कक्षा-कक्ष में सामाजिक अधिगम का प्रयोग | Social Learning Approach in the Class Room

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Social Learning Approach in the Class Room

कक्षा-कक्ष में सामाजिक अधिगम का प्रयोग

सामाजिक अधिगम का सिद्धान्त

आधुनिक युग में सीखने के अनेक सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये हैं; 
थार्नडाइक का उद्दीपक-प्रतिक्रिया सिद्धान्त (Thorndike's Stimulus-Response Theory), हल का प्रबलन सिद्धान्त (Hull's Reinforcement Theory), पॉवलोव का सम्बद्ध-प्रकिया सिद्धान्त (Pavlov's Conditioned Response Theory) इत्यादि।

"सीखने" की परिभाषा करते हुए ग्रैंडसन ने लिखा है - "सीखना - अनुभव या व्यवहार में परिवर्तन है।" 
"Learning is a change in experience or behavior." -Arden N. Frandsen.

शिक्षक - "सीखने" की इस परिभाषा को मान्यता प्रदान करते हैं। अत: वे "सीखने" के उपर्युक्त सिद्धान्तों की उपयोगिता तो स्वीकार करते हैं, पर इनके सम्बन्ध में उनकी आपत्ति यह है कि बालक पशु नहीं है। सीखने के इन सिद्धान्तों द्वारा पशुओं के व्यवहार में तो परिवर्तन किया जा सकता है, पर बालकों के व्यवहार में रूपान्तर किया जाना आवश्यक नहीं है 
उदाहरणार्थ - भूख पशु को भोजन का प्रलोभन देकर भूलभुलैयाँ में बाईं ओर मुड़ना सिखाया जा सकता हैं, पर बालक या बालिका के लिए इस प्रकार का प्रलोभन निरर्थक सिद्ध हो सकता है। इसका कारण यह है कि पशुओं और बालकों की सीखने की विधियों एवं प्रयोगशाला और कक्षा के वातावरण में पर्याप्त अन्तर होता है।

अतः शिक्षकों का तर्क है कि प्रयोगशाला के वातावरण में पशुओं पर प्रयोग करके प्रतिपादित किए जाने वाले सीखने के सिद्धान्तों का कक्षा के वातावरण में बालकों के लिए आने अल्प महत्त्व है। शिक्षकों के इस विचार से सहमत होकर रॉटर (J. B. Rotter) ने 1954 में अपनी पुस्तक "Social Learning and Clinical Psychology" में "सामाजिक अधिगम का सिद्धान्त" प्रतिपादित किया।

सामाजिक अधिगम का अर्थ

सामाजिक मनोविज्ञान का आधारभूत तथ्य यह है कि व्यक्ति एक - दूसरे के सम्पर्क में आना चाहते हैं और एक-दूसरे से दूर भी रहना चाहते हैं । दूसरे व्यक्तियों से सम्पर्क स्थापित करने की प्रवृत्ति सार्वभौमिक है, क्योंकि सम्पर्क के द्वारा ही व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। 
उदाहरणार्थ - शिशु - भोजन, सुरक्षा, आराम आदि शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हे लिए दूसरों से सम्पर्क चाहता है। सम्पर्क स्थापित करने की यह प्रक्रिया आजीवन चलती रहती है। बालक, किशोर और वयस्क के रूप में हम दूसरों से सम्पर्क स्थापित करते रहते हैं।

हम अपने जीवन में दूसरों से न केवल सम्पर्क स्थापित करना सीखते हैं, वरन् यह भी सीखते हैं कि दूसरों को सहयोग देकर और उनकी इच्छाओं की पूर्ति करके, हम अपनी स्वयं की अनेक इच्छाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उनका सहयोग और सहायता प्राप्त कर सकते हैं। इतना ही नहीं, दूसरों के सम्पर्क में आकर, हम अनेक नये अनुभव प्राप्त करते हैं और अनेक नई बातें सीखते हैं, जिनके फलस्वरूप हमारे व्यवहार में चेतन अथवा अचेतन रूप में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार, अधिगम एक सामाजिक प्रक्रिया है ।

मर्सेल (Mursell) के अनुसार - अधिगम अनेक प्रकार का है; जैसे-मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक और सामाजिक अधिगम (Intellectual, Motor, Emotional and Social Learning)। विस्तृत अर्थ में सभी प्रकार का अधिगम-सामाजिक होता है, क्योंकि इसी के कारण व्यक्ति के व्यवहार में परिवर्तन होता है। पर 'सामाजिक अधिगम अपनी एक विचित्र विशेषता के कारण सभी प्रकार के अधिगम से भिन्न है। इस विशेषता को मरसेल ने अग्रांकित शब्दों में व्यक्त किया है - "सामाजिक अधिगम की एक विचित्र विशेषता यह है कि यद्यपि हम सारे समय इसकी प्रक्रिया में व्यस्त रहते हैं, पर हमको बहुधा इस बात का कोई ज्ञान नहीं होता है कि हम कुछ सीख रहे हैं।" 

हम 'सामाजिक अधिगम' का अर्थ और अधिक स्पष्ट करने के लिए दो लेखकों के विचारों को लेखबद्ध कर रहे हैं; 

1. लिण्डग्रेन "सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया सम्पर्क के कारण आरम्भ होती है।"
2. मरसेल "सामाजिक अधिगम किसी चुनौती या समस्या से आरम्भ होता है, जिसके लिए कोई तात्कालिक और बना-बनाया समाधान नहीं होता है।"

कक्षा में सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया

कक्षा में सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया को इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है; कक्षा में बालक, समूह में होते हैं। ये बालक विभिन्न प्रकार के होते हैं। कुछ बालक, शिक्षण-कार्य में सहयोग देते हैं, उसमें रुचि लेते हैं, शिक्षक की बातों को ध्यान से सुनते हैं और उसके प्रति भक्ति रखते हैं। इसके विपरीत, कुछ बालक, शिक्षण-कार्य में सहयोग नहीं देते हैं, उसमें रुचि नहीं लेते हैं, शिक्षक की बातों को ध्यान से नहीं सुनते हैं और उसके शिक्षण से कुछ-न-कुछ मात्रा में प्रभावित होते हैं। साथ ही, उनमें अन्तःक्रिया (Interaction ) भी होते हैं। 
इस अन्त:क्रिया के कारण, वे एक-दूसरे को अपने व्यवहार से उद्दीप्त (Stimulate) करते हैं और होते हैं, एवं इस प्रकार एक-दूसरे के व्यवहार को प्रबल (Reinforce) बनाते हैं। इन सब बातों से परिचित होने के कारण आधुनिक शिक्षक यह जानता है कि अधिगम की मात्रा मुख्यत: छात्रों की अन्त:क्रिया द्वारा निश्चित होती है। कोलेसनिक के अनुसार - "आधुनिक शिक्षक यह जानता है कि जो अधिगम होता है, उसकी मात्रा और गुण निर्धारण बहुत अधिक सीमा तक छात्रों की अन्तःक्रिया द्वारा किया जाता है।"

कक्षा की सामाजिक स्थिति में छात्रों की अन्त:क्रिया के फलस्वरूप सामाजिक अधिगम की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है, जिसके कारण बालक कुछ-न- कुछ सीखते रहते हैं, और उनके सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन होता रहता है। इस प्रकार सामाजिक अधिगम में अन्त:क्रिया का केन्द्रीय स्थान है। इसकी पुष्टि करते हुए व्हाइट ने लिखा है - "आधुनिक समय में अधिगम में अन्तःक्रिया का केन्द्रीय स्थान है । जबकि छात्र युग्मीय (दो की) स्थिति या समूहों में अपने व्यवहार से दूसरे को उद्दीप्त करता है, तब स्वयं उसका व्यवहार भी प्रबल बनता है।"

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाले कारक

कक्षा में सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाले अनेक कारक हैं। हम इनमें से अधिक महत्त्वपूर्ण का वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं ;

ध्यान

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाला पहला कारक है ध्यान । शिक्षक, बालकों के प्रति साधारण से अधिक ध्यान देकर उनके व्यवहार में परिवर्तन कर सकता है। लिंडग्रेन (Lindgren) ने लिखा है - "इस बात की भविष्यवाणी की जा सकती है कि जो व्यक्ति दूसरों के व्यवहार में परिवर्तन करने का प्रयत्न करते हैं, वे उनके प्रति साधारण से अधिक ध्यान देकर सफलता प्राप्त करते हैं।" 

इस तथ्य की पुष्टि एलेन डी. कालविन (Allen D. Calvin) के अनुसन्धान द्वारा की गई। उसने मनोविज्ञान की अपनी छात्राओं से उन बालिकाओं की ओर विशेष ध्यान देने प्रशंसा करने के लिए कहा, जो नीले कपड़े पहिने हुए थीं। पहले दिन केवल 25% बालिकाएँ भाले कपड़े पहने हुए थीं। पाँच दिन तक ध्यान दिये जाने और प्रशंसा किये जाने के बाद 37% बालिकाएँ नीले कपड़ों में दिखाई देने लगीं। जब ध्यान और प्रशंसा के कार्य बन्द कर दिये गये. तब नीले कपड़े पहिनने वाली बालिकाओं की संख्या घटकर 27% रह गई। लिण्डग्रेन (Lindgren) द्वारा उद्धृत।

उपर्युक्त अनुसन्धान के आधार पर हम कह सकते हैं कि शिक्षक भी बालकों के प्रति साधारण से अधिक ध्यान देकर उनके व्यवहार में परिवर्तन कर सकता है अर्थात् उन्हें नई बात सरलता से सिखा सकता है। लिण्डग्रेन का कथन है - "जब व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के विशेष ध्यान के पात्र बन जाते हैं, तब उनको अपने व्यवहार में परिवर्तन करने या सीखने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।"

अनुकरण

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाला दूसरा कारक है - अनुकरण। बालक-दूसरे बालकों और व्यक्तियों के व्यवहार का अवलोकन और अनुकरण करके अनेक बातें सीखते हैं। इसका सर्वोत्तम उदाहरण है - भाषा को सीखना। छोटे बच्चे शब्दों और वाक्यों द्वारा अपने भावों या विचारों को दूसरे व्यक्तियों के बोलने का अनुकरण करके सीखते हैं। 

व्हाइट (White) ने दूसरे व्यक्तियों के अन्तर्गत शिक्षकों, वयस्कों, अभिभावकों और बालकों के साथियों को स्थान दिया है और इनको "मॉडल" (Model) की संज्ञा दी है। बालकों को अपने जीवन में इन जीवित या वास्तविक मॉडलों (Actual or Real Life Models) के अलावा सांकेतिक मॉडलों (Symbolic Models) के भी दर्शन होते हैं; जैसे-कहानी, चित्र, पुस्तक, फिल्म, सिनेमा, रेडियो और टेलीविजन। व्हाइट (White) का मत है - "आधुनिक अमरीकी समाज में सिनेमा, टेलीविजन और रेडियो-बालकों के व्यवहार का निर्माण करने में सबसे प्रभावपूर्ण मॉडल सिद्ध हो रहे हैं।"

बालकों के अनुकरणात्मक व्यवहार के सम्बन्ध में व्हाइट (White) ने चार मुख्य बातें बताई हैं। पहली, बालक अपने उन साथियों (Peers) का अधिक अनुकरण करते हैं, जो बार-बार उनके सामने आते हैं। दूसरी, बालक अपने साथियों के बजाय वयस्कों का अधिक अनुकरण करते हैं। तीसरी, बालक-बालकों का और बालिकायें-बालिकाओं का अधिक अनुकरण करती हैं। चौथी, निम्न मानसिक योग्यता के बालक, श्रेष्ठ मानसिक योग्यता के बालकों का अधिक अनुकरण करते हैं।

उपर्युक्त वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं कि विद्यालय की कक्षा में बालकों को उत्तम अनुकरण के लिए अधिक-से-अधिक अवसर मिलना चाहिए। यह तभी सम्भव है. जब शिक्षक और छात्र वांछनीय व्यवहार के आदर्श उपस्थित करें। साथ ही, विद्यालय और उसके कक्षों में सांकेतिक मॉडलों की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिए। इनकी उपयोगिता बताते हुए, बन्दा बबाल्टर्स ने लिखा है - "मॉडलों की वास्तविक या सांकेतिक रूप में व्यवस्था-व्यवहार को सम्प्रेषित और नियंत्रित करने की अत्यधिक प्रभावपूर्ण विधि है।"

एकरूपता

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाला तीसरा कारक है - एकरूपता। इस शब्द का सामान्य अर्थ है - कार्य, विचार, व्यवहार आदि में किसी दूसरे व्यक्ति के समान होना। एकरूपता का आधार - अनुकरण है। अनुकरण की प्रक्रिया ही एकरूपता को जन्म देती है। व्हाइट (White) का कथन है - "बालक और वयस्क द्वारा मॉडलों के अनुकरण का प्रत्यक्ष परिणाम एकरूपता की धारणा है।" 

"एकरूपता" के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए, हम बन्दुरा व वाल्टर्स की अग्रांकित परिभाषा को उद्धृत कर रहे हैं - "एकरूपता, व्यक्ति की वह प्रवृत्ति है, जिसके कारण वह जीवित या सांकेतिक मॉडलों द्वारा व्यक्त किये जाने वाले  कार्यों, अभिवृत्तियों या संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं को पुन: व्यक्त करता है।"

"एकरूपता" की उपर्युक्त परिभाषा से सामाजिक अधिगम में इसकी उपयोगिता प्रमाणित हो जाती है। इसकी पुष्टि बन्दुरा तथा वाल्टर्स (Bandura and Walters) ने अपने अध्ययनों द्वारा की। उनका कहना है कि "एकरूपता" सामाजिक अधिगम में तीन प्रकार की सहायता कर सकती है
  1. निरीक्षणकर्ताओं अर्थात् बालकों को नये प्रकार का व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। 
  2. बालकों के उस व्यवहार को प्रवल बनाया जा सकता है, जो उनमें विद्यमान है। 
  3. बालकों में पाये जाने वाले व्यवहार को रोका जा सकता है।
स्पष्ट है कि सामाजिक अधिगम में एकरूपता बहुत सहायक हो सकती है। इसका प्रयोग करके बालकों के कार्यों विचारों, अभिवृत्तियों, व्यवहार के प्रतिमानों आदि में वांछनीय परिवर्तन किये जा सकते हैं। मुसेन, कॉपर व केगन ने ठीक ही लिखा है - "एकरूपता उस प्रक्रिया का उल्लेख करती है, जिसके कारण बालक इस प्रकार सोचने, अनुभव करने और व्यवहार करने लगता है, मानो उसमें किसी दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की विशेषताएँ हों।"

मॉडल की विशेषतायें

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाला चौथा कारक है - मॉडल की विशेषताएं । इस सन्दर्भ में व्हाइट ने लिखा है - "मॉडल का अवलोकन करके, सीखना सुविधाजनक प्रतीत होता है। मॉडत की सामाजिक विशेषताएँ - निरीक्षणकर्ता (छात्र) के अनुकरणात्मक व्यवहार के सीखने को प्रभावित करती हैं।"

मरसेल (Mursell) के अनुसार - बालकों के मॉडलों (Models) के अन्तर्गत वे व्यक्ति आते हैं, जिनमें अधिक बुद्धि और अधिक योग्यता होती है, जिनकी सामाजिक स्थिति उच्च होती है और जिनके व्यवहार को सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है। इन मॉडलों में शिक्षकों, अभिभावकों, अन्य वयस्कों और बालकों के साथियों को स्थान दिया गया है। इनमें प्रमुख स्थान शिक्षकों और अभिभावकों का है। उनके व्यवहार का अवलोकन करके बालकों के लिए सीखने का कार्य सुगम हो जाता है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार की उनकी सामाजिक विशेषतायें होती हैं, उसी प्रकार का व्यवहार बालकों के द्वारा सीखा जाता है। 

शिक्षकों और अभिभावकों की विभिन्न सामाजिक विशेषताओं का बालकों के व्यवहार पर विभिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है। इस सम्बन्ध में होल्म, पावलिन, सीयर्स, बन्दरा एवं वाल्टर्स (Holm, Pauline, Sears, Bandura and Walters) आदि अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये गये हैं। उनके अध्ययनों के परिणामों को व्हाइट (White) ने इस प्रकार अंकित किया है:
  1. बालक उस शिक्षक के व्यवहार का विशेष रूप से अनुकरण करते हैं, जिनका उनके भविष्य पर नियन्त्रण होता है, बजाय उस शिक्षक के व्यवहार का, जिसका उनके भविष्य पर किसी प्रकार का नियन्त्रण नहीं होता है।
  2. बालक उस शिक्षक के व्यवहार का विशेष रूप से अनुकरण करते हैं, जो विद्यालय में स्थायी पद पर होता है, बजाय उस शिक्षक के व्यवहार का, जो अस्थायी पद पर थोड़े समय कार्य करता है। 
  3. जिन बालकों को अपने पिताओं और शिक्षकों का प्रेम प्राप्त होता है, वे उनके व्यवहार का अनुकरण करके, उनसे एकरूपता (Identification) स्थापित कर लेते हैं। 
  4. यदि बालक अपने शिक्षकों या अभिभावकों को नियम विरोधी कार्य करते हुए देखते हैं, तो उनका अनुकरण करके वे भी वैसा ही करने लगते हैं; उदाहरणार्थ - यदि शिक्षक या अभिभावक-सड़क पर चलने के नियमों का पालन नहीं करते हैं, तो बालक भी नहीं करते हैं। ऐसी स्थिति में बालक का तर्क यह होता है - "यदि मेरे माता-पिता ऐसा करते हैं, तो मैं भी ऐसा कर सकता हूँ।"
  5. यदि बालक अपने शिक्षकों या अभिभावकों को आक्रमणकारी व्यवहार करते हुए देखते हैं, तो उनका अनुकरण करके वे भी उसी प्रकार का व्यवहार करने लगते हैं। 
  6. यदि मॉडल ने अपने परिश्रम या कार्यों के फलस्वरूप धन, ख्याति, प्रतिष्ठा, सम्पत्ति, सफलता, उपाधियाँ, उच्च स्थिति या राजनीतिक शक्ति प्राप्त की है, और बालकों को इस बात का ज्ञान है, तो उन पर मॉडल के व्यवहार का गहरा और व्यापक प्रभाव पड़ता है और वे उसका अधिक-से-अधिक अनुभव करते हैं।
मॉडलों की विशेषताओं के सम्बन्ध में जो अध्ययन किए गए हैं, उनके परिणामों का सार प्रस्तुत करते हुए, बन्दुरा व वाल्टर्स ने लिखा है - "उन मॉडलों का अधिक तत्परता से अनुकरण किया जाता है, जो पुरस्कार देते हैं, सम्मानपूर्ण होते हैं, या सुयोग्य होते हैं, जिनकी स्थिति उच्च होती है, और जिनका पुरस्कार देने के साधनों पर अधिकार होता है, बजाय उन मॉडलों के, जिनमें इन गुणों का अभाव होता है।"

मॉडलों की विशेषताओं के सम्बन्ध में किये गये अध्ययनों से व्हाइट (White) ने यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि छात्र और शिक्षक में एकरूपता (Identification) होती है, तो छात्र-शिक्षक के व्यवहार का स्वयं ही अनुकरण करना आरम्भ कर देता है और शिक्षक को इस बात की जानकारी भी नहीं हो पाती है। अत: कक्षा में सामाजिक अधिगम को सफल बनाने के लिए छात्र और शिक्षक में एकरूपता की स्थापना-आधारभूत शर्त है। दोनों में एकरूपता स्थापित हो जाने के बाद शिक्षक द्वारा किसी प्रकार का प्रयास न किये जाने पर भी बालक उससे हर घड़ी कुछ-न-कुछ सीखते रहते हैं। सामाजिक अधिगम के इस सिद्धान्त को सभी शिक्षकों द्वारा स्वीकार किया जाता है। व्हाइट (White) के शब्दों में - "सामाजिक अधिगम के इस सिद्धान्त को सभी शिक्षकों द्वारा स्वीकार किया जाता है-बालक कक्षा में केवल बैठे हुए देखते हुए, और सुनते हुए बहुत-सी बातें सीख लेते हैं। वे शिक्षक और अन्य छात्रों के व्यवहार का अवलोकन करके सीखते हैं।"

अन्त में, हम लिंडग्रेन के शब्दों में कह सकते हैं - "मॉडल की सामाजिक विशेषताएँ, निरीक्षणकर्ता (छात्र) के आदर्श व्यवहार के अधिगम को प्रभावित कर सकती हैं, न केवल उन विशेषताओं को अपने व्यवहार में प्रकट करने की उसकी इच्छा हो।"

निरीक्षणकर्ता की विशेषताएँ

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाला पाँचवाँ कारण है - निरीक्षणकर्ता की विशेषतायें। निरीक्षणकर्ता का प्रयोग, छात्र के लिए किया गया है, क्योंकि वह मॉडल के व्यवहार का निरीक्षण करता है।

कक्षा में अनेक छात्र होते हैं और सभी के गुणों या विशेषताओं में अन्तर होता है। अतः यह आवश्यक नहीं है कि सभी छात्र शिक्षक के व्यवहार का समान रूप से अनुकरण करके समान मात्रा में सीखें। व्हाइट ने ठीक ही लिखा है - "कुछ व्यक्ति दूसरों की अपेक्षा अनुकरणात्मक व्यवहार से अधिक प्रभावित होते हैं।"

अनुकरणात्मक व्यवहार में कम या अधिक प्रभावित होने का कारण है  - छात्रों की विशेषतायें। विभिन्न विशेषताओं वाले छात्रों पर शिक्षक के व्यवहार का विभिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता है। इस सम्बन्ध में रॉस, रोजेनहान, मिलर एवं डोलर्ड (Ross, Rosenhan, Miller and Dollard) आदि अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये गये हैं। व्हाइट (White) ने इन अध्ययनों के परिणामों को इस प्रकार अंकित किया है

  1. दूसरों पर कम निर्भर रहने वाले बालकों की तुलना में अधिक निर्भर रहने वाले बालक वयस्क और साथी मॉडल (Adult and Peer Model) के व्यवहार से अधिक सरलता से प्रभावित होते हैं और अधिक आज्ञाकारी होते हैं। 
  2. अधिक निर्भर रहने वाले बालकों की तुलना में कम निर्भर रहने वालें बालक अधिक सीखते हैं।
  3. जिन बालकों में निर्भरता की आदत पड़ जाती है, वे अपने व्यवहार की दूसरा से स्वीकृति चाहते हैं, उनके निकट रहना चाहते हैं और उनके ध्यान तथा सहायता के इच्छुक रहते हैं। 
  4. निर्भरता के लिए माता-पिता द्वारा पुरस्कृत किए जाने वाले बालक अपने व्यवहार की सामाजिक स्वीकृति के लिए अधिक लालायित रहते हैं।
  5. प्रेम के अभिलाषी बालक शिक्षक से एकरूपता ( Identification ) स्थापित करने और उसके व्यवहार का अनुकरण करने के लिए अधिक तत्पर रहते हैं। 
  6. अयोग्य बालक जिनके कार्यों की बहुत कम प्रशंसा की जाती है, सफल मॉडल के व्यवहार का अत्यधिक अनुकरण करते हैं। (बालक समझते हैं कि ऐसे मॉडल का अनुकरण करके, वे भी सफल हो सकते हैं।)
  7. उच्च कक्षाओं के बालकों की तुलना में निम्न कक्षाओं के बालक सामाजिक स्वीकृति (Social Approval ) के प्रति अधिक प्रतिक्रिया करते हैं। सामाजिक स्वीकृति न मिलने पर वे अपने कार्यों को स्थगित कर देते हैं।
  8. संवेगात्मक उत्तेजना (Emotional Arousal ) से रहित बालकों की तुलना में संवेगात्मक उत्तेजना से युक्त बालक
  9. मॉडल के व्यवहार का अधिक और बार - बार अनुकरण करते हैं। 
  10. पुरुषों की - सी प्रबल रुचियों रखने वाले बालक अपने बलवान और शक्तिशाली पिता के व्यवहार का अनुकरण करते हैं।
  11. संवेगात्मक उत्तेजना से रहित बालकों की तुलना में संवेगात्मक उत्तेजना से युक्त बालक अधिक क्रियाशील होते हैं और अधिक सीखते हैं।
व्हाइट (White) ने अन्तिम निष्कर्ष पर विशेष बल दिया है। उसका कहना है कि शिक्षकों को इस तथ्य को हृदयंगम कर लेना चाहिए कि जब बालक संवेगात्मक रूप से उत्तेजित या तनाव (Tension) की दशा में होते हैं, तब उनके लिए सीखने का कार्य अधिक सुविधाजनक हो जाता है। उदाहरणार्थ: जब बालक परीक्षा, अभिनय, वाद-विवाद प्रतियोगिता, व्यायाम-प्रदर्शन आदि में सफलता प्राप्त करने के उद्देश्यों से चिन्तित होकर तनाव की दशा में होता है, तब उनकी सीखने की गति तीव्र हो जाती है। अत: शिक्षकों को व्हाहट का परामर्श है - "जब बालक संवेगात्मक रूप से उत्तेजित हों, तब शिक्षकों को न केवल उनके अधिक उत्तम सीखने से लाभ उठाना चाहिए, वरन् शिक्षकों को स्वीकृत लक्ष्यों की ओर बालकों की संवेगात्मक प्रतिक्रियाओं को जाग्रत करने के लिए भी योजना बनानी चाहिए । बालकों के संवेगों को जाग्रत करने में शिक्षक की रुचि से किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए।"

निरीक्षणकर्ता की विशेषताओं के सम्बन्ध में जो परीक्षण किये गये हैं, उनसे सिद्ध हो गया है कि विभिन्न प्रकार की विशेषतायें, विभिन्न प्रकार के सामाजिक व्यवहार को प्रोत्साहित करती है। सामाजिक व्यवहार की इस विभिन्नता का बालकों के सामाजिक अधिगम से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है; 
उदाहरणार्थ - निर्भरता को कम या अधिक विशेषता रखने वाले बालकों के अधिगम में विभिन्नता मिलती है। इसी प्रकार, संवेगात्मक रूप से उत्तेजित बालक शीघ्र और अधिक सीखते हैं।

अत: शिक्षकों को बालकों की उन विशेषताओं के अनुसार शिक्षा का आयोजन करना चाहिए, जो कक्षा में उनको शीघ्र और अधिक सामाजिक अधिगम में सहायता दें।

प्रबलन

सामाजिक अधिगम में सहायता देने वाला अन्तिम कारक है - प्रबलन। कुछ मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस शब्द का प्रयोग 'पुरस्कार' के स्थान पर किया जाता है। इसका पुष्टिकरण लिण्डग्रेन के अग्रांकित शब्दों द्वारा किया जा सकता है -"प्रबलन शब्द, वह शब्द है, जिसे कुछ मनोवैज्ञानिक अधिगम का विवेचन करते समय 'पुरस्कार' शब्द से अधिक पसन्द करते हैं।"
बिग एवं हण्ट (Bigge and Hunt) ने अपनी पुस्तक "Psychological Foundations of Education" में प्रबलन के निम्नलिखित दो प्रकार बताये हैं 

सकारात्मक प्रबलन

इनमें कोई उद्दीपक (Stimulus) उपस्थित किया जाता है, जिसके फलस्वरूप बालक के व्यवहार का पुष्टीकरण होता है; जैसे - शिक्षक की मुस्कान (Smile)। 

नकारात्मक प्रबलन

इसमें किसी उद्दीपक को हटा लिया जाता है, जिसके फलस्वरूप बालक के व्यवहार का पुष्टीकरण होता है; जैसे - शिक्षक की घुड़की (Frown)।

सकारात्मक और नकारात्मक प्रबलन के सम्बन्ध में बी. एफ. स्किनर (B. F. Skinner) की चेतावनी है कि सकारात्मक प्रबलन को सुखद और नकारात्मक प्रबलन को दुःखद नहीं समझा जाना चाहिए। उसने सकारात्मक और नकारात्मक प्रबलन को पुरस्कार और दण्ड का समानार्थी न माना जाकर, दोनों ही पुरस्कार माना है। इस सन्दर्भ में बिग व हण्ट का कथन महत्त्वपूर्ण है - "दण्ड की प्रक्रिया, प्रबलन की प्रक्रिया से मौलिक रूप से भिन्न है। जबकि प्रबलन की परिभाषा किसी प्रतिक्रिया को प्रबल बनाने के रूप में की जाती है, दण्ड एक ऐसी प्रक्रिया है, जो प्रतिक्रिया को निर्बल बनाती है।"

प्रबलन के सम्बन्ध में स्लैक, रेबन, लिन्डस्ले (Slack, Rebon, Lindsley) आदि अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये गये हैं अपने अध्ययनों के परिणामस्वरूप वे जिन निष्कर्षों पर पहुँचे हैं, उनको व्हाइट (White) ने निम्न प्रकार से अंकित किया है-
  1. सकारात्मक प्रबलन, कक्षा में विशेष रूप से सहायता देता है, क्योंकि यह बालकों की प्रतिक्रियाओं को दृढ़ बनाता है। 
  2. सकारात्मक प्रबलन, शैक्षिक उद्देश्यों को आकर्षण प्रदान करके उनकी प्राप्ति में सहायता देता है। 
  3. जो मातायें अपने 3 से 5 वर्ष तक के बच्चों को परिवार में उच्च स्थान प्राप्त करने के लिए उनकी प्रशंसा करती हैं, या उनको पुरस्कृत करती हैं, वे विद्यालय के विभिन्न कार्यों में उच्च स्थान प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
  4. जो मातायें अपनी बालिकाओं को तीन वर्ष की आयु तक उनकी कुशलताओं के लिये पुरस्कृत करती हैं, वे 6 से 10 वर्ष की आयु तक सामान्य शैक्षिक योग्यता में विशेष प्रगति व्यक्त करती हैं।
  5. छात्रों के कार्यों की तात्कालिक प्रशंसा, उनकी कार्य करने की विधि को साधारणतः उत्तम बनाती है।
उपर्युक्त निष्कर्षों के आधार पर हम कह सकते हैं कि कक्षा में सामाजिक अधिगम को सफल बनाने के लिये शिक्षक द्वारा प्रबलन का अधिक-से-अधिक प्रयोग किया जाना चाहिए।

अत: व्हाइट का परामर्श है - "प्रत्येक शिक्षक को प्रबल कर्त्ता के महत्त्व को स्वीकार करना चाहिए और उसके विशिष्ट कार्यों को विद्यालय आरम्भ होने की पहली घण्टी से लेकर पुस्तकों और दरवाजों के बन्द होने के समय तक करना चाहिए "

सामाजिक अधिगम के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि कक्षा में इसका प्रयोग अत्रों के लिए अवर्णनीय रूप से हितकर है। हमने इस सम्बन्ध में उन कारकों को पंक्तिबद्ध किया है, जो कक्षा में सामाजिक अधिगम को प्रभावित करने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं। इन कारकों में अनुकरण, मॉडल की विशेषताओं, निरीक्षणकर्ता की विशेषताओं और प्रबलन को सामाजिक अधिगम के सब अध्ययनों में विशेष स्थान प्रदान किया गया है । इनमें से मॉडल और प्रबलन को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण घोषित करते हुए व्हाइट ने लिखा है - "कक्षा में सामाजिक अधिगम के प्रयोग से हममें यह आशा उत्पन्न हो जाती है कि अधिकांश व्यक्ति अपने व्यवहार सम्बन्धी प्रतिमान-मॉडल (या मॉडलों) के व्यवहार द्वारा प्रदान किये जाने वाले उद्दीपन और प्रबलन के विभिन्न प्रतिमानों के फलस्वरूप अर्जित करते हैं।"

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इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।