समझते हैं, ताकि उस प्रश्न का उत्तर न दे पाने के कारण उनमें अहंभाव (Superiority complex) विकसित न हो। साथ ही विद्यार्थियों को इस बात का भी आभास न हो कि किस विद्यार्थी से किस प्रकार का प्रश्न पूछा जायेगा? 

शिक्षक द्वारा पढ़ाते समय विद्यार्थियों से सम्बन्धित इन सभी बातों का ध्यान रखने का नाम ही वैयक्तिक विभिन्नताओं का सिद्धान्त है।

लोकतन्त्रीय व्यवहार का सिद्धान्त

शोध द्वारा प्रमाणित हो चुका है कि व्यक्तित्व का अच्छा विकास लोकतन्त्रीय या जनतन्त्रीय पर्यावरण में ही होता है। लोकतन्त्रीय प्रणाली में शिक्षक मित्र, दार्शनिक एवं मार्गदर्शक के रूप में व्यवहार करता है, जिससे छात्रों को स्वतन्त्र चिन्तन, मनन, तर्क तथा निर्णय का अवसर मिलता है। ऐसे पर्यावरण में छात्रों में आज्ञाकारिता, सहनशीलता, सहकारिता एवं विनम्रता आदि गुणों के साथ-साथ नेतृत्व करने, पहल करने, निर्णय लेने तथा समस्याओं को हल करने की योग्यताओं का भी विकास होता है। 

अतः शिक्षक को कक्षा में जनतन्त्रीय प्रणाली के सिद्धान्त को अपनाना चाहिये।

जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त

छात्र विभिन्न विषयों का अध्ययन मूलत: इसलिये करते हैं कि अर्जित ज्ञान जीवनोपयोगी हो सके। ऐसा तभी सम्भव है, जब विषयों का अध्ययन वास्तविकता पर आधारित हो थार्नडाइक (Thorndike) का मानना है कि-जो बात विद्यार्थियों की दृष्टि से जीवनोपयोगी हो अथवा जिसे वे औपचारिक (Formal) अथवा अनौपचारिक (Informal) रूप से उन्होंने जान या समझ लिया है, उसके माध्यम से यदि विषयवस्तु को समझाया जाय तो वह सरलता से उनकी समझ में आ जाती है। इसी का नाम जीवन से जोड़ने का सिद्धान्त है।

आवृत्ति का सिद्धान्त

यदि याद किये पाठ को कुछ समय पश्चात् पुनः पढ़ लिया जाये तो पाठ अच्छी तरह से याद हो जाता है। अत: आवृत्ति का सिद्धान्त भी महत्त्वपूर्ण है। पाठ की पुनरावृत्ति कितने समय पश्चात् की जाये, यह विषयवस्तु की प्रकृति पर निर्भर करता है। बिना उचित अन्तराल के याद किया हुआ पाठ विस्मृत हो जाता है।

निर्माण एवं मनोरंजन का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अनुसार, शिक्षण कार्य इस ढंग से करना चाहिये कि छात्र ज्ञान अर्जित करते समय स्वाभाविक प्रसन्नता अनुभव करें। इसके लिये शिक्षण कार्य- खेल विधि, विचार-विमर्श विधि, भ्रमण विधि तथा प्रायोजना विधि आदि द्वारा करना चाहिये। 

इससे छात्र प्रसन्नतापूर्वक ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में व्यस्त हो जाते हैं। इन विधियों में छात्र स्वयं क्रियाशील रहते हैं तथा उन्हें स्वतन्त्र अभिव्यक्ति का अवसर मिलता है। छात्रों को स्वतन्त्र अभिव्यक्ति से मानसिक सन्तोष प्राप्त होता है और वे प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। अतः शिक्षण में इस सिद्धान्त का पालन करना चाहिये।

विभाजन का सिद्धान्त

इसके लिये पाठों को छोटी-छोटी उप-इकाइयों में पाठ प्रेषण की सरलता एवं सुविधा की दृष्टि से विभक्त कर लेना चाहिये। रायबर्न के अनुसार- "एक विभाजन दूसरे विभाजन तक पहुँचा देता है, जिसके फलस्वरूप कक्षा के लिये समझना सहज बन जाता है।" 

इकाई पाठ योजना में सम्पूर्ण शिक्षण विषयवस्तु को एक इकाई मानकर चलते हैं और फिर उस शिक्षण विषयवस्तु को वांछित उप-विभागों में बाँट लेते हैं, जिन्हें उप-इकाइयाँ कहना ठीक होगा। तत्पश्चात् उन उप- इकाइयों के आधार पर ही पाठ योजना का निर्माण किया जाता है। 

इकाइयों के निर्माण के समय बालकों की रुचि, क्षमता एवं निर्धारित लक्ष्यों आदि का पूर्ण ध्यान रखा जाता है। एक इकाई को पूर्ण करने के लिये अनेक पाठों की योजना बनायी जाती है। प्रत्येक पाठ सम्पूर्ण इकाई का भाग होता है एवं इकाई के अगले पाठ के विकास में सहायक होता है।

शिक्षण के अधिगम आधारित विशिष्ट सिद्धान्त

शिक्षण के कुछ विशिष्ट सिद्धान्त भी हैं जिनके माध्यम से शिक्षण अधिगम प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है। एक कुशल शिक्षण अपने शिक्षण में इन सिद्धान्तों का अवश्य ही प्रयोग करता है। शिक्षण अधिगम के विशिष्ट सिद्धान्त निम्नलिखित प्रकार हैं -

आत्मीयता का सिद्धान्त

आत्मीयता का आशय है - शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के मध्य आत्मगत अथवा अपनेपन की भावना से भरे सम्बन्ध। ये सम्बन्ध औपचारिक सम्बन्धों से बिल्कुल भिन्न होते हैं। प्रायः देखा जाता है कि बहुत से विद्यार्थी संकोच या किसी प्रकार के अन्य कारण से शिक्षक के पास जाने अथवा अपनी शिक्षणगत या व्यक्तिगत समस्याओं को उनसे कहने और उनके समाधान हेतु अपने शिक्षक की सलाह लेने में बहुत हिचकिचाते हैं जबकि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस प्रकार के सम्बन्ध अधिगम में सदैव बाधक सिद्ध होते हैं। 

इस दृष्टि से शिक्षकों को चाहिये कि पढ़ाने से पूर्व विद्यार्थियों से अधिक नहीं तो केवल एक या दो मिनट के लिये अनौपचारिक रूप से ऐसी बातें करें जिससे उनकी हिचकिचाहट दूर हो जाय तथा वे शिक्षक को अपना हितैषी समझने लगें। इन्हीं मानवीय सम्बन्धों का नाम आत्मीयता (Rapport) है।

स्वाभाविक क्रम का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त के अनुसार शिक्षक को इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि पढ़ायी जाने वाली विषयवस्तु प्रायः दो प्रकार की होती है। पहली प्रकार की विषयवस्तु वह है जिसमें उसका सम्बन्ध पहले या पीछे की विषयवस्तु से नहीं होता; जैसे बहुत सी मुक्तक कविताएँ। 

दूसरी प्रकार की विषयवस्तु वह है जिसमें उसका सम्बन्ध आगे या पीछे की विषयवस्तु से किसी न किसी रूप में होता ही है; जैसे गिनतियों का सम्बन्ध पहाड़ों से है तो पहाड़ों का सम्बन्ध गुणा-भाग से है। 

इन सम्बन्धों का अपना एक क्रम होता है कि पहले कौन-सा और बाद में कौन-सा ? जहाँ यह क्रम होता है वहाँ पढ़ाते समय इस क्रम का ध्यान रखना आवश्यक है। उदाहरण के लिये- यदि विद्यार्थी गुणा-भाग के प्रश्नों को सही तरीके से नहीं समझ पा रहे हैं तो पहले उन्हें पहाड़े सिखाये जायें, तत्पश्चात् गुणा-भाग। 

इसी प्रकार लिखने में विद्यार्थी यदि लघु एवं दीर्घ स्वरों की मात्राओं की अशुद्धियाँ करते हैं तो पहले उन्हें विभिन्न स्वरों की ध्वनियों से अवगत कराया जाना चाहिये ताकि वे ध्वनि के आधार पर किसी शब्द की वर्तनी को शुद्ध रूप से लि सकें। 

सामाजिक विज्ञान के विषयों- इतिहास, भूगोल आदि में भी इस सिद्धान्त का अनुसरण करते समय जो घटना या बात पहले हुई हो उसे पहले तथा जो बाद में हुई हो उसे बाद में ही बताना उपयुक्त रहेगा न कि इसके विपरीत। इस दृष्टि से अकबर को पढ़ाने से पूर्व हुमायूँ और हुमायूँ को पढ़ाने से पूर्व बाबर को पढ़ाया जाना चाहिये। यही स्वाभाविक क्रम का सिद्धान्त है।

अन्तः क्रिया का सिद्धान्त

दो व्यक्तियों के मध्य- मानसिक, बौद्धिक अथवा आत्मगत विचारों एवं भावनाओं के आधार पर पारस्परिक क्रिया को अन्त:क्रिया (Interaction) कहते हैं। अन्तः क्रिया के अन्तर्गत दोनों ओर, अर्थात् शिक्षक एवं शिक्षार्थी की ओर से एक प्रश्न पूछता है तो दूसरा उसका सहज भाव से उत्तर देता है; अर्थात् शिक्षक बौद्धिक सक्रियता अथवा मूल्यांकन किसी भी दृष्टि से जो प्रश्न पूछे उनका उत्तर विद्यार्थी, स्मृति अथवा चिन्तन के आधार पर दे। 

इसके साथ ही शिक्षार्थियों द्वारा पूछे गये प्रश्नों अथवा उनकी शंकाओं और समस्याओं के समाधान हेतु शिक्षक उनका उत्तर देने और उन्हें समझाने का प्रयास करे इसी का नाम अन्तःक्रिया है। 

विश्लेषण एवं संश्लेषण का सिद्धान्त

किसी वस्तु या बात के अंग एवं प्रत्यंग को अच्छी तरह समझने के पश्चात् ही उसकी वास्तविक उपयोगिता समझ में आती है। उदाहरण के रूप में शिक्षक प्रशिक्षण के अन्तर्गत किसी भी विषयवस्तु को विद्यार्थियों को पढ़ाने एवं समझाने से पूर्व जो पाठ-योजना बनाई जाती है, उसके अन्तर्गत-पाठ की प्रस्तावना (Introduction), प्रस्तुतीकरण (Presentation) तथा मूल्यांकन (Evaluation) आदि कई क्रियाएँ होती हैं। इन सभी क्रियाओं के अलग-अलग प्रयोजन हैं- प्रस्तावना का प्रयोजन, विद्यार्थियों का प्रकरणोन्मुख करना है तो प्रस्तुतीकरण का प्रयोजन पाठ्यांश की विषयवस्तु को समझाना तथा मूल्यांकन का प्रयोजन इस बात का पता लगाना है कि पाठ्यांश को पढ़ाने हेतु प्रारम्भ में जिन उद्देश्यों का निर्धारण किया गया था - उनकी पूर्ति किस सीमा तक हुई ? यदि नहीं हुई तो क्यों ?, क्यों ? के अन्तर्गत भी उन कारणों का पता लगाना आवश्यक है जिनके कारण पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की पूर्ति नहीं हुई। 

इन सभी बातों का खण्ड-खण्ड करके पता लगाना विश्लेषण (Analysis) कहलाता है, और इन सभी कारणों को समन्वित रूप में दूर करने का प्रयास करना संश्लेषण (Synthesis) कहलाता है।

इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।