शिक्षण का अर्थ, प्रकृति, विशेषताए, सोपान तथा उद्देश्य

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिस पर प्रत्येक देश की शासन प्रणाली, सामाजिक दर्शन, सामाजिक परिस्थितियों, मूल्यों एवं संस्कृति का प्रभाव पड़ता है।
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शिक्षण का अर्थ

शिक्षण की अवधारणा क्या है?

What is the concept of Teaching? 
शिक्षक एवं शिक्षार्थियों के मध्य कक्षागत परिस्थितियों में एक ऐसी अन्तःक्रिया है जिसके द्वारा शिक्षक, अपने गहन-ज्ञान तथा सम्प्रेषणीय कुशलता के आधार पर सम्बन्धित विषयवस्तु को अपने विद्यार्थियों को आत्मसात कराने में सक्षम हो, उसे शिक्षण कहते हैं।

शिक्षण की परिभाषा

शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने शिक्षण को अपने-अपने विचार से अलग-अलग शब्दों में परिभाषित किया है। उन्हीं में से कुछ परिभाषाए निम्नलिखित इस प्रकार हैं -

बी.एफ. स्किनर के अनुसार : शिक्षण पुनर्बलन की आकस्मिकताओं का क्रम है।

बी. ओ. स्मिथ के विचारानुसार : शिक्षण, अधिगम को उत्प्रेरित करने वाली एक पद्धति है।

हैनरी सी मॉरिसन के अनुसार : शिक्षण किसी परिपक्व व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के अपेक्षाकृत कम परिपक्व व्यक्तित्व वाले व्यक्ति के साथ ऐसे आत्मीय सम्बन्ध हैं, जिनका प्रारूपण बाद वाले की शिक्षा को आगे बढ़ाने हेतु किया जाता है।

योकम एवं सिम्पसन के अनुसार : शिक्षण वह साधन है, जिसके द्वारा समूह के अनुभवी सदस्य अपरिपक्व एवं शिशु (छोटे) सदस्यों को उनके जीवनगत समायोजन हेतु मार्गदर्शन देते हैं।
 
रायबर्न के अनुसार: शिक्षण ऐसे सम्बन्ध हैं जो बालक को उसकी (अन्तर्निहित) क्षमताओं को विकसित करने में  सहायता करते हैं।

एन.एल. गेज के अनुसार : शिक्षण एक प्रकार का पारस्परिक प्रभाव है, जिसका उद्देश्य दूसरे व्यक्ति के व्यवहारों में वांछित परिवर्तन लाना है।

सभी परिभाषाओं का यदि विश्लेषण किया जाये तो शिक्षण के अर्थ को सहज समझा जा सकता है।

शिक्षण का अर्थ

परिभाषाओं के आधार पर शिक्षण के अर्थ के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि- 
  • शिक्षण शिक्षा के क्षेत्र में उद्देश्य प्राप्ति का साधन है। 
  • शिक्षण सीखने तथा सिखाने वाले के मध्य द्विध्रुवीय उपागम (Approach) या अन्तःक्रिया है। 
  • शिक्षण एवं अधिगम दोनों ही अन्तः सम्बन्धित हैं। 
  • शिक्षण विद्यार्थी की अन्तर्निहित क्षमताओं के विकास में सहायक सिद्ध होता है। 
  • अधिगम की सफलता शिक्षण की प्रभाविता पर आधारित होती है। 
  • शिक्षण विषयवस्तु आधारित ज्ञान का अन्तरण (Transfer) है।

शिक्षण एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिस पर प्रत्येक देश की शासन प्रणाली, सामाजिक दर्शन, सामाजिक परिस्थितियों, मूल्यों एवं संस्कृति का प्रभाव पड़ता है। जिस देश में जैसी शासन प्रणाली या सामाजिक तथा औद्योगिक परिस्थितियाँ होंगी वहाँ उसी प्रकार की शिक्षण प्रक्रिया होगी। अतः शिक्षण के अर्थ को निम्नलिखित रूपों में स्पष्ट किया जा सकता है :
  1. एकतन्त्रात्मक शासन में शिक्षण
  2. प्रजातन्त्रात्मक शासन में शिक्षण
  3. हस्तक्षेप रहित शासन में शिक्षण

1. एकतन्त्रात्मक शासन में शिक्षण का अर्थ (Meaning of teaching in mono cratic government)

एकतन्त्रात्मक शासन में शिक्षक का स्थान शिक्षण प्रक्रिया के अन्तर्गत प्रधान माना जाता है और छात्र का स्थान गौण होता है। इस प्रकार के वातावरण में शिक्षक को कक्षा में आदर्श माना जाता है। छात्रों की सभी क्रियाओं को शिक्षक दिशा प्रदान करता है। वह क्या सोचे, क्या करे एवं कैसे करे ? शिक्षण के समय छात्र केवल श्रोता के रूप में कार्य करता है। 
इस प्रकार शासन की व्यवस्था परम्परागत सिद्धान्त कार्य केन्द्रित (Classical Theory or Organization task centered) पद्धति का अनुसरण करती है। इसमें छात्रों की इच्छाओं तथा अभिवृत्तियों को कोई भी स्थान नहीं दिया जाता तथा इस प्रकार के शिक्षण में छात्रों को वार्तालाप, तर्क तथा शिक्षक की आलोचना (criticize) करने का अधिकार नहीं दिया जाता।  

2. प्रजातन्त्रात्मक शासन में शिक्षण का अर्थ (Meaning of teaching in demo cratic government) 

 इस शिक्षण प्रणाली में शिक्षक और छात्र दोनों सक्रिय रहते हैं और उनके मध्य शाब्दिक और अशाब्दिक अन्तः क्रिया चलती रहती है। इस प्रणाली में बालक को तर्क करने, वार्तालाप करने, प्रश्न करने, उत्तर पाने तथा अन्य प्रकार के वार्तालाप करने का अवसर मिलता है। प्रजातन्त्रात्मक शिक्षण में शिक्षक एवं छात्र दोनों एक-दूसरे के व्यक्तित्व को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं।  

3. हस्तक्षेप रहित शासन में शिक्षण का अर्थ (Meaning of teaching in laisses faire government) 

इस प्रकार की शासन व्यवस्था में शिक्षण करते समय शिक्षक एक मित्र के रूप में कार्य करता है और विद्यार्थियों को शिक्षण के समय अधिक सक्रिय बनाते हुए विभिन्न समस्याओं को सुलझाने के लिये उन्हें अधिक से अधिक अवसर प्रदान करता है। इस प्रकार के शिक्षण के बीच शिक्षक-छात्र क्रियाओं में हस्तक्षेप न करते हुए उनकी सृजनात्मक क्षमताओं के विकास की ओर ध्यान केन्द्रित करता है। यह शासन प्रणाली आधुनिक व्यवस्था कार्य तथा सम्बन्ध केन्द्रित सिद्धान्त ( Modern Theory of Organization Task and Relationship Centered) पर आधारित होती है।  

शिक्षण की प्रकृति Nature of Teaching 

शिक्षण की प्रकृति के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि शिक्षण एक कला और विज्ञान दोनों है।  
 
कला में स्थिरता कम तथा परिवर्तनशीलता अधिक होती है। यदि कला की दृष्टि से शिक्षण पर विचार किया जाये तो हम देखेंगे कि हमारे देखते-देखते ही शिक्षण के क्षेत्र में अब तक कितने परिवर्तन आ गये हैं और आते ही चले जा रहे हैं अब उन बातो को समझना सरल हो गया है जिनकी सीमा केवल कल्पनाओं तक ही सीमित थी। अतः इन परिवर्तनों के आधार पर कहा जा सकता है कि शिक्षण एक कला है।

विज्ञान की कसौटी पर यदि शिक्षण को कसा जाये तो विज्ञान उसी विषय को कहा जाता है, जिसका आधार तर्कसंगत हो तथा नियमों में शाश्वतता हो। इस दृष्टि से शिक्षण के अपने कुछ सूत्र तथा नियम  होते हैं, शिक्षण के उन नियमों; यथा- विषयवस्तु की अर्जित जानकारी से सम्बद्धता, अर्जित ज्ञान का अभ्यास आदि पहले भी शिक्षण की दृष्टि से उतने ही उपयोगी सिद्ध होते थे जितने आज तथा आगे भी होते रहेंगे। इस प्रकार शिक्षण के नियमों आदि की अनुपालना एवं अनुसरण के आधार पर शिक्षण को विज्ञान मानना सर्वथा उचित है।

शिक्षण की प्रकृति को निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत रखा जा सकता है- 
  • शिक्षण का सम्बन्ध विद्यार्थियों को ज्ञान देने से है तो स्वयं ज्ञान प्राप्त करने अर्थात् स्वाध्याय से भी। अर्थात् शिक्षण शिक्षक तथा शिक्षार्थी दोनों के ज्ञान में वृद्धि करता है। 
  • शिक्षण कला है तो विज्ञान भी। 
  • शैक्षणिक कुशलताएँ, विद्यार्थियों की कुशल ज्ञानवृद्धि में ही सहायक सिद्ध नहीं होती, अपितु उनके बौद्धिक, सामाजिक आदि सभी प्रकार के विकास में सहायक सिद्ध होती हैं। 
  • विद्यार्थियों के व्यवहार में वांछित मोड़ कुशल शिक्षण के आधार पर ही लाया जा सकता है। 
  • शिक्षण विद्यार्थी तथा शिक्षक के बीच की अन्तः क्रिया है। 
  • शिक्षण एक सोद्देश्य या सप्रयोजन (Purposeful) क्रिया है। 
  • शिक्षण एक उद्देश्य आधारित द्विध्रुवीय (Bi-polar) क्रिया है। 
  • शिक्षण का मापन पूरी तरह भले ही सम्भव न हो, मूल्यांकन (Evaluation) सम्भव है। 
  • शिक्षण में सुधार सम्भव है। 
  • शिक्षक की असली पहचान उसका शिक्षण ही है जिसका उद्देश्य है- "विद्यार्थी के व्यवहार में वांछित बदलाव लाना"

शिक्षण की विशेषताएँ Characteristics of Teaching

शिक्षण की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।

वांछनीय सूचना देना (Providing of desirable information) 

सभ्यता के विकास के साथ-साथ मानव का ज्ञान भी निरन्तर बढ़ता जा रहा है। यह सब कुछ हमने प्रयास और त्रुटि (Trial and Error), सूझ (Insight) तथा अनुकरण (Imitation) द्वारा सीखा है। हमें चाहिये कि ज्ञान के भण्डार के सम्बन्ध में बालकों को सुव्यवस्थित रूप से आवश्यक सूचनाएँ दें।

शिक्षण सिखाना है (Teaching is causing to learn)

शिक्षण से तात्पर्य है - पथ प्रदर्शन। अच्छा शिक्षण वही है जो बालकों को सीखने के लिये उचित मार्ग दिखाये। शिक्षक को चाहिये कि वह बालक की रुचियों, क्षमताओं, योग्यताओं तथा आवश्यकताओं का पता लगाये तथा उन्हीं के अनुसार उनका मार्गदर्शन करे। 

चुने हुए तथ्यों का ज्ञान (Knowledge of selective facts)

जब से मानव इस पृथ्वी पर आया है उसी समय से वह प्रकृति (Nature) से संघर्ष करता आ रहा है। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप हमारा ज्ञान भण्डार दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इतने अधिक बढ़ते हुए ज्ञान को बालक इतने कम समय में नहीं सीख सकता। अतः शिक्षण द्वारा बालक को चुने हुए शैक्षिक एवं लाभप्रद तथ्य बताने चाहिये।

सहानुभूतिपूर्ण (Sympathetic)

अच्छे शिक्षण के लिये यह आवश्यक है कि शिक्षक द्वारा बालकों के साथ परस्पर मित्रता तथा सहानुभूति का व्यवहार किया जाय। बालकों की त्रुटियों पर केवल सजा देना शिक्षक का कार्य नहीं है बल्कि उनको सुधारना ही उसका कार्य है।

सहयोग पर आधारित (Depend on co-operation)

शिक्षण एक मार्गीय नहीं होता, उसके लिये अध्यापक तथा विद्यार्थियों के बीच सहयोग होना अनिवार्य है। यदि विद्यार्थियों का सहयोग अध्यापक को प्राप्त नहीं होगा तो कभी भी सफल शिक्षण नहीं हो सकता। विद्यार्थियों के सहयोग के लिये अध्यापक को चाहिये कि वह उनके लिये अच्छी क्रियाओं का आयोजन करे।

प्रजातन्त्रीय (Democratic)

वर्तमान युग प्रजातन्त्र का युग है। कक्षा के प्रत्येक विद्यार्थी को शिक्षण प्रक्रिया में समान अधिकार प्रदान किये जाने चाहिये । वास्तव में अच्छा शिक्षण वही है तो बालकों में प्रजातन्त्रात्मक मनोवृत्ति को उत्पन्न कर दे जिससे वह अपने प्रतिदिन के व्यवहार एवं आचरण से प्रजातन्त्रीय भावनाओं द्वारा प्रेरणा ग्रहण करें, उनमें प्रजातन्त्रीय विचारों को जीवन में उतारने की भावना का विकास करे।

प्रगतिशील (Progressive)

बालक की सच्ची शिक्षा उसके निजी अनुभवों पर आधारित होनी चाहिये। अच्छा शिक्षण बालक के पूर्व अनुभवों (Previous experience) को ध्यान में रखते हुए नवीन ज्ञान प्रस्तुत करना है। इससे बालक के व्यवहार में परिवर्तन तथा सुधार होता है।

गुणवत्तापूर्ण (Qualitative)

अच्छा शिक्षण देने के लिये सबसे पहले शिक्षण देने की अच्छी योजना बनाना आवश्यक है। योजना पर आधारित शिक्षण गुणवत्तापूर्ण होता है। इस प्रकार के शिक्षण से छात्रों में शिक्षक ऐसे गुणों का विकास करता है जिससे वह अपनी शिक्षा और शैक्षिक उद्देश्यों को सहजता से प्राप्त कर लेते हैं।

निर्देशात्मक (Directional)

अच्छे शिक्षण में बालक को निर्देश दिया जाता है, न कि आदेश। कक्षा का वातावरण निर्देशात्मक होना चाहिये। वहाँ कठोर अनुशासन को अच्छा नहीं समझा जाता। अध्यापक ऐसी स्थिति उत्पन्न कर देता है जिनमें कार्य करके बालक अनेक गुण ग्रहण कर लेता है।

निदानात्मक एवं उपचारात्मक (Diagnostic and remedial)

आज हम वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं (Objective tests) के द्वारा बालक की योग्यताओं, क्षमताओं एवं संवेगात्मक विशेषताओं (Emotional traits) का पता सरलतापूर्वक लगा सकते हैं। उक्त साधनों के द्वारा हम शिक्षण को निदानात्मक (Diagnostic) बना सकते हैं। साथ ही व्यक्तिग भिन्नता, शिक्षण की नवीन पद्धतियों तथा पिछड़ेपन (Backwardness) के कारणों का ज्ञान प्राप्त करके हम शिक्षण को उपचारात्मक (Remedial) भी बना सकते हैं।

संक्षेप में -
शिक्षण क्रियाशील रहने के अवसर प्रदान करता है तथा सीखने को संगठित करता है। यह बालक को अपने वातावरण से अनुकूलन करने में सहायता देता है। शिक्षण तैयारी का एक साधन है जो बालक को सन्तुष्टि प्रदान करता है।

शिक्षण प्रक्रिया Teaching Process

 कोई भी कार्य को पूर्ण करने की एक अपनी ही विधि होती हैं। चूँकि शिक्षण भी एक कार्य है। अतः उसे सम्पन्न करने की भी विद्यार्थियों की आयु तथा वातावरणीय परिस्थितियों आदि को ध्यान में रखते हुए एक नहीं कई अलग-अलग विधियाँ हैं। कार्य करने की विधि के अन्तर्गत भी इन बातों पर पहले ही विचार कर लिया जाता है कि पहले क्या किया जायेगा और उसके पश्चात् क्या? इन सभी क्रियाओं का एक क्रम होता है और इसी क्रम को शिक्षण प्रक्रिया (Process) कहते हैं।  

जॉन एडम्स (John Adams) के अनुसार - शिक्षा एक द्विध्रुवीय प्रक्रिया है। एडम्स के अनुसार शिक्षा के ये दो ध्रुव हैं- शिक्षक तथा शिक्ष्य अथवा शिक्षार्थी। माना कि शिक्षा के सजीव ध्रुव ये दो ही हैं, परन्तु साथ ही इस बात पर विचार करना भी आवश्यक है कि इन दोनों के मध्य अन्तः क्रिया का कोई आधार नहीं है तो इस शिक्षण के साथ जोड़ना न्यायोचित नहीं, क्योंकि यह अन्तः क्रिया तो किन्हीं भी दो व्यक्तियों के मध्य किसी भी समय तथा किसी भी विषय पर सम्भव है लेकिन सभी को शिक्षण नहीं कहा जा सकता। 
अतः शिक्षा के इन दोनों ध्रुवों का महत्त्व तथा अस्तित्व तभी है जब इन दोनों के बीच होने वाली अन्तः क्रिया का एक निश्चित आधार हो और यह आधार हो सकता है - विषयवस्तु, जिसे एक को समझना है और दूसरे को उसे पहले को समझाना है। इसी का नाम है पाठ्यवस्तु या विषयवस्तु। इस आधार पर कह सकते हैं कि शिक्षा यदि द्विध्रुवीय है तो शिक्षण त्रिध्रुवीय (Tri-polar) हुआ।

ब्लूम के अनुसार भी शिक्षण त्रिध्रुवीय (Tri-polar) है। उनके अनुसार शिक्षण के ये तीन ध्रुव हैं -
(1) शिक्षण के उद्देश्य (Objectives of teaching), 
(2) सीखने के अनुभव (Learning experiences) तथा
(3) व्यवहार परिवर्तन (Change of behaviour) 

यदि शिक्षण के इन तीनों ध्रुवों पर गहराई से विचार किया जाये तो ये सीखने के अनुभवों के अन्तर्गत वे सभी बातें आती हैं जिनके माध्यम से शिक्षक अपने शिक्षण को विद्यार्थियों की दृष्टि से बोधगम्य तथा अपनी स्वयं की दृष्टि से प्रभावी बनाने का प्रयास करता है। इसी प्रकार व्यवहार परिवर्तन का पता तभी लगता है जब शिक्षण की समाप्ति से पूर्व उसका मूल्यांकन किया जाये।

शिक्षण प्रक्रिया के भाग

इस प्रकार शिक्षण प्रक्रिया को तीन तीन भागो में विभाजित किया जा सकता है :

1. शिक्षण पूर्व चिन्तन एवं तैयारी (Pre-thinking and preparation)

इसके अन्तर्गत उद्देश्य-निर्धारण, विषयवस्तु का चयन (यदि पूर्व निर्धारित नहीं है तो), शिक्षण-विधि, युक्तियों तथा तकनीकों का निश्चयन आती हैं।

2. वास्तविक शिक्षण (Actual teaching)

इसके अन्तर्गत जो क्रियायें है - कक्षा-व्यवस्था, पढ़ाने के साथ-साथ कक्षा प्रेक्षण, उपयुक्त युक्तियों तथा तकनीकों का प्रयोग, आवश्यकतानुसार उपयुक्त पुनर्बलनों का प्रयोग।

3. शिक्षणोपरान्त मूल्यांकन (Evaluation after teaching)

इसी को पाठोपरान्त मूल्यांकन अथवा पाठ की पुनरावृत्ति भी कह सकते हैं। इसके अन्तर्गत उद्देश्य आधारित मूल्यांकन, विषयवस्तु आधारित अवबोध का मूल्यांकन, व्यवहारगत परिवर्तन का परीक्षण, भविष्यगत सम्भावित परिवर्तनों पर विचार क्रिया आयेंगी।

शिक्षण के उद्देश्य Aims of Teaching

शिक्षण के विभिन्न उद्देश्य हैं। इनमें से शिक्षण के प्रमुख उद्देश्यों को निम्नलिखित प्रकार से देखा जा सकता है -
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों को उनके जीवन से सम्बन्धित उपयोगी ज्ञान प्रदान करना है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालक की मानसिक शक्तियों का विकास करना है। मानसिक शक्तियों के विकास से ही बालक उत्तम नागरिक बन सकता है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों को सीखने के लिये प्रेरित करना है। यदि बालकों में सीखने के प्रति प्रेरणा नहीं होगी तो वे अपने कार्य में रुचि नहीं लेंगे। 
  • बालकों की प्रवृत्तियाँ पशुवत् होती हैं। शिक्षण का उद्देश्य इनका शोधन करना होता है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों की कठिनाइयाँ दूर करना होता है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों का मार्ग प्रदर्शन करना है। बालकों का उचित मार्गदर्शन करना, उनकी रुचियों को ठीक मार्ग ले जाने के लिये आवश्यक होता है। शिक्षक अपने ज्ञान तथा अनुभव से बालकों का मार्ग प्रदर्शन करता है।
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों में आत्मविश्वास उत्पन्न करना है। शिक्षण बालकों में आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न करता है। आत्मविश्वास की भावना बालकों को जीवन में सफल बनाती है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों को सहयोग से रहना सिखाना है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसे समाज में रहना होता है। अतः बालक को सहयोग का पाठ पढ़ाया जाना आवश्यक है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालक को यह सिखाना है कि वह वातावरण के साथ किसी न किसी प्रकार की प्रतिक्रिया अवश्य करता है। शिक्षण बालक को वातावरण से समायोजन करना सिखाता है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों के संवेगों को प्रशिक्षित करना है। शिक्षण संवेगों को स्पष्ट करता है तथा संवेगों पर नियन्त्रण रखना सिखाता है। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों को क्रियाशीलता के अवसर प्रदान करना है। शिक्षण में क्रियाशीलता का विशेष महत्त्व है। शिक्षक को विद्यालय में क्रियाशीलता का वातावरण बनाये रखना चाहिये। 
  • शिक्षण का उद्देश्य बालकों को प्रगति मार्ग पर ले जाना है। शिक्षण प्रगतिशील होता है। शिक्षण के माध्यम से बालक की व्यक्तिगत और मानसिक प्रगति का प्रयास किया जाता है।

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