परीक्षण रचना के सामान्य सिद्धान्त | General Principles Of Test Construction

शैक्षिक परीक्षण निर्माण के मुख्य चरण- परीक्षण निर्माण की योजना बनाना, परीक्षण का प्रारंभिक रूप तैयार करना, परीक्षण के प्रारंभिक रूप का प्रशासन...
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General Principles Of Test Construction

परीक्षण रचना के सामान्य सिद्धान्त

(General Principles Of Test Construction)
शिक्षा के क्षेत्र में विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिये शिक्षाशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक आवश्यकतानुसार विभिन्न परीक्षणों की रचना करते हैं। परीक्षण रचना के लिये उसके सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। 

शैक्षिक परीक्षण निर्माण के मुख्य चरण इस प्रकार हैं:
  1. परीक्षण निर्माण की योजना बनाना (Planning the Test)
  2. परीक्षण का प्रारंभिक रूप तैयार करना (Preparing the Preliminary Draft)
  3. परीक्षण के प्रारंभिक रूप का प्रशासन (Trying out the Preliminary Draft)
  4. परीक्षण का मूल्यांकन (Evaluating the Test)
  5. परीक्षण का अंतिम प्रारूप तैयार करना (Preparing the Final Test)

1. परीक्षण निर्माण की योजना बनाना

परीक्षण निर्माण का प्रथम चरण परीक्षण की योजना बनाना है। परीक्षण निर्माण के पूर्व परीक्षण निर्माता परीक्षण के उद्देश्य, विषय-वस्तु, माध्यम, प्रशासन एवं फलांकन विधि आदि का निर्धारण करता है। साथ ही इसको प्रभावित करने वाले कारकों जैसे आयु, लिंग, शिक्षा स्तर, ग्रामीण शहरी क्षेत्र आदि के सम्बन्ध में भी विचार कर लेता है।

परीक्षण उद्देश्य का निर्धारण

परीक्षण रचना के पूर्व उसके उद्देश्यों का निर्धारण कर लेना चाहिये। परीक्षण निर्माता स्वयं ही यह निश्चित कर लेता है कि परीक्षण की रचना किस हेतु की जा रही है। परीक्षण के उद्देश्य सदैव स्पष्ट एवं संक्षिप्त होने चाहिये तथा जिस समूह के लिए निर्मित किया जा रहा हो, उसकी आयु, शिक्षा, सामाजिक आर्थिक स्थिति आदि को भी ध्यान में रखना चाहिये।

विषय-वस्तु विश्लेषण

उद्देश्य निर्धारण के बाद जिस कक्षा एवं विषय के सम्बन्ध में परीक्षण की रचना करनी हो, तत्सम्बन्धी विषय-वस्तु का विश्लेषण करना चाहिये। उद्देश्य पूर्ति के लिये विषय-वस्तु के कौन-कौन-से अंश विशेष महत्वपूर्ण हैं, किस अंश से परीक्षण के लिये कितने पद लेने हैं इसका निश्चय किया जा सकता है।  

इस प्रकार परीक्षण की योजना बनाते समय परीक्षण निर्माता परीक्षण के उद्देश्य एवं उसके विभिन्न पदों की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में विचार करता है। इसके साथ ही परीक्षण का रूप- शाब्दिक, अशाब्दिक प्रशासन की विधि-व्यक्तिगत सामूहिक, परीक्षण का माध्यम, हिन्दी, अंग्रेजी या अन्य कोई भाषा, समय सीमा, फलांकन विधि आदि पर भी विचार करता है।

2. परीक्षण का प्रारंभिक रूप तैयार करना

परीक्षण की योजना बनाने के बाद परीक्षण निर्माता परीक्षण का प्रारम्भिक रूप तैयार करता है। परीक्षण के उद्देश्य के अनुसार विषय-वस्तु का विश्लेषण करके विभिन्न पंदों का चयन एवं रचना करता है तथा प्रशासन एवं फलांकन की विधि निश्चित करता है।

पद रचना (Formation of Items)

परीक्षण निर्माता परीक्षण के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए विषयवस्तु के अनुसार, अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर, अन्य मानकीकृत परीक्षणों की सहायता से अथवा अन्य किसी स्रोत से परीक्षण के पदों की रचना करता है। परीक्षण निर्माता को पद रचना के सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये :
  1. परीक्षण के प्रारम्भिक प्रारूप में पदों की संख्या अंतिम प्रारूप से लगभग दोगुनी होनी चाहिये। 
  2. परीक्षण को व्यापक बनाना चाहिये ताकि उद्देश्य के अनुसार सम्पूर्ण विषय-वस्तु का प्रतिनिधित्व हो सके, लेकिन व्यर्थ के पद इसमें सम्मिलित नहीं करने चाहिये। 
  3. प्रश्नों की भाषा सरल तथा स्पष्ट होनी चाहिये। पद द्विअर्थी नहीं होने चाहिये।
  4. एक प्रकार के पदों को एक स्थान पर अंकित करना चाहिये ताकि फलांकन एवं विवेचन में सुविधा हो सके। परीक्षार्थी के लिये भी यह अधिक सुविधापूर्ण होता है।
  5. प्रायः छोटे परीक्षण में एक ही प्रकार के तथा लम्बे परीक्षण में विभिन्न प्रकार के पद रूपों का प्रयोग करना उपयुक्त होता है।
  6. पुस्तकों से कोई वाक्य या कथन उठाकर पद के रूप में सम्मिलित नहीं करना चाहिये। इससे विद्यार्थी को रटने की आदत पड़ती है।
  7. सभी आरोही क्रम अर्थात् सरल प्रश्न पहले एवं कठिन प्रश्न बाद में रखने चाहिये। 
  8. सभी पदों पर क्रमानुसार अंक डालने चाहिये तथा महत्वपूर्ण पदों को रेखांकित करना चाहिये।
  9. पदों के उत्तरों के लिये पर्याप्त स्थान छोड़ना चाहिये। 

निर्देश (Instructions)

परीक्षण निर्माता को परीक्षार्थी तथा परीक्षण प्रशासक दोनों के लिये अलग-अलग निर्देश देने चाहिये। यह निर्देश स्पष्ट और सरल भाषा में होने चाहिये ताकि विद्यार्थी यह समझ सके कि उसे क्या और किस प्रकार करना चाहिये? परीक्षण के समय रखी जाने वाली सावधानियाँ, समय सीमा प्रशासन विधि, आदि के सम्बन्ध में भी निर्देश देने चाहिये।

फलांकन विधि (Scoring Methods)

फलांकन विधि का निर्धारण परीक्षण निर्माता इसी समय कर लेता है। फलांकन के निर्देश स्पष्ट रूप से दिये जाने चाहिये कि सही प्रत्युत्तर पर कितने अंक दिये जायेंगे, किस आधार पर अंक काटे जायेंगे। आवश्यकतानुसार फलांकन कुंजी या स्टेन्सिल भी बना ली जाती है। यह फलांकन प्रक्रिया भी आवश्यकतानुसार संशोधित करनी चाहिये।

3. परीक्षण के प्रारम्भिक रूप का प्रशासन

परीक्षण निर्माण के तीसरे चरण में प्रारम्भिक प्रारूप के सभी प्रश्नों की उपयुक्तता की जाँच की जाती है, उनमें आवश्यकतानुसार सुधार किया जाता है और उपयुक्त पदों को सम्मिलित किया जाता है। इसके लिये इन विभिन्न पदों की मनोमितीय विशेषताओं को ज्ञात किया जाता है। इसीलिये इस चरण को परीक्षण का जाँच स्तर भी कहा जाता है। 
परीक्षण की जाँच दो स्तर पर की जाती है- प्रारम्भिक प्रशासन स्तर तथा द्वितीय प्रशासन स्तर

प्रारम्भिक प्रशासन स्तर

इस स्तर पर परीक्षण के प्रारम्भिक प्रारूप को एक छोटे से प्रतिदर्श प्रायः 15-20 व्यक्तियों पर प्रशासित किया जाता है। यह प्रतिदर्श उसी समूह से चुना जाता है जिस समूह के लिये परीक्षण की रचना की गई है। इन परीक्षार्थियों से परीक्षण के प्रश्नों या निर्देशों को समझाने में आ रही कठिनाइयों को स्पष्ट करने के लिये कहा जाता है। इस आधार पर निर्देशों की अस्पष्टता, समय सीमा, पदों की भाषा सम्बन्धी त्रुटियों और भ्रान्तियों की जानकारी हो जाती है जिस आधार पर उनमें सुधार कर लिया जाता है।

फलांकन

परीक्षण का फलांकन करने की विधि पहले से निश्चित कर ली जाती है कि को किस आधार पर अंक प्रदान किये जाएँगे अथवा काटे जाएँगे। फलांकन की कुंजियाँ तैयार कर लेनी चाहिये। फलांकन की विधि सरल होनी चाहिये। फलांकन स्टेन्सिल, पंचबोर्ड या मशीन द्वारा किया जाना चाहिये।

द्वितीय प्रशासन

परीक्षण के द्वितीय प्रशासन में पद विश्लेषण की द्वितीय प्रक्रिया का प्रयोग किया जाता है। इस आधार पर पदों का चयन किया जाता है, आवश्यकतानुसार उनमें संशोधन किया जाता है अथवा अस्वीकार कर दिया जाता है।

पद विश्लेषण

परीक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिये परीक्षण निर्माता इसमें सम्मिलित सभी पदों का व्यक्तिगत अध्ययन करके उसकी मनोमितीय विशेषताओं को जानने का प्रयास करता है। इस प्रक्रिया को पद विश्लेषण कहते हैं। पद विश्लेषण में दो पहलुओं पर मुख्य रूप से विचार किया जाता है
  • प्रत्येक पद का कठिनता स्तर 
  • प्रत्येक पद की वैधता या विभेद शक्ति 

(i) पद की कठिनता

किसी भी पद के कठिनाई स्तर से तात्पर्य छात्रों की दृष्टि में प्रश्न की कठिनता से है। किसी समूह के सभी व्यक्तियों द्वारा हल किये गये सरल पदों को अथवा हल न के करने वाले अत्यन्त कठिन पदों को परीक्षण में सम्मिलित नहीं किया जाता है। समूह के 90% व्यक्तियों द्वारा शुद्ध हल किये गए पद को सरल पद, 10% व्यक्तियों द्वारा शुद्ध हल किये गए पद को कठिन पद तथा 50% व्यक्तियों द्वारा शुद्ध हल किये गए पद को उपयुक्त कठिनता का पद समझा जाता है।

अतः आवश्यक है कि परीक्षण में अधिकांश पद 50% कठिन स्तर वाले रखने चाहिये तथा अन्य पद विभिन्न कठिनता स्तर के होने चाहिये जिन्हें समूह के श्रेष्ठतम तथा निम्नतम व्यक्ति भी हल कर सकें। एनेस्टैसी के विचार में, "सर्वश्रेष्ठ विधि ऐसे पक्षों का चयन करता है जिनकी कठिनता स्तर का फैलाव मध्यम श्रेणी का हो, लेकिन जिनकी औसत कठिनता 0.50 (50%) हो। 

कठिनता स्तर परीक्षण के पदों को क्रमिक रूप से व्यवस्थित करने में सहायता देता है कि कौन सा पद पहले, मध्य में अंत में आएगा। इस आधार पर विद्यार्थियों को पास-फेल, संतोषजनक असंतोषजनक आदि मे विभक्त किया जा सकता है। पदों का कठिनता स्तर निर्धारित करने के लिये अनेक विधियों का प्रयोग किया जाता है जिनमें कुछ सरल विधियाँ निम्नांकित हैं:

सफल व्यक्तियों का प्रतिशत

किसी भी पद को हल करने के प्रतिशत के द्वारा उसके कठिनता स्तर को जाना जा सकता है।

27 प्रतिशत उच्च तथा 27 प्रतिशत निम्न समूह के सही प्रत्युत्तर की विधि

इस विधि द्वारा कठिनता स्तर ज्ञात करने के लिये सम्पूर्ण न्यादर्श में से उच्च प्राप्तांक पाने वाले 27 प्रतिशत (उच्च समूह) तथा निम्न प्राप्तांक पाने वाले 27 प्रतिशत (निम्न समूह) व्यक्तियों को चुन लिया जाता है। तत्पश्चात् इन दोनों समूहों में प्रत्येक पद के सही प्रत्युत्तरों की गणना की जाती है।

हारपर की फेसीलिटी इंडेक्स

हारपर ने भी 27 प्रतिशत उच्च तथा 27 प्रतिशत निम्न समूह के सही प्रत्युत्तर विधि का प्रयोग किया

4. सामान्य वक्र की सिगमा दूरी द्वारा
परीक्षण पद के कठिनता स्तर को सामान्य वक्र में सिगमा दूरी के आधार पर भी ज्ञात किया जा सकता है। यह सिगमा दूरी मध्यमान से धनात्मक दिशा में जितनी अधिक होगी, प्रश्न का कठिनता स्तर उतना ही अधिक होगा। इसके विपरीत ऋणात्मक दिशा में मध्यमान से सिगमा दूरी जितनी अधिक होगी, प्रश्न में सफल होने वाले परीक्षार्थियों की संख्या उतनी ही बढ़ती जाएगी अर्थात् प्रश्न का कठिनाई स्तर कम होगा। सामान्य वक्र मे कठिनता स्तर की व्याख्या गुणात्मक न होकर मात्रात्मक होती है। अतः यह अधिक वैज्ञानिक मानी जाती है। इस आधार पर विभिन्न पदों के पारस्परिक कठिनता स्तर की तुलना भी की जा सकती है। 

(ii) पद वैधता

पद वैधता का तात्पर्य है पद का विभेदन मूल्य अर्थात् पद किसी शीलगुण या योग्यता के आधार पर समूह के श्रेष्ठ तथा कमजोर या निम्न व्यक्तियों में अन्तर स्पष्ट कर सके। परीक्षण के प्रत्येक पद को विभेदकारी होना चाहिये। पद वैधता की गणना के लिये 60 से भी अधिक विधियाँ हैं, जिनमें से प्रमुख निम्नांकित हैं 
  • जॉनसन की विभेद सूची 
  • द्विपंक्तित्व सह-सम्बन्ध विधि 
  • सायमण्ड विधि
  • फ्लानगन प्रोडेक्ट मोमेन्ट गुणांक 
  • नोमोग्राफ विधि
  • स्टेनले 27 प्रतिशत उच्च तथा 27 प्रतिशत निम्न समूह विधि 
  • डेविस विभेदकारी दशनांक
  • कैली विधि 

4. परीक्षण का मूल्यांकन

उपर्युक्त विधि से परीक्षण की जाँच करने के पश्चात् उसका मूल्यांकन किया जाता है जिसमें परीक्षण के निम्नांकित पक्षों पर ध्यान दिया जाता है:

(i) परीक्षण के कठिनाई स्तर की उपयुक्तता को निर्धारित किया जाता है। यद्यपि निदानात्मक परीक्षणों में इनका महत्व नहीं है, लेकिन उपलब्धि परीक्षणों में यह अत्यन्त आवश्यक है। प्रायः 50% कठिनता स्तर के पदों को उचित, 30% से कम को कमजोर एवं ऋणात्मक तथा शून्य कठिनता स्तर वाले पद अवैध माने जाते हैं।

(ii) पदों की वैधता अथवा विभेदन क्षमता के सम्बन्ध में भी निर्णय लिया जाता है। यहाँ पर भी 0.50 विभेदकता मान को आदर्श माना जाता है। गैरेट (Garrett) के अनुसार 0.20 से अधिक वैधता निदेशांक वाले पद संतोषजनक कहे जाते हैं। इससे कम निदेशांक वाले पदों को संशोधित करके रख सकते हैं, परन्तु ऋणात्मक एवं शून्य वैधता निदेशांक वाले पद अस्वीकार किये जाने चाहिये।

(iii) परीक्षण के लिये उपयुक्त पदों का चयन करने के पश्चात् परीक्षण प्रशासन और अंकीकरण (Scoring) की विधि निश्चित की जाती है। परीक्षण प्रशासक एवं परीक्षार्थी दोनों के लिये निर्देश निश्चित किये जाते हैं। परीक्षार्थी के लिये निर्देश में उत्तर देने की विधि (उदाहरण सहित) समय सीमा आदि का उल्लेख किया जाता है। परीक्षण प्रशासक के लिये-परीक्षण व्यवस्था, परीक्षण सामग्री, समय-सीमा, अंकीकरण (Scoring) की विधि, विवेचना आदि के सम्बन्ध में सूचनाएँ प्रदान की जाती हैं। आवश्यकतानुसार अंकीकरण कुंजी भी निर्मित की जाती है।

(iv) परीक्षण का मूल्यांकन करने के लिये परीक्षण पर प्राप्त अंकों का किसी मान्य मानकीकृत परीक्षण के अंकों से सह-सम्बन्ध भी ज्ञात किया जा सकता है। परीक्षण का वैधता एवं विश्वसनीयता गुणांक ज्ञात किया जाता है।

5. परीक्षण के अंतिम रूप की रचना तकनीकी विश्लेषण

परीक्षण का विभिन्न दृष्टिकोणों से मूल्यांकन करने के बाद उसके अंतिम रूप की रचना की जाती है। इसके अन्तर्गत पर्याप्त कठिनता और वैधता स्तर के पदों का चयन किया जाता है। परीक्षण निर्देश, समय-सीमा, प्रशासन विधि और फलांकन विधि को स्पष्ट रूप से लिखा जाता है। इसके पश्चात् पर्याप्त रूप से प्रतिनिधिकारी और विस्तृत समूह पर परीक्षण को प्रशासित करके परीक्षण का तकनीकी विश्लेषण अर्थात् परीक्षण की विश्वसनीयता, वैधता एवं मानकों को निर्धारित किया जाता है। 

विश्वसनीयता (Reliability)

परीक्षण विश्वसनीयता का निर्धारण यह ज्ञात करने के लिये किया जाता है कि एक ही समूह पर परीक्षण को बार-बार प्रशासित करने पर प्राप्तांकों में कहाँ तक संगति पाई जाती है। सामान्यतः 0.50 या अधिक विश्वसनीयता गुणांक उत्तम माना जाता है। विश्वसनीयता गुणांक परीक्षण पुनः परीक्षण विधि, समानान्तर प्रारूप विधि, अर्द्धविच्छेदित विधि, तर्कयुक्त समानता विधि या मापन की मानक त्रुटि द्वारा ज्ञात किया जा सकता है।

वैधता (Validity)

यह ज्ञात करने के लिये कि नवनिर्मित परीक्षण वास्तव में उसी गुण का मापन करता है, जिसके लिये उसकी रचना की गई है, वैधता गुणांक निर्धारित करते हैं। इसके लिये किसी उपयुक्त कसौटी के प्राप्तांकों के साथ, नवनिर्मित परीक्षण पर उपलब्ध प्राप्तांकों का सह-सम्बन्ध ज्ञात किया जाता है। 0.50 या अधिक वैधता गुणांक वाले परीक्षण अच्छे माने जाते हैं।

मानक (Norms)

परीक्षण रचना का यह अत्यन्त महत्वपूर्ण चरण है। मानक औसत निष्पादन को व्यक्त करते हैं और इस आधार पर परीक्षण पर प्राप्त फलांकों की व्याख्या और विवेचना की जाती है। यह मानक अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे- आयु मानक (Age Norms), लिंग मानक (Sex Norms) कक्षा स्तर मानक (Grade Norms) आदि। मानक ज्ञात करने के लिये परीक्षण के वास्तविक अंकों (True Scores) को परवर्ती अंकों (Derived Scores) में परिवर्तित किया जाता है, जैसे-शतांशीय अंक, प्रमाप अंक, टी अंक आदि ।

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