बाल अपराध का अर्थ व परिभाषा, विशेषताएँ और निवारण | Juvenile Delinquency

'बाल अपराध' से आप क्या समझते हैं? उसके कारणों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।, बाल अपराध का उपचार, अपराधी बालक कौन है?

बाल अपराध


juvenile-delinquency
Juvenile Delinquency

बाल अपराध का अर्थ व परिभाषा

सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए कुछ कानून होते हैं। इन कानूनों का पालन करना सबके लिए अनिवार्य होता है, चाहे वह वयस्क हो या बालक। यदि वयस्क उन कानूनों की अवहेलना करके समाज-विरोधी कार्य करता है, तो उसका कार्य, 'अपराध' कहा जाता है। यदि बालक या किशोर इस प्रकार का कार्य करता है, तो उसका कार्य 'बाल-अपराध' या 'किशोर अपराध' कहा जाता है।

विभिन्न देशों में बाल-अपराधियों की निम्नतम और उच्चतम आयु विभिन्न है। भारत में उसी बालक या किशोर का समाज विरोधी कार्य 'अपराध' माना जाता है, जिसकी निम्नतम आयु 7 वर्ष और अधिकतम आयु 16 वर्ष की होती है।
हम बाल अपराध और बाल अपराधी से सम्बन्धित कुछ परिभाषाएँ अंकित कर रहे हैं;

वेलेन्टाइन "मोटे तौर पर, 'बाल अपराध' शब्द किसी कानून के भंग किये जाने का उल्लेख करता है।"

स्किनर "बाल अपराध की परिभाषा किसी कानून के उस उल्लंघन के रूप में की जाती है, जो किसी वयस्क द्वारा किये जाने पर अपराध होता है।" 

क्लासमियर व गुडविन - "बाल अपराधी वह बालक या युवक होता है, जो बार-बार उन कार्यों को करता है, जो अपराधों के रूप में दण्डनीय हैं।"

गुड – "कोई भी बालक, जिसका व्यवहार सामान्य सामाजिक व्यवहार से इतना भिन्न हो जाय कि उसे समाज-विरोधी कहा जा सके, बाल अपराधी है।" 

बाल-अपराध का स्वरूप 

बाल अपराध के स्वरूप को हम उन अपराधों से सरलतापूर्वक समझ सकते हैं, जिनको बालक या किशोर करते हैं। इस प्रकार के कुछ अपराध हैं - चोरी करना, झूठ बोलना, नशा करना, जेब काटना, झगड़ा करना, चुनौती देना, सिगरेट पीना, व्यभिचार करना, तोड़-फोड़ करना, दूसरों पर आक्रमण करना, विद्यालय से भाग जाना, अपराधियों के साथ रहना, कक्षा में देर से आना, छोटे बालकों को तंग करना, बड़ों के विरुद्ध विद्रोह करना, दिन और रात में निरुद्देश्य घूमना, बस और रेल में बिना टिकट यात्रा करना, दीवारों पर उचित या अनुचित बातें लिखना, जुए के अड्डों और शराबखानों में आना-जाना, चोरों, डाकुओं, आवारा, बदचलन और दुष्ट व्यक्तियों से मिलना-जुलना, माता-पिता की आज्ञा के बिना घर से गायब हो जाना, सड़क 'पर चलते समय उस पर चलने के नियमों का पालन न करना, किसी की खड़ी हुई मोटरकार में बैठकर सैर के लिए चल देना आदि-आदि।

बाल अपराधी की विशेषताएँ 

क्लासमेयर एवं गुडविन के अनुसार

  • गठा हुआ और पुष्ट शरीर
  • जिद्दी, स्वार्थी, साहसी, बहिर्मुखी, अपराधी, विनाशकारी, आक्रमणकारी
  • प्रेम, ज्ञान, नैतिकता और संवेगात्मक संतुलन से रहित परिवार का सदस्य
  • संभोग में क्रूरता, व्यवहार में व्याकुलता और सामाजिक स्थिति प्राप्त करने की उत्सुकता
  • शीघ्र क्रुद्ध होना, दूसरों का विरोध करना, दूसरों को चुनौती देना, दूसरों पर संदेह करना, समाज-विरोधी कार्य करना, अधिकारियों की आज्ञा न मानना, समस्या को उचित विधि से हल न करना।

एलिस के अनुसार

अध्ययन में मन न लगना, औसत छात्रों से कम पढ़ना, बालकों और बालिकाओं का अनुपात क्रमशः 80 और 20 होना। 

कुप्पूस्वामी के अनुसार

अपराधी बालक के चरित्र की मुख्य विशेषता यह है कि वह वर्तमान आनन्द के सिद्धान्त में विश्वास करता है और भविष्य की चिन्ता नहीं करता है।


बाल अपराध के कारण 

मेडिनस व जॉन्सन का मत है - "सामाजिक समस्या के रूप में बाल अपराध में वृद्धि होती हुई जान पड़ती है। यह वृद्धि कुछ तो जनसंख्या की सामान्य वृद्धि के परिणामस्वरूप और कुछ जनसंख्या के अधिक भाग के ग्रामीण वातावरण के बजाय शहरी वातावरण में रहने के परिणामस्वरूप हो रही है।"

हम इस वृद्धि की व्याख्या, बाल अपराध के कारणों के आधार पर ही कर सकते हैं। ये कारण निम्नलिखित हैं।
  1. आनुवंशिक कारण 
  2. शारीरिक कारण 
  3. मनोवैज्ञानिक कारण 
  4. सामाजिक कारण
  5. पारिवारिक कारण 
  6. विद्यालय सम्बन्धी कारण 
  7. संवाद वाहन के साधन 
  8. सांस्कृतिक कारण 
हम इन कारणों का वर्णन इन्हीं शीर्षकों और उप-शीर्षकों के अन्तर्गत प्रस्तुत कर रहे हैं;

आनुवंशिक कारण 

अपराधी प्रवृत्ति 

अनेक मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बाल अपराधियों का जन्म होता है: इन मनोवैज्ञानिकों में लोम्ब्रोसो, माड्सले और डगडेल विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। उन्होंने अपने अन्वेषणों से सिद्ध किया है कि बालकों को अपराधी प्रवृत्ति अपने. माता-पिता से वंशानुक्रम द्वारा प्राप्त होती है। इसीलिए, वैलेनटीन ने लिखा है - "आनुवंशिक लक्षण, अपराधी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करते हैं।"

उत्पादक गुण-सूत्र 

मैडीनस एवं जानसन ने लिखा है कि व्यक्तियों में साधारणतः दो प्रकार के उत्पादक गुण-सूत्र होते हैं - स्त्रियों में XX और पुरुषों में XY असाधारण दशाओं में कुछ स्त्रियों में केवल X गुण-सूत्र और मनुष्यों में XYY गुण-सूत्र होते हैं। ऐसे मनुष्य बाल अपराधियों को जन्म देते हैं।

शारीरिक रचना 

बालक की शारीरिक रचना का आधारभूत कारण उसका वंशानुक्रम होता है। बाल अपराधियों को अपने वंशानुक्रम से एक विशेष प्रकार की शारीरिक रचना प्राप्त होती है, जिसे मेसोमोर्फिस अर्थात् खिलाड़ियों का-सा शरीर कहते हैं। इस शारीरिक रचना वाले बालक का शरीर गठा हुआ और पुष्ट होता है। ग्लूक एवं ग्लूक ने अपनी पुस्तकं Physique and Delinquency में अपने स्वयं के अध्ययनों के आधार पर लिखा है कि इस प्रकार की शारीरिक रचना और बाल-अपराध में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है।

शारीरिक कारण

शारीरिक दोष 

बालक के शारीरिक दोष उसके तिरस्कार के कारण बनते हैं। इस तिरस्कार से उनके आत्म-सम्मान को ठेस पहुँचती है। फलस्वरूप, वह तिरस्कार का बदला लेने के लिए दूसरों को कष्ट देने और सताने का अपराध करने लगता है। क्लिफोर्ड मैमसैट ने इसका एक उदाहरण दिया है। एक बालक की आँखें कमजोर थीं और वह पढ़ नहीं सकता था। दूसरे लड़के उसका मजाक उड़ाते थे। इससे उसके आत्म-सम्मान को चोट लगती थी। अतः उसने चश्मा लगाने वाले लड़कों के चश्मे चुराने आरम्भ कर दिये। पहले तो उसने ऐसा उनको तंग करने के लिये किया, पर धीरे-धीरे उसकी चोरी करने की आदत पड़ गई।

यौनांगों का तीव्र विकास 

जिन बालकों और बालिकाओं के यौनांगों का तीव्र विकास होता है, वे अनेक प्रकार के काम-सम्बन्धी अपराध करने लगते हैं; जैसे - हस्तमैथुन और सम या विषमलिंग के व्यक्तियों से सम्भोग ।

मनोवैज्ञानिक कारण

निम्न सामान्य बुद्धि 

निम्न सामान्य बुद्धि वाले बालकों में अपराधी प्रवृत्ति का सरलता से विकास होता है। वेलेनटीन ने लिखा है कि बर्ट ने जिन बाल अपराधियों का अध्ययन किया, उनमें से 4/5 में औसत से कम बुद्धि थी अर्थात् उनकी बुद्धि-लब्धि 100 से कम थी।

मानसिक रोग 

बालकों के मानसिक रोग उनको अपराधी बनाने के लिए उत्तरदायी होते हैं। इन रोगों से ग्रस्त बालकों में मानसिक तनाव, विचार शून्यता, असन्तुलन या अन्तर्द्वन्द्व उत्पन्न हो जाता है। ऐसी दशा में वे अपना आत्म-नियंत्रण खोने के कारण अपराध कर बैठते हैं।

अवरुद्ध इच्छा 

मैक्डूगल ने बताया है कि प्रत्येक मूलप्रवृत्ति के साथ एक संवेग जुड़ा रहता है। उदाहरणार्थ, 'पलायन' के साथ 'भय' का संवेग सम्बद्ध रहता है। जब मूलप्रवृत्ति अवरुद्ध हो जाती है, तब वह 'भावना ग्रन्थि' का निर्माण कर देती है। इससे बालक में बेचैनी उत्पन्न हो जाती है। यह बेचैनी उसकी दूसरी इच्छाओं को भी प्रभावित करती है। यही कारण है कि बालक धमकाने पर झूठ बोल सकता है, घर से भाग सकता है और दूसरे पर आक्रमण कर सकता है। दूसरी बात ध्यान देने योग्य यह है कि अवरुद्ध इच्छाओं के कारण बालक में मानसिक संघर्ष हो जाता है, जो अनेक अपराधों का कारण होता है।

निराशा

हारलॉक ने लिखा है - "आक्रमण, निराशा की सामान्य प्रतिक्रिया है। व्यक्ति जितना अधिक निराश होता है, उतना ही अधिक आक्रमणकारी हो जाता है।" 
इस कथन के आधार पर हम कह सकते हैं कि निरन्तर निराश रहने वाला बालक आक्रमणकारी बनकर बाल-अपराध का दोषी बनता है।

ग्रन्थियाँ 

जिस बालक में 'ग्रन्थियों' का निर्माण हो जाता है, वह थोड़े-बहुत समय के बाद कोई-न-कोई अपराध अवश्य करने लगता है। उदाहरणार्थ, 'विमाता-ग्रन्थि' या 'जीन भावना की ग्रन्थि' उसमें प्रतिशोध की भावना उत्पन्न करके उससे कोई भी असामाजिक कार्य करवा सकती है।

संवेगात्मक असन्तुलन 

बाल अपराध के मनोवैज्ञानिक कारणों में संवेगात्मक असन्तुलन सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। संवेगात्मक असुरक्षा, अपर्याप्तता, हीनता की भावना, प्रेम और सहानुभूति का अभाव और कठोर अनुशासन के प्रति पूर्ण समर्पण या उद्दण्ड कार्य न केवल बालक के व्यवहार और व्यक्तित्व को असमायोजित कर देता है, वरन् अपराध करने की भी प्रेरणा देता है। हीली एवं ब्रुनर ने जिन बाल-अपराधियों का अध्ययन किया, उनमें से 91 प्रतिशत ने यह बयान दिया कि उनके जीवन के कटु अनुभवों ने उनमें इतना संवेगात्मक असन्तुलन उत्पन्न कर दिया था कि वे मानसिक रूप से परेशान हो गये थे।

सामाजिक कारण

साथी 

अकेले बालक बहुत कम अपराध करता है, उसके साथ प्रायः कोई-न-कोई होता है। ग्लूक ने अपने अन्वेषणों से सिद्ध किया है कि जिन 500 अपराधी बालकों का उसने अध्ययन किया, उनमें से 95% शराबियों, जुआरियों, व्यभिचारियों और गुण्डों की संगति में रहे थे। होली ने बताया है कि अपराधी बालक किसी-न-किसी गुट के सदस्य अवश्य होते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि बालक बुरे साथियों की संगति में पड़कर अपराध करते हैं।

अवकाश 

यदि बालकों को अपना अवकाश बिताने के लिए मनोरंजन या खेल के उचित साधन प्राप्त नहीं हैं, तो उनका अनुचित दिशा में जाना स्वाभाविक होता है। बोगोट ने अपने अध्ययनों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि बाल अपराध अधिकतर या तो शनिवार और रविवार को होते हैं या 4-5 बजे के बीच में होते हैं। प्राय: इस समय बालक खाली रहते हैं।

नागरिक वातावरण

आधुनिक नगरों का वातावरण अत्यधिक कृत्रिम, दूषित और अनैतिक है। उनमें बाल अपराध को प्रोत्साहन देने वाले सभी साधन विद्यमान हैं; जैसे - मदिरालय, वेश्यालय, सस्ते मनोरंजन, कामुक चलचित्र, जुआ और सट्टा खेलने के अड्डे, लाउडस्पीकरों पर अश्लील गाने इत्यादि। जिस बालक पर उसके माता-पिता का पर्याप्त नियंत्रण नहीं होता है, वह इनके प्रभाव से वंचित नहीं रह पाता है। परिणामतः यह कुमार्ग पर चलने लगता है।

गन्दी बस्तियाँ 

मैडिनस एवं जानसन ने लिखा है - "समाजशास्त्रियों का तर्क है कि अधिकांश बाल अपराधी गन्दी बस्तियों के होते हैं।" उनके इस कथन को सत्य सिद्ध करने के लिए शॉ एवं मैकी ने अमेरिका के लगभग 25 नगरों के बाल-अपराधों का अध्ययन किया। उसके परिणामस्वरूप वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि गन्दी बस्तियों में बाल अपराधों की दरें सबसे अधिक थीं।

युद्ध

युद्ध, बाल अपराधों को तीन विशेष कारणों से प्रेरणा देते हैं। पहला, जिन बालकों के अभिभावक युद्ध-क्षेत्र में चले जाते हैं, उनकी ठीक देखभाल नहीं हो पाती है। दूसरा, जो मनुष्य युद्ध में मारे जाते हैं, उनमें से अधिकांश के बच्चे असहाय होते हैं। तीसरा, जिन देशों पर बम गिराये जाते हैं, उनके अनेक बच्चे अनाथ हो जाते हैं। ये सभी बच्चे अपने उदर की पूर्ति करने के लिए किसी प्रकार का भी अनैतिक कार्य करने में संकोच नहीं करते हैं।

देश का विभाजन 

इस कारण का भारत से विशेष सम्बन्ध है। विभाजन से पूर्व यहाँ बाल अपराधों की संख्या बहुत कम थी। विभाजन के कारण देश में हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक झगड़ों का ताँता लग गया। इनमें वयस्कों के अलावा किशोरों ने विशेष रूप से भाग लिया। फलस्वरूप कुछ समय तक बाल अपराधों की दरों में बहुत तेजी से वृद्धि हुई। इसका अनुमान आगे की तालिका से लगाया जा सकता है।

पारिवारिक कारण

भग्न परिवार 

बर्बाद परिवार, से हमारा अभिप्राय उस परिवार से है, जिसे जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए कोई साधन उपलब्ध नहीं होता है। ऐसा उस दशा में होता है, जब धनोपार्जन करने वाले की मृत्यु हो जाती है, या वह परिवार से अपना सम्बन्ध तोड़ देता है, या अनैतिकता का मार्ग अपनाकर किसी की चिन्ता नहीं करता है। ऐसी दशा में उसके परिवार के बालक, अपराध करने की ओर प्रवृत्त होते हैं। जानसन ने अपराधी बालकों के आँकड़े एकत्र करने पर यह पाया कि उनमें से 52% बर्बाद परिवारों के थे। हीली और ब्रुनर ने अमरीका के शिकागो और बोस्टन नगरों में 4,000 बालकों का परीक्षण किया और उनमें से 2,000 को बर्बाद परिवारों का पाया।

अनैतिक परिवार 

जिस परिवार में माता-पिता या अन्य सदस्य अनैतिक होते हैं, उसके बच्चे भी उन्हीं के समान होते हैं। मेबिल इलियट ने अमरीका के स्लाटन फार्म पर अपराधी लड़कियों का अध्ययन करने पर यह पाया कि उनमें से 67% लड़कियाँ अनैतिक परिवारों की थीं। वैलेनटीन ने लिखा है कि बर्ट को अपने अध्ययन में 54% बालक अनैतिक परिवारों के मिले।

परिवार की निर्धनता 

कुप्पूस्वामी के अनुसार- "अपराधी चरित्र का विकास करने में निर्धनता एक अति महत्वपूर्ण कारक है।" अत्यधिक निर्धन परिवार के बालकों को आरम्भ से ही खाने की वस्तुओं की चोरी करने या भीख माँगने के लिए बाध्य होना पड़ता है। कुछ परिवार ऐसे होते हैं, जिनमें बालकों और बालिकाओं को भोजन तो मिल जाता है, पर धनाभाव के कारण उनकी अन्य इच्छाएँ पूर्ण नहीं हो पाती हैं। 

बालक - पान, सिगरेट, सिनेमा आदि के लिए और बालिकाएँ-साज-शृंगार करने के लिए धन चाहती हैं। अतः बालक चोरी और बालिकाएँ व्यभिचार करके धन प्राप्त करने लगती हैं। ग्लूक ने 500 बाल-अपराधियों का परीक्षण करके यह खोज की कि उनमें से 66 ऐसे परिवारों के थे, जिनकी दैनिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं होती थीं और 252 ऐसे परिवारों के थे, जो बड़ी कठिनाई से अपनी दैनिक आवश्यकताओं को पूरा कर पाते थे। वेलेनटीन ने लिखा है कि बर्ट ने जिन बाल अपराधियों का अध्ययन किया, उनमें से आधे के परिवार निर्धन या अत्यधिक निर्धन थे।

परिवार का वातावरण 

यदि बच्चों के भाई-बहिन अपराधी हैं, यदि उनके माता-पिता उनको कठोर अनुशासन में रखते हैं, यदि परिवार के सदस्य आपस में लड़ते-झगड़ते हैं, यदि बच्चों पर शिथिल नियंत्रण है, तो वे अपराध के मार्ग पर चलने लगते हैं। यदि घर में उनके खेलने के लिए स्थान नहीं होता है, तो वे गलियों में घूमने लगते हैं और बुरी संगति में पड़कर अपराधी बन जाते हैं।

तिरस्कृत बच्चे

जो बच्चे माता-पिता द्वारा तिरस्कृत होते हैं, वे अपराध की ओर अग्रसर होते हैं। इस तिरस्कार का एक मुख्य कारण सौतेली माता या सौतेले पिता का होना माना जाता है। इन तिरस्कृत बच्चों को उनके प्यार के स्थान पर गलियों में घूमने वाले आवारा लोगों का प्यार मिलता है और वे कुछ समय के बाद उनके द्वारा बताये हुए अपराध के कार्यों को करने लगते हैं।

बच्चों के प्रति दुर्व्यवहार

कुप्पूस्वामी के शब्दों में "बाल अपराध का सबसे महत्वपूर्ण कारण बालक के द्वारा परिवार के दुर्व्यवहार का अनुभव किया जाना है।" यदि बालक को परिवार में बड़े व्यक्तियों द्वारा सदैव डाँटा या मारा जाता है, दोष निकाला जाता है और आलोचना की जाती है, तो वह अत्यधिक उदासीन और चिन्ताग्रस्त हो जाता है। वह परिवार से समायोजन करने का प्रयास करता है। जब वह ऐसा करने में असफल हो जाता है, तब विद्रोह कर उठता है और असामाजिक कार्य करने लगता है; जैसे - विद्यालय से भागना या घर से रुपया और आभूषण लेकर गायब हो जाना।

पिता की अनुपस्थिति या मृत्यु 

यदि पिता, परिवार से बहुत समय तक अनुपस्थित रहता है, तो बालक पर नियंत्रण शिथिल हो जाता है। स्वतंत्रता प्राप्त हो जाने के कारण वह घर से बाहर इधर-उधर जाकर बुरी संगति में पड़ जाता है। इसका स्वाभाविक परिणाम होता है - अपराध के मार्ग का अनुगमन करना। पिता की मृत्यु के कारण उसका बाल अपराधी बनना निश्चित-सा हो जाता है। इसका उदाहरण देते हुए मैडीनस एवं जानसन ने लिखा है - "क्योंकि नीग्रो जाति में पिता की मृत्यु दर सबसे अधिक है, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इस जाति में बाल-अपराध की दर सबसे अधिक है।"

विद्यालय सम्बन्धी कारण

स्थिति

हमारे देश में ऐसे अनेक विद्यालय हैं, जो नगर के दूषित और कोलाहलपूर्ण भागों में स्थित हैं। बालक वहाँ जाते हुए प्रतिदिन विभिन्न प्रकार के अमानवीय कृत्य देखते हैं। कुछ बालक उनसे प्रभावित होकर उनको अपने जीवन का अंग बना लेते हैं।

नियंत्रण का अभाव 

आजकल के विद्यालय, शिक्षा की दुकानें हो गई हैं, जिनमें धन प्राप्त करने के लिए संख्या की ओर ध्यान दिये बिना बालकों को भर लिया जाता है। ऐसे विद्यालयों में बालकों पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं होता है। फलस्वरूप वे अपनी इच्छानुसार कहीं भी घूमने के लिए या सिनेमा देखने के लिये जा सकते हैं। इस प्रकार के बालक क्रमश: बाल-अपराध के मार्ग को ग्रहण करते हैं।

खेल व मनोरंजन का अभाव 

इस समय भारतीय नेताओं को शिक्षा का प्रसार करने की धुन सवार है। अतः विद्यालयों को मान्यता प्रदान करने के समय इस बात पर रंचमात्र भी ध्यान नहीं दिया जाता है कि उनके पास बालकों के लिए खेल का पर्याप्त स्थान है या नहीं। विद्यालय भी खेल पर धन व्यय करना मूर्खता समझते हैं। खेल की व्यवस्था न होने के कारण बालकों के अनेक संवेग दमित अवस्था में पड़े रहते हैं, जो उभरने पर अति घातक सिद्ध होते हैं। वे बालकों को न केवल असमायोजित कर देते हैं, वरन् उनको विविध प्रकार के अपराध करने के लिए भी प्रेरित करते हैं।

परीक्षा प्रणाली 

हमारे विद्यालयों के छात्रों की परीक्षा लेने के लिए जिस प्रणाली का प्रयोग किया जाता है, उसमें कितने ही दोष हैं। यह प्रणाली मुख्य रूप से बालकों को परीक्षा भवनों में अनुचित साधनों का प्रयोग करने का अवसर देती है। यदि उनको ऐसा करने से रोका जाता है, तो वे मार-पीट, यहाँ तक कि हत्या भी कर देते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ बालक ऐसे भी होते हैं, जो परीक्षा में असफल होने के कारण घर से भाग जाते हैं - या आत्महत्या कर लेते हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि हमारी परीक्षा प्रणाली, बाल अपराधों को बढ़ावा देने का कार्य कर रही है।

व्यक्तिगत स्कूल

एच. जी. वेल्स ने व्यक्तिगत स्कूलों के बारे में लिखा है - "यदि आप इस बात का अनुभव करना चाहते हैं कि पीढ़ियों के बाद पीढ़ियाँ किस प्रकार पहाड़ी नदियों के वेग से विनाश की ओर बढ़ रही हैं, तो आप किसी प्राइवेट स्कूल को ध्यान से देखिए।" ये स्कूल, बालकों के शारीरिक, मानसिक और संवेगात्मक विकास के लिए उपयुक्त सुविधाएँ नहीं जुटाते हैं। फलतः अनेक बालकों का विकास विकृत रूप धारण कर लेता है और वे पक्के बाल अपराधी बन जाते है।

संवाद वाहन के साधन

प्रहसन की पुस्तकें 

प्रहसन की पुस्तकों का मुख्य उद्देश्य - बालकों का मनोरंजन करना है। इन पुस्तकों की विषय-सामग्री काल्पनिक होने के अलावा आक्रमणकारी और उत्तेजित करने वाली घटनाओं पर आधारित होती है। इसलिए, जैसा कि मैडीनस एवं जानसन ने लिखा है - कैलीफोर्निया राज्य की धारासभा ने अपनी एक रिपोर्ट में तर्क प्रस्तुत किये हैं कि बाल अपराधों का कारण बालकों द्वारा प्रहसन की पुस्तकों का पढ़ा जाना है।

सस्ते उपन्यास व पत्रिकाएँ

सस्ते उपन्यासों और पत्रिकाओं का मुख्य विषय युवकों और युवतियों का यौन सम्बन्ध पर आधारित प्रेम होता है। अतः हीली और ब्रूनर ने उनको बाल अपराधों के लिए उत्तरदायी ठहराया।

चलचित्र 

ब्लूमर एवं हौजर ने लिखा है कि चलचित्र - धन प्राप्त करने की अनुचित विधियों का सुझाव देकर, कामवासनाओं को भड़का कर और कुत्सित कार्यों को प्रदर्शित करके बाल अपराधों में अतिशय योग देते हैं। ब्लूमर ने लिखा है - "सन् 1933 में इलिनौस नगर में “The Wild Boys of the Road" नामक चलचित्र के प्रदर्शित होने के एक मास के अन्दर ही 14 बच्चे घर से भाग गये। इनमें एक 15 वर्ष की लड़की थी, जो बिल्कुल उसी प्रकार के वस्त्र पहने हुए थी, जैसे उस चलचित्र की प्रमुख नायिका ने पहन रखे थे।" 

टेलीविजन 

टेलीविजन के सम्बन्ध में अब तक तीन विस्तृत अध्ययन हुए हैं- 1958 में इंगलैंड में, 1961 में अमरीका में और 1962 में जापान में। इन अध्ययनों के आधार पर इसको बाल-अपराधों के लिए चलचित्र से अधिक दोषी ठहराया गया है। बैना, मैडीनस एवं जानसन का विचार है - "मैं विश्वास करता हूँ कि तरुण और परेशान किशोरों के लिए टेलीविजन, बाल अपराध का प्रारम्भिक प्रशिक्षण केन्द्र है।"

सांस्कृतिक कारक 

आधुनिक युग में हमारे जीवन के समान हमारी संस्कृति भी कृत्रिम हो गई है। उसके अर्थ और महत्व का लोप हो गया है। वह वयस्कों, किशोरों और बालकों की आवश्यकताओं को पूर्ण करने में असफल हो रही है। अतः बालक और किशोर उससे अपना सम्बन्ध विच्छेद करके समाज-विरोधी कार्यों संलग्न होते हुए दिखाई दे रहे हैं। मेडिनस व जान्सन के शब्दों में - "बीटनिक और हिपी आन्दोलन, सम्बन्ध विच्छेद का अधिक पूर्ण रूप व्यक्त करता है।"

बाल-अपराध का निवारण

बाल अपराध के निवारण, निरोध या रोकने के लिए परिवार, विद्यालय, समाज और राज्य अनेक महत्वपूर्ण कार्य कर सकते हैं

परिवार के कार्य

उत्तम वातावरण 

परिवार का वातावरण उसके सदस्यों के पारस्परिक सहयोग, समायोजन और सहानुभूति का आदर्श प्रतीक होना चाहिए। ऐसा वातावरण बाल-अपराध का घोर शत्रु होता है।

वृद्धि पर नियंत्रण 

छोटा परिवार सुखी परिवार होता है, क्योंकि ऐसे परिवार के सदस्यों में एक-दूसरे के प्रति आत्मीयता और निकटता की भावना होती है। अतः उसमें बाल-अपराध का जन्म होना कठिन है।

बालकों का निर्देशन 

बालक, ज्ञान और समझदारी की कमी के कारण बाल अपराध की ओर अग्रसर होते हैं। अतः उनके माता-पिता को शिक्षा, चित्रों, मनोरंजन आदि के सम्बन्ध में उनका पग-पग पर निर्देशन करना चाहिए। इस प्रकार निर्देशन प्राप्त करने वाले बालकों से बाल अपराध की आशा नहीं की जाती है।

बालकों का निरीक्षण 

माता-पिता को अपने बालकों के मध्य प्रतिदिन कुछ समय व्यतीत करके उनकी गतिविधियों का निरीक्षण करना चाहिए और आवश्यकता पड़ने पर उनको परामर्श भी देना चाहिए। ऐसे माता-पिता की सन्तान कुमार्ग पर नहीं चलती है।

बालकों के प्रति उचित व्यवहार 

माता-पिता को बालकों के प्रति उचित व्यवहार करना चाहिए। उन्हें न तो अधिक लाड़-प्यार करके बालकों को बिगाड़ना चाहिए और न अधिक कठोर अनुशासन में रखकर उनकी इच्छाओं का दमन करना चाहिए। इस प्रकार का व्यवहार पाने वाले बालकों में अपराध-प्रवृत्ति का विकास नहीं होता है।

बालकों के अध्ययन की व्यवस्था 

परिवार में बालकों के अध्ययन के लिए उचित व्यवस्था होनी चाहिए। इस उद्देश्य से उनके लिए शान्त और एकान्त स्थान सुरक्षित होना चाहिए। ऐसे स्थान में अध्ययन करके उनके मस्तिष्क का क्रमिक विकास होता चला जाएगा, जो उनको बाल-अपराध की हानियों से अवगत करायेगा। 

बालकों की आवश्यकताओं की पूर्ति 

माता-पिता को बालकों की सभी उचित आवश्यकताओं की पूर्ति करनी चाहिए। ऐसा न करने से बालक उनकी पूर्ति के लिए अनुचित उपायों का प्रयोग करके बाल अपराध के दोषी बन जाते हैं। 

बालकों के दैनिक व्यय की पूर्ति

बालकों को अपने दैनिक व्यय के लिए कुछ धन की आवश्यकता होना स्वाभाविक है। माता-पिता को अपनी आय को ध्यान में रखकर उनको दैनिक व्यय के लिए कुछ धन अवश्य देना चाहिए। ऐसा न करके वे स्वयं बालकों को धन की चोरी करने की शिक्षा देते हैं।

बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण 

माता-पिता को बालकों में अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए। ऐसी आदतों वाले बालक अनुचित कार्य करके अपराधी कहे जाने से घृणा करते हैं।

बालकों में आत्म निर्भरता का विकास

माता-पिता को बालकों में आत्म-निर्भरता के गुण का अधिक से अधिक विकास करना चाहिए। इस गुणा बालक अपनी आवश्यकताओं को स्वयं कार्य करके पूर्ण करने का प्रयास करते हैं और अनुचित उपायों को नहीं अपनाते हैं।

विद्यालय के कार्य 

उत्तम वातावरण 

विद्यालय को बालकों का शारीरिक, मानसिक, चारित्रिक और संवेगात्मक विकास करने के लिए उत्तम वातावरण का निर्माण करना चाहिए। 

बालकों की स्वतंत्रता 

विद्यालयों को बालकों की क्षमताओं और योग्यताओं का विकास करने के लिए उनको स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए। पर यह स्वतंत्रता नियंत्रित और निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत होनी चाहिए। 

तरुण गोष्ठियों की स्थापना 

विद्यालय में तरुण गोष्ठियों की स्थापना की जानी चाहिए। वैलेनटीन के अनुसार, ये गोष्ठियाँ बालकों को अपनी रुचियों और क्षमताओं को अभिव्यक्त करने का अवसर प्रदान करती हैं।

व्यक्तिगत विभिन्नताओं का विकास 

विद्यालयों को बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं का अध्ययन करके उनके अनुरूप शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। ऐसा करके वह बालकों की विभिन्न योग्यताओं का विकास करने में सफलता प्राप्त कर सकता है।

अच्छे पुस्तकालय की व्यवस्था 

विद्यालय में सभी प्रकार की बालोपयोगी पुस्तकों से सुसज्जित अच्छा पुस्तकालय होना चाहिए। साथ ही, बालकों को पुस्तकालय का सदुपयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

उपचारात्मक व व्यावसायिक कक्षायें 

विद्यालयों द्वारा बाल अपराध का निवारण करने के लिए एक नई विधि के प्रयोग का सुझाव देते हुए मैडीनस एवं जानसन ने लिखा हैं - "उपचारात्मक शिक्षा की कक्षाएँ और कुछ व्यावसायिक कक्षाएँ लाभप्रद सिद्ध हो सकती हैं।"

पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की व्यवस्था 

बालकों में सामाजिक सम्बन्धों का विकास करने के लिए विद्यालय में पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं की उत्तम व्यवस्था होनी चाहिए। एलिस का मत है - "बाल-अपराधियों को पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं में सम्मिलित करने का विशेष प्रयास किया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे उत्तम सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होती है।"

अनुत्तीर्ण होने की समस्या का समाधान 

परीक्षा में अनुत्तीर्ण होने के कारण कुछ छात्र, बाल-अपराधी बन जाते हैं। अतः एलिस का सुझाव है - "यदि हम सफलता की समस्या का समाधान करना चाहते हैं, तो हमें छात्रों का वर्गीकरण करना चाहिए और पाठ्यक्रम एवं शिक्षण विधियों में इस प्रकार सुधार करना चाहिए कि छात्र जो कुछ भी करें, उसमें सफल हों।"

वांछनीय सामाजिक दृष्टिकोणों का विकास 

एलिस का मत है - "बाल अपराध का मुख्य कारण अवांछनीय सामाजिक दृष्टिकोणों का विकास है। विद्यालय, सामाजिक दृष्टिकोणों के प्रति अधिक ध्यान देकर और विद्यालय से बाहर उपयुक्त क्रियाओं का आयोजन करके इस दिशा में बहुत कुछ कर सकता है।"

योग्य शिक्षकों की नियुक्ति 

विद्यालयों में नियुक्त किये जाने वाले शिक्षकों में अग्रांकित विशेषताएँ होनी चाहिए-
  1. उनको बाल मनोविज्ञान का पर्याप्त ज्ञान होना चाहिए, ताकि उनको बालकों की रुचियों, इच्छाओं और अभिवृत्तियों को समझने में किसी प्रकार की कठिनाई न हो। 
  2. उनको बालकों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए। 
  3. उनको बालकों का मित्र, सहायक और पथ-प्रदर्शक होना चाहिए। 
  4. उनको नवीनतम शिक्षण विधियों और शिक्षण के उपकरणों के प्रयोग में कुशल होना चाहिए। 
  5. उनको बालकों की समस्याओं का समाधान करने के लिए सदैव तत्पर रहना चाहिए।

समाज व राज्य के कार्य

बालकों की राजनीति से पृथकता 

राजनैतिक दल, बालकों को अनेक अनुचित कार्यों के लिए प्रयोग करके अपराध की ओर ले जाते हैं। अतः राज्य को कानून बनाकर 18 वर्ष तक की आयु के बालकों पर राजनैतिक कार्यों में भाग लेने पर प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए।

मनोरंजन की व्यवस्था 

समाज को बालकों के लिए मनोरंजन की उपयुक्त व्यवस्था करनी चाहिए, ताकि वे अपने अवकाश का उचित उपयोग सकें।

निर्धन बालकों की आर्थिक सहायता 

जो बालक निर्धन है, उनकी सम्पूर्ण शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिए। साथ ही, उनको अपनी शिक्षा के व्यय के लिए आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए।

निर्धन परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार 

बालकों द्वारा अपराध किये जाने का एक मुख्य कारण उनके परिवारों की निर्धनता है। अतः राज्य द्वारा इन परिवारों की आर्थिक स्थिति में सुधार किया जाना चाहिए।

चलचित्रों पर नियंत्रण 

चलचित्र, बालकों की अपराध-प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने में विशेष योग देते हैं। अतः राज्य द्वारा अपराधी और अनैतिक कार्यों का प्रदर्शन करने वाले चलचित्रों पर कड़ा नियंत्रण आरोपित किया जाना चाहिए।

सामूहिक संघों का निर्माण 

विभिन्न भागों के बालकों और किशोरों के सामूहिक संघों का निर्माण किया जाना चाहिए। इन संघों को किशोरों को सम्मिलित रूप से सामाजिक कार्य करने की प्रेरणा देनी चाहिए। इस प्रकार का सामूहिक कार्य उनमें सामाजिक समायोजन का विकास करेगा और साथ ही उनके व्यवहार को स्वस्थ दिशा में मोड़ेगा। 

गन्दी बस्तियों की समाप्ति

गन्दी बस्तियाँ, बाल-अपराधों के जन्म और विकास के लिए कुख्यात हैं। अतः इन बस्तियों को यथाशीघ्र समाप्त किया जाना चाहिए। यही कारण है कि सभी बड़े नगरों में यह कार्य किया जा रहा है।

अनैतिक कार्यों पर प्रतिबन्ध 

अनैतिक कार्यों को बाल अपराध की जननी कहा जा सकता है। अतः समाज को अनैतिकता से मुक्त करने के लिए सभी सम्भव प्रयास किये जाने चाहिए। इसी उद्देश्य से अनेक नगरों में वेश्यालयों को हटा दिया गया है और बम्बई, बंगाल, मद्रास आदि राज्यों में 'किशोर धूम्रपान अधिनियम' बनाकर 16 वर्ष से कम आयु के बालकों को धूम्रपान करने का निषेध कर दिया गया है।

बाल अपराध का उपचार

बाल-अपराध का उपचार करने के लिए दो प्रकार की विधियों का प्रयोग किया जा सकता है।
  1. मनोवैज्ञानिक।
  2. वैधानिक। 

मनोवैज्ञानिक विधियाँ

मनोविश्लेषण 

इस विधि में मनोविश्लेषक द्वारा अपराधी बालक के अचेतन मन का अध्ययन करके उसके दमित संवेगों और इच्छाओं का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। तदुपरान्त वह इनका विश्लेषण करके बालक द्वारा अपराध किये जाने के कारणों को जानने का प्रयास करता है। इस विधि की सफलता बालक के सहयोग पर निर्भर रहती है। अतः उसका सहयोग न मिलने पर मनोविश्लेषक को सफलता नहीं मिल पाती है।

मनो अभिनय 

इस विधि में बाल अपराधी को अपनी इच्छा के अनुसार किसी प्रकार का अभिनय करने का अवसर दिया जाता है। अभिनय करते समय वह अपने विभिन्न संवेग, विचारों, मानसिक संघर्ष आदि को स्वतंत्रतापूर्वक व्यक्त करता है। फलत: कुछ समय के बाद वह मानसिक शान्ति का अनुभव करता है और उसका व्यवहार संतुलित हो जाता है। 

खेल द्वारा चिकित्सा 

बाल अपराध का एक मुख्य कारण यह है कि बालक को अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति को अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता है। परिणामतः इस प्रवृत्ति का दमन हो जाता है, जो अवसर मिलने पर विनाशकारी कार्यों के रूप में प्रकट होती है। खेल द्वारा चिकित्सा में बालक को अपनी रचनात्मक प्रवृत्ति के अनुसार कोई भी वस्तु बनाने का अवसर दिया जाता है। इससे बालक की रचनात्मक प्रवृत्ति सन्तुष्ट हो जाती है। और उसके मन का विकार दूर हो जाता है। बाल-अपराधियों का उपचार करने में यह विधि बहुत सफल हुई है। इसलिए मैडीनस एवं जानसन ने लिखा है - "संवेगात्मक असन्तुलन वाले अधिकांश बाल अपराधियों की खेल द्वारा चिकित्सा की जाती है।"

वैधानिक विधियाँ 

कारावास 

बाल अपराध का परम्परागत उपचार है - कारावास इससे केवल एक लाभ होता है। वह यह कि कारावास में रहे बालक को जैसे-जैसे बन्दी की आयु में वृद्धि होती जाती है, वैसे-वैसे उसके व्यवहार में परिवर्तन होता जाता है। परिणामतः कारावास से मुक्त होने के पश्चात् उसकी अपराधी प्रवृत्ति निर्बल हो जाती है। ग्लूक एवं ग्लूक ने अपने अध्ययनों से सिद्ध किया है कि अनेक बाल-अपराधी 40 वर्ष की आयु प्राप्त करने पर अपराधी नहीं रह जाते हैं। मैडीनस एवं जानसन ने लिखा है - "अपराध का सम्बन्ध युवक से है। अतः अधिकांश किशोर अपराधी, अपराधी-वयस्क नहीं बनते हैं।"

किशोर न्यायालय 

जब कोई बालक या किशोर अपराध करता है, तब उसे साधारण न्यायालय में न ले जाया जाकर, किशोर न्यायालय में ले जाया जाता है। न्यायालय का वातावरण सहानुभूतिपूर्ण होता है। न्यायाधीश इस बात पर विचार करता है कि बालक का सुधार किस प्रकार किया जा सकता है। वह दो प्रकार की आज्ञाएँ देता है। उनके अनुसार अपराधी को या तो 'सुधार अधिकारी' के पास या 'सुधार गृह' में भेज दिया जाता है। इस समय भारत के अनेक राज्यों में किशोर न्यायालय हैं; जैसे - दिल्ली, बंगाल, बम्बई, मद्रास आदि।

प्रवीक्षण 

प्रवीक्षण या प्रोबेशन वह युक्ति है, जिसमें बाल-अपराधी को न्यायालय से दण्ड मिलने पर जेल न भेजकर कुछ शर्तों पर समाज में रहने की आज्ञा मिल जाती है। इस प्रकार, बालक को अपना सुधार करने का अवसर दिया जाता है। प्रोबेशन काल में उसे 'सुधार अधिकारी' के निरीक्षण में रहना पड़ता है। यह अधिकारी मित्र और संरक्षक के रूप में बालक में सुधार करने का प्रयास करता है। यदि प्रोबेशन काल में बालक में सुधार हो जाता है, तो उसे जेल नहीं जाना पड़ता है। इस समय भारत में उत्तर प्रदेश, मद्रास, बम्बई आदि के अनेक जिलों में सुधार अधिकारी हैं।

किशोर बन्दीगृह 

ये बन्दीगृह वास्तव में सुधार संस्थाएँ हैं। इनके बन्दियों को अपने परिवार के सदस्यों से मिलने की स्वतंत्रता होती है। वे बन्दीगृह में सामान्य और औद्योगिक शिक्षा प्राप्त करते हैं। उसको समाप्त करने के बाद वे नगर के किसी विद्यालय में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जा सकते हैं। इस समय हमारे देश में उत्तर प्रदेश में बरेली, उड़ीसा में अंगुल और बिहार में पटना में किशोर बन्दीगृह हैं।

किशोर-सुधारगृह 

ये एक प्रकार के औद्योगिक विद्यालय हैं, जहाँ बाल-अपराधियों को सुधारने का कार्य किया जाता है और सामान्य एवं व्यावसायिक शिक्षा दी जाती है। इस प्रकार के सुधारगृह - लखनऊ, बरेली, पूना, सतारा, नासिक, शोलापुर, धारवाड़ आदि में हैं।

बोस्टल संस्थाएँ 

ये संस्थाएँ बन्दीगृह और मान्यता प्राप्त स्कूलों के बीच की संस्थाएँ हैं। इनमें साधारणतः 15 से 20 वर्ष तक की आयु के बालक लाए जाते हैं। ये सस्थाएँ दो मुख्य कार्य करती हैं। ये बाल-अपराधियों को सुधारती हैं और उनको इस प्रकार की औद्योगिक या व्यावसायिक शिक्षा देती हैं कि वे जीवन में धनोपार्जन करने में सफल हो सकें। भारत में ये संस्थाएँ अग्रलिखित स्थानों में हैं - मद्रास में पालकोट, बंगाल में बेहरामपुर और बम्बई में धारवाड़। मैसूर और मध्य भारत में एक-एक बोस्टेल संस्था है।

Read More... 
इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।