मूल्यांकन एवं परीक्षा | Evaluation and Examination

शैक्षिक मूल्यांकन में परीक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परीक्षा का सम्बन्ध विषय वस्तु के अध्ययन व अध्यापन से होता है।
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Evaluation and Examination

मूल्यांकन एवं परीक्षा

(Evaluation and Examination)

शैक्षिक मूल्यांकन में परीक्षा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। परीक्षा का सम्बन्ध विषय वस्तु के अध्ययन व अध्यापन से होता है। बालक की उपलब्धियों व ज्ञानार्जन की मात्रा को जानकर ही हम उसके लिए भविष्य में शिक्षा का रूप निर्धारित करते हैं। इसके लिए परीक्षाओं का सहारा लेना पड़ता है। यही कारण है कि परीक्षा शैक्षिक मूल्यांकन का महत्त्वपूर्ण अंग बन चुकी है। परीक्षा शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में किया जाता है। इसके द्वारा कुछ विषय सामग्री के ज्ञान की जाँच होती है। इसमें केवल ज्ञानात्मक अनुभव व कौशल की ही जाँच हो पाती है।

परीक्षा के कार्य (Function of Examination)

  • छात्रों के अर्जित ज्ञान के स्तर का पता लगाना। 
  • शिक्षण विधि की सफलता की जाँच।
  • शिक्षण उद्देश्यों की सफलता की जाँच।
  • छात्रों के स्तर निर्धारण व चयन की व्यवस्था। 
  • छात्रों में प्रतियोगिता व मार्गदर्शन।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में परीक्षा की निम्न प्रविधियों को प्रयोग में लाया जाता है:

मौखिक परीक्षा

यह प्रविधि मूलरूप से वैयक्तिक होती है। इसमें छात्र परीक्षक के समक्ष उपस्थित होकर उसके प्रश्नों का उत्तर देता है जिसके आधार पर परीक्षक उसके विषय सम्बन्धी ज्ञान, अभिव्यक्त करने की शक्ति, आत्मविश्वास आदि का मूल्यांकन करता है।

प्रायोगिक परीक्षा

इसका प्रयोग प्रयोगात्मक विषयों जैसे विज्ञान, हस्तकला, संगीत, कृषि, मनोविज्ञान, गृह विज्ञान आदि में किया जाता है। इसमें बालक अपने कार्य का एक नमूना परीक्षक के समक्ष प्रस्तुत करता है और इस आधार पर सम्बन्धित क्षेत्र या विषय में उसकी योग्यता का मूल्यांकन किया जाता है।

लिखित परीक्षा

सामान्यतः भारतीय विद्यालयों में मूल्यांकन के इस रूप का प्रचलन है। इन्हें कागज पेन्सिल परीक्षा भी कहा जाता है। ये छात्रों की ज्ञान प्राप्ति और पाठ्यवस्तु को संगठित एवं व्याख्या करने की योग्यता का मापन-करने में बहुत उपयोगी है। 

लिखित परीक्षाओं के तीन रूप सामान्यतः प्रचलित हैं : 
  1. निबन्धात्मक परीक्षा
  2. वस्तुनिष्ठ परीक्षा
  3. लघु उत्तरीय परीक्षा

निबन्धात्मक परीक्षा 

निबन्धात्मक परीक्षण से तात्पर्य ऐसे परीक्षण से है जिनमें व्यक्ति से कोई भी प्रश्न मौखिक या लिखित रूप से पूछा जाता है।
निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली का प्रयोग प्राचीनकाल से किया जा रहा है। इसीलिये इसे परम्परागत परीक्षा भी कहते हैं। निबन्धात्मक परीक्षा में व्यक्ति अपने विचारों को स्वतन्त्रता पूर्वक व्यक्त करता है। इसके माध्यम से व्यक्ति की चिन्तन क्रिया, विचारों का संगठन और प्रकाशन की योग्यता, रचनात्मक योग्यता, भाषा-शैली आदि की जाँच की जाती है। इसमें आत्मगत तत्व की प्रधानता रहती है। अतः इसे आत्मगत विधि के रूप में भी जाना जाता है। निबन्धात्मक परीक्षा में प्रयुक्त होने वाले प्रश्न- निबन्धात्मक परीक्षण में उद्देश्यों के अनुसार विभिन्न प्रकार के प्रश्नों को सम्मिलित किया जाता है। इसमें प्रयुक्त होने वाले प्रमुख प्रश्न इस प्रकार हैं :

1. वर्णनात्मक प्रश्न 

इसमें विद्यार्थी से किसी घटना, तथ्य या प्रक्रिया का वर्णन करने के लिये कहा जाता है। यह वर्णन संक्षिप्त या विस्तृत दोनों प्रकार के हो सकते है। 

2. व्याख्यात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर तर्क के आधार पर दिये जाते हैं जैसे बालक के व्यक्तित्व निर्माण में शिक्षा का क्या उपयोग है? व्याख्या कीजिये।

3. विवेचनात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्न में किसी वस्तु या प्रक्रिया का वर्णन करने के साथ-साथ उसके गुण-दोषों का भी वर्णन किया जाता है जैसे - वर्तमान परीक्षा प्रणाली की विवेचना कीजिये।

4. परिभाषात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्न द्वारा वस्तु या प्रक्रिया के स्वरूप के सम्बन्ध में जानने की चेष्टा की जाती है। जैसे बुद्धि का क्या स्वरूप है? 

5. उदाहरणार्थ प्रश्न

इसमें उदाहरण की सहायता से किसी प्रश्न को समझने के लिये कहा जाता है जैसे प्रयोगात्मक विधि को उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिये।

6. तुलनात्मक प्रश्न

इन प्रश्नों द्वारा परीक्षार्थी को किन्हीं दो वस्तुओं, विचारों, तथ्यों में समानता गुण-दोषों के आधार पर तुलना करने के लिये कहा जाता है। जैसे प्राचीन व मध्यकालीन शिक्षा प्रणाली की तुलना कीजिये।

7. रूपरेखात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्न में किसी विषय-वस्तु को विभिन्न उपशीर्षक में स्पष्ट किया जाता है। जैसे भारत में अनिवार्य शिक्षा के विकास की रूपरेखा पर प्रकाश डालिये।

8. आलोचनात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्न में परीक्षार्थी को किसी तथ्य, प्रक्रिया या विचार की उपयुक्तता का मूल्यांकन करना होता है। इसमें अधिक चितन की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिये शिक्षा में निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली के महत्व की समालोचना कीजिये। 

9. विश्लेषणात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्न में किसी तथ्य के विभिन्न पहलुओं का वर्णन करते हुए विश्लेषण किया जाता है। जैसे बाल शिक्षा में परिवार का क्या योगदान है, विश्लेषण कीजिये।

10. वर्गीकरणात्मक प्रश्न

इस प्रकार के प्रश्न में वस्तु या प्रक्रिया के प्रकार बताए जाते हैं जैसे बुद्धि परीक्षण कितने प्रकार के होते हैं?

निबन्धात्मक परीक्षणों का गुण 

हमारे देश में निबन्धात्मक परीक्षणों का अधिक प्रचलन है। यदि इनका निर्माण उचित रूप से किया जाए तो यह बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। कुछ प्रमुख गुण इस प्रकार हैं :

विचारों की स्वतन्त्रता

निबन्धात्मक परीक्षण में व्यक्ति अपने विचारों को व्यक्त करने के लिये पूर्णतः स्वतन्त्र होता है। अपने विचारों के समर्थन में अन्य लोगों के विचारों को भी प्रस्तुत करता है। तथा कुछ के विचारों की आलोचना भी करता है।

उच्च मानसिक योग्यताओं का अध्ययन

निबन्धात्मक परीक्षा में संतोषजनक उत्तर देने के लिये व्यक्ति को उच्च मानसिक योग्यताओं जैसे तर्क, चिंतन, स्मृति, कल्पना बुद्धि आदि के प्रयोग की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार यह परीक्षण विद्यार्थी की उपर्युक्त योग्यताओं का भी अध्ययन करने में सहायता प्रदान करती है।

व्यक्तित्व का मूल्यांकन

निबन्धात्मक परीक्षा में व्यक्ति अपने विचारों को व्यक्त करने के लिये पूर्णतः स्वतन्त्र होता है। अतः अपने उत्तरों के द्वारा वह अनजाने ही व्यक्तित्व के अनेक पहलुओं-रुचि, कल्पना, मूल्यों, भावों, विचारों को अनजाने ही प्रकट कर देता है। अतः कुछ मनोवैज्ञानिक निबन्धात्मक परीक्षणों को बालक के व्यक्तित्व का अध्ययन करने की प्रक्षेपण विधि भी कहते हैं।

वांछनीय अध्ययन विधियों के विकास में सहायक

जब बालक को यह पता होता है कि उसे दो पंक्ति के प्रश्न के उत्तर में 6-7 प्रश्नों का निबन्ध लिखना होगा तो विस्तृत अध्ययन के लिये वह नवीन विधियों को अपनाते हैं; जैसे-सारांश लिखना, रूपरेखा बनाना, मुख्य मुख्य तथ्यों का पता लगाना, सम्बन्धित विद्वानों के विचारों को प्रस्तुत करना आदि । 

नकल की कम सम्भावना

निबन्धात्मक प्रश्नों के उत्तर बड़े होते हैं और उनमें भाषा शैली, विषय-वस्तु की गहनता, विचारों की संगठित अभिव्यक्ति होती है जिन्हें आसानी से दूसरा व्यक्ति उतार नहीं सकता है।

निबन्धात्मक परीक्षाओं की सीमाएँ

निबन्धात्मक परीक्षा में एक तरफ जहाँ बहुत-सी विशेषताएँ है, वही कुछ कमियाँ भी हैं जिनमें से मुख्य इस प्रकार हैं:

रटने पर बल

निबन्धात्मक परीक्षाएँ ज्ञानार्जन का मापन न करके स्मरण शक्ति या रटने की योग्यता का मापन करती हैं। अनेक विद्यार्थी पूरा पाठ्यक्रम न पढ़कर केवल सम्भावित प्रश्नों के उत्तरों को रट लेते हैं, वे उन विद्यार्थियों से अधिक अंक प्राप्त करते हैं जो साल भर मेहनत करते हैं पर रटने की कला में निपुण नहीं हैं।

वैधता का अभाव

निबन्धात्मक परीक्षण पूरे पाठ्यक्रम पर आधारित नहीं होता अतः इसमें पाठ्यक्रमात्मक वैधता का अभाव पाया जाता है। इसके अतिरिक्त इसमें पूर्वकथनात्मक वैधता भी नहीं होती। इन परीक्षाओं में सफलता के आधार पर उसकी भावी सफलता के विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता।

विश्वसनीयता का अभाव

निबन्धात्मक परीक्षा में एक ही उत्तर पुस्तिका पर भिन्न-भिन्न परीक्षक भिन्न-भिन्न अंक देते हैं, यहाँ तक कि एक ही उत्तर पुस्तिका को एक ही परीक्षक भिन्न-भिन्न समय में भिन्न-भिन्न अंक देता है अतः यह परीक्षण विश्वसनीय नहीं है।

आत्मनिष्ठ फलांक

निबन्धात्मक परीक्षणों में वस्तुनिष्ठता का अभाव होता है। फलांक गणना उत्तर के गुण पर निर्भर न रहकर परीक्षक के स्वयं के विचार, भावनाओं, मानसिक स्थिति, शारीरिक स्थिति आदि पर निर्भर है।

परीक्षा निपुणता का लाभ

कुछ विद्यार्थी परीक्षा देने की कला में निपुण होते हैं। वे जानते हैं कि किस प्रकार उत्तर लिखें और परीक्षक को प्रभावित करें। अतः समुचित ज्ञान न होने पर भी उन्हें अन्य परीक्षार्थियों से अधिक अंक मिलते हैं।
  

वस्तुनिष्ठ परीक्षण  

निबन्धात्मक परीक्षाओं की कमियों, प्रतिनिधित्व की कमी, आत्मनिष्ठता, विश्वसनीयता एवं वैधता का अभाव आदि के कारण इस प्रकार की परीक्षा की कटु आलोचना की गई। 

कुछ आलोचक यहाँ तक कहते हैं कि यह परीक्षाएँ अविश्वास के दर्शन पर आधारित हैं अतः एक ऐसी परीक्षण विधि की आवश्यकता महसूस हुई जिसमें उत्तम परीक्षण के सभी गुण जैसे वस्तुनिष्ठता, वैधता, विश्वसनीयता, प्रतिनिधित्व आदि विद्यमान हों ताकि छात्रों की प्रगति, स्तर तथा योग्यता का सही मूल्यांकन किया जा सके। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिये जे० एम० राइस जो शिक्षा में वैज्ञानिक आन्दोलन के प्रमुख प्रवर्तक थे, ने वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का विकास किया। 

उन्होंने वस्तुनिष्ठ परीक्षण की रचना एवं फलांकन विधि के विषय में गहन अध्ययन किया। उनके इस आन्दोलन को स्टार्च एवं इलियट के अध्ययनों से बहुत बल मिला। आज इनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई है कि इनका प्रयोग केवल विद्यालय में ही नहीं वरन प्रत्येक प्रकार की संस्थाओं में अपने उद्देश्यों के लिये किया जाता है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षण वे परीक्षण हैं जिनका निर्माण निश्चित उद्देश्यों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु किया जाता है। इनमें प्रश्नों या पदों के विकल्पों में से केवल एक सही उत्तर होता है। अतः विभिन्न परीक्षक स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने के उपरान्त अंकों के सम्बन्ध में एक ही निष्कर्ष प्रदान करते हैं।   
वस्तुनिष्ठ परीक्षण मुख्यतः दो प्रकार के हैं :
  1. प्रत्यास्मरण पद
  2. अभिज्ञान पद 

इन दोनों के उपभेदों को निम्नांकित रेखाचित्र द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है :

objective-test-vastunishtha-parikshan
Objective Test

प्रत्यास्मरण रूप

इस प्रकार के प्रश्नों या पदों में किसी सीखे हुए तथ्य का पुनः स्मरण करके उत्तर दिया जाता है। इससे विद्यार्थी की धारणा शक्ति का मापन होता है। इनकी रचना बहुत सरल होती है, लेकिन इसकी प्रमुख सीमा यह है कि यह केवल रटने पर बल देते हैं। इसे दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:

I. साधारण प्रत्यास्मरण रूप

इस प्रकार के प्रश्नों का प्रयोग तथ्यात्मक ज्ञान की जाँच के लिये किया जाता है। इनकी रचना बहुत सरल होती है अतः आधुनिक परीक्षणों में यह बहुतायत से प्रयोग किये जाते हैं। इसमें प्रश्न एक छोटे वाक्य के रूप में होते हैं तथा इनका उत्तर एक शब्द के रूप में देना होता है। उदाहरणार्थ- वैदिक युग में शिक्षा का माध्यम क्या था? 

II. रिक्त स्थान पूर्ति रूप

इसमें प्रश्नों को वाक्यों के रूप में प्रस्तुत करके एक या अधिक रिक्त स्थान छोड़ दिया जाता है जिनकी पूर्ति परीक्षार्थी को करनी होती है। 
उदाहरण : कथनों में रिक्त स्थान की पूर्ति करे:
भारत एक  _________ देश है।

अभिज्ञान रूप

इस प्रकार के प्रश्नों में उत्तर पहचान के आधार पर दिये जाते हैं। इनमें प्रायः एक प्रश्न के कई उत्तर दिये गए होते हैं जिनमें से सही उत्तर पहचान के आधार पर देना होता है। चूँकि इसमें अनुमान पर बल दिया जाता है अतः इनकी भी आलोचना की गई है। इसके अन्तर्गत प्रायः निम्नलिखित प्रकार के परीक्षण पदों को सम्मिलित किया जाता है:

एकान्तर प्रत्युत्तर रूप 

इनको सत्य-असत्य रूप भी कहा जाता है। इसमें एक कथन दिया और परीक्षार्थी को यह बताना होता है कि वह सत्य है या असत्य। निर्माण की सरलता के कारण सभी संस्थाओं में यह पद बहुत लोकप्रिय हैं। ग्रीन तथा अन्य का सुझाव है कि इनमें ऐसे कथनों का प्रयोग न किया जाए जो अंशतः सत्य असत्य हों, उदाहरण: निर्देश- कथन यदि सही हों, तो सत्य (हाँ) और गलत हों, तो असत्य (नहीं) करो। 'एमिल' की रचना डीवी ने की थी। (सत्य/असत्य)

बहुविकल्प पद

इस प्रकार के प्रश्न में एक कथन दिया होता है जिसके चार-पाँच प्रत्युत्तर दिये रहते हैं जिसमें परीक्षार्थी को सही उत्तर की पहचान करनी होती है। इन प्रश्नों की शक्ति, तर्कशक्ति, समझने की शक्ति का मापन किया जाता है। इनमें अनुमान की सम्भावना कम होती है। अतः अधिक वैध और विश्वसनीय होते हैं।

मिलान पद

इसमें परीक्षार्थी को एक ओर दी हुई विषय-वस्तु का दूसरी ओर दी गई विषय-वस्तु के साथ मिलान करना पड़ता है। प्रश्नों और उत्तरों के क्रमों में परिवर्तन होता है। परीक्षार्थी को प्रत्येक प्रश्न का सही उत्तर ढूँढ़ना होता है। 

वर्गीकरण पद

वर्गीकरण पदों के अन्तर्गत छात्रों के समक्ष कुछ ऐसे शब्दों को प्रस्तुत किया जाता है जिनमें से एक शब्द बेमेल होता है। छात्रों से उसी बेमेल शब्द को रेखांकित करने के लिये कहा जाता है। उदाहरणः निर्देश- लिखित शब्दों में एक शब्द ऐसा है जो अन्य शब्दों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। ऐसे शब्द को छाँटकर रेखांकित कीजिए - गांधी, टैगोर, विवेकानन्द, मैकाले, अरविंद, दयानन्द सरस्वती।

वस्तुनिष्ठ परीक्षण के गुण

वस्तुनिष्ठ परीक्षण में एक अच्छे परीक्षण के सभी गुण पाए जाते हैं। वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:

विश्वसनीयता

वस्तुनिष्ठ परीक्षण अधिक विश्वसनीय होते हैं, "क्योंकि परीक्षण को बार-बार प्रशासित करने पर भी विद्यार्थी के उत्तर एक जैसे रहते हैं। दूसरे यदि उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन विभिन्न परीक्षकों से कराया जाए या एक ही परीक्षक विभिन्न अवसरों पर मूल्यांकन करे, परीक्षार्थी को समान अंक ही प्राप्त होंगे।

वैधता

वस्तुनिष्ठ परीक्षण सदैव किसी निश्चित उद्देश्य को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं अतः यह अधिक वैध होते हैं। इन परीक्षणों की पाठ्यवस्तु वैधता अधिक होती है। परीक्षण पदों को देखकर ही यह ज्ञात हो जाता है कि वे किस उद्देश्य या योग्यता का मापन कर रहे हैं। अतः इनमें आभासी वैधता भी होती है।

समय की बचत

यद्यपि वस्तुनिष्ठ परीक्षण की रचना में अधिक समय लगता है पर इनका उत्तर देने में व फलांकन करने में बहुत कम समय लगता है।

फलांकन की सुगमता

इन परीक्षणों का फलांकन कुंजी की सहायता से कम समय में सुगमता से हो जाता है। इसके लिये किसी प्राविधिक कुशलता की आवश्यकता नहीं होती।

पक्षपात की सम्भावना नहीं

वस्तुनिष्ठ परीक्षण में परीक्षक को पक्षपात का अवसर नहीं मिलता। अपने विचार मनोदशा या पूर्वाग्रह के कारण किसी विद्यार्थी को हानि नहीं उठानी पड़ती।

रटने का बहिष्कार

इस परीक्षा में सम्पूर्ण विषय वस्तु को समझने की आवश्यकता होती है तभी विद्यार्थी को सफलता मिल सकती है। इससे छात्र रटने की विधि को न अपनाकर विषय-वस्तु को समझकर सीखता है।

वस्तुनिष्ठ परीक्षण के दोष 

वस्तुनिष्ठ परीक्षण शैक्षिक विषयों के सम्बन्ध में बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं। इनके परिणामों के आधार पर में छात्रों के भावी जीवन के विषय में निर्णय लिया जा सकता है। इतना होते हुए भी इन्हें पूर्णतः दोष मुक्त नहीं कहा जा सकता। 
वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की कुछ सीमाएँ इस प्रकार हैं:

परीक्षण रचना में कठिनता

इन परीक्षणों की रचना अत्यन्त कठिन हाती है। इनके निर्माण के लिये विशेषज्ञों की आवश्यकता होती है, क्योंकि प्रश्नों की संख्या अधिक होती है और समस्त पाठ्यवस्तु में से विभिन्न प्रकार के पदों का चयन करना होता है।

निदानात्मक महत्व नहीं

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों का निदानात्मक महत्व नहीं है क्योंकि इसमें छात्र की शिक्षा सम्बन्धी कमजोरियों को जानना कठिन है। परीक्षार्थी को अपनी मौलिकता अभिव्यक्त करने का अवसर नहीं मिलता। अतः व्याकरण व भाषा में त्रुटि, किस स्थान पर केवल अनुमान का सहारा ले रहा है, आदि की जानकारी नहीं हो पाती।

नकल करने की अधिक सम्भावना

इन परीक्षणों में नकल करने की अधिक सम्भावना रहती है, क्योंकि प्रश्नों के उत्तर छोटे होते हैं अतः उनकी नकल सरलता से की जा सकती है।

अधिक खर्चीली

वस्तुनिष्ठ परीक्षणों के निर्माण में अधिक धन, समय तथा श्रम की आवश्यकता होती है। अतः भारत जैसे निर्धन देश के लिये यह अधिक उपयुक्त नहीं है।

प्रामाणिक परीक्षणों का अभाव

इनमें पर्याप्त प्रामाणिक परीक्षणों का अभाव है। अतः इनका प्रयोग सीमित मात्रा में होता है। 

निबन्धात्मक और वस्तुनिष्ठ परीक्षाओं के गुण-दोषों के विवेचन से यह ज्ञात होता है कि दोनों में परस्पर द्वन्द्व नहीं है। इन दोनों परीक्षाओं को उद्देश्यमुखी बनाना चाहिये। विद्यालयों में पढ़ाए जाने वाले विषयों के प्रश्न-पत्रों में दोनों को उचित स्थान मिलना चाहिये।

निबन्धात्मक एवं वस्तुनिष्ठ परीक्षणों की तुलना

SNनिबन्धात्मक परीक्षणवस्तुनिष्ठ परीक्षण
1.प्रश्नों की रचना सरल होती है। समय कम लगता है।प्रश्नों की रचना कठिन होती है और समय अधिक लगता है।
2.प्रश्नों की संख्या कम व उत्तर लम्बे होते हैं।प्रश्नों की संख्या अधिक व उत्तर छोटे होते है।
3.सीमित पाठ्यक्रम से प्रश्न होते हैं।पूरे पाठ्यक्रम से प्रश्न बनाये जाते हैं।
4.प्रशासन हेतु विशेष निर्देश नहीं होतेप्रशासन कठिन होता है व विशेष निर्देश होते हैं।
5.उत्तर की भाषा व सुलेख महत्त्वपूर्ण होता है।भाषा व सुलेख को कोई महत्त्व नहीं दिया जाता है।
6.उत्तर निश्चित नहीं होता। वस्तुनिष्ठता वैधता व विश्वसनीयता का अभाव होता है।उत्तर निश्चित होता है। वस्तुनिष्ठ होते हैं। पर्याप्त वैधता व विश्वसनीयता होती है।
7.फलांकन करना कठिन होता है। इनका निश्चित उत्तर नहीं होता है।फलांकन सरल होता है। इनका उत्तर निश्चित होता है।
8.उपलब्धि मापन, चयन और वर्गीकरण के लिए उपयोगी होते हैं।निष्पादन व निदान के लिए उपयुक्त। बुद्धि और अभिक्षमता मापन में उपयोगी होते हैं।

लघु उत्तरतीय प्रश्न 

इनका उत्तर निबन्धात्मक प्रश्नों की अपेक्षा लघु रूप में दिया जाता है। यह लघु उत्तरीय एवं अति लघु उत्तरीय प्रकार के होते हैं- लघु उत्तरीय प्रश्नों में निबन्धात्मक प्रश्नों की अपेक्षा कम समय लगता है। जैसे 200 शब्दों में उत्तर लिखिये अथवा एक पृष्ठ में उत्तर लिखिये इत्यादि। अति लघु उत्तरीय प्रश्नों में और भी वाक्य लिखना होता है। जैसे-तीन विशेषतायें लिखिये। तीन गुण दोष लिखिये इत्यादि।

लघु उत्तरीय प्रश्नों के माध्यम से पूरे पाठ्यक्रम पर प्रश्न पूछे जा सकते हैं। इसमें दो या तीन अंकों के 10 से 15 प्रश्न पूछे जा सकते हैं। यह निबन्धात्मक प्रश्नों की अपेक्षा अधिक वैध व विश्वसनीय होते हैं। इनका प्रशासन सरल होता है व विभेदक शक्ति भी अधिक होती है। परन्तु इन परीक्षणों के द्वारा छात्र की भाषाशैली व व्यापक ज्ञान का परीक्षण नहीं हो पाता। यह सूचना प्रधान होते हैं अतः छात्रों की तर्क व निर्णय शक्ति का मापन नहीं हो पाता। छात्रों को विषय का पूर्ण ज्ञान नहीं होता वे केवल तथ्यों को रट लेते हैं।

वर्तमान परीक्षा प्रणाली की विशेषतायें

(Characteristics of Present Examination System) 
  • छात्रों के शैक्षिक ज्ञान की परीक्षा शैक्षिक वर्ष के अन्त में होती है।
  • अधिकांशतः निषेधात्मक प्रकार के प्रश्न होते हैं। 
  • अधिकतर लिखित परीक्षायें होती हैं। विज्ञान व ललितकलाओं में प्रयोगात्मक व मौखिक परीक्षायें भी होती हैं।
  • प्रश्नपत्र बाह्य प्रकार की प्रकृति के होते हैं। अतः अध्यापक अपने छात्रों के मूल्यांकन में प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं लेता। मूल्यांकन बाह्य व आंतरिक दोनों प्रकार के परीक्षकों द्वारा होता है। 
  • कम समय व कम व्यय में प्रश्नपत्र तैयार हो जाते हैं।
  • परीक्षा के उपरान्त प्रमाणपत्र प्राप्त कर छात्र अगली कक्षा में बैठने लायक बनते हैं अथवा रोजगार प्राप्त करने योग्य हो जाते हैं।

वर्तमान परीक्षा प्रणाली के दोष

(Demerits of Present Examination System)
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद प्रथम विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग ने कहा था कि, "यदि विश्वविद्यालय शिक्षा में हमें किसी एक सुधार को प्रस्तावित करना है तो वह परीक्षा में ही सम्भव होगा। वर्तमान परीक्षा प्रणाली में शिक्षा साधन व साध्य दोनों हैं। शिक्षा का मूल उद्देश्य केवल परीक्षा में उत्तीर्ण होना है। सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया परीक्षा के चारों ओर संचालित होती है। छात्रों का विकास, उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त करना व उनमें सुधार लाना जो शिक्षा का मूल उद्देश्य समाप्त प्राय है। वर्तमान परीक्षा प्रणाली निबन्धात्मक परीक्षा प्रणाली है। मुख्यतः दोष इस प्रकार हैं :
  • शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होती। परीक्षार्थी शैक्षिक सत्र में ज्ञान प्राप्त करने में रुचि नहीं दिखाते। वह परीक्षा उत्तीर्ण करना अधिक महत्त्वपूर्ण समझते हैं। 
  • परीक्षा प्रणाली मुख्यतः निबन्धात्मक है। इन प्रश्नों का मूल्यांकन करने में परीक्षक के आत्मनिष्ठ भावों का प्रभाव पड़ने से मूल्यांकन त्रुटिपूर्ण हो जाता है।
  • निबन्धात्मक प्रश्नों की विश्वसनीयता व वैधता कम होती है। 
  • नैतिक पतन हो गया है। छात्र समझता है वह विद्या खरीद रहा है। परीक्षा प्रधान प्रक्रिया होने के कारण गुरु शिष्य सम्बन्धं समाप्त हो गये हैं।

वर्तमान परीक्षा पद्धति में सुधार के सुझाव

(Suggestions For Reforming Present Examination System)
वर्तमान परीक्षा प्रणाली परम्परागत परीक्षा प्रणाली है। विगत कुछ दशकों से इसकी उपयोगिता की आलोचना हो रही है। समय-समय पर विद्वान प्रचलित परीक्षा प्रणाली में सुधार कर शिक्षा व सीखने की प्रक्रिया को अधिक बनाकर शिक्षा के महत्त्व को पुनः स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं।
  • परीक्षायें शैक्षिक सत्र के अन्त में न कराकर वर्ष में दो या तीन बार करायी जाये।
  • बाह्य परीक्षाओं की संख्या कम करके आन्तरिक मूल्यांकन को अधिक महत्त्व दिया जाये। 
  • निबन्धात्मक परीक्षाओं की कमियों को दूर करने के लिए लघु उत्तर वाले तथा वस्तुनिष्ठ प्रश्नों का समावेश किया जाये।
  • बालक के सर्वांगीण विकास को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यालय अभिलेखों की विधि को अपनाया जाये।
  • लिखित परीक्षाओं के साथ साथ प्रयोगात्मक परीक्षाओं को महत्त्व दिया जाए एवं सतत् मूल्यांकन प्रणाली को प्रयोग में लाया जाए।
  • परीक्षा में सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का प्रतिनिधित्व होना चाहिए। 
  • परीक्षा की विश्वसनीयता व वैधता बढ़ाने के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग बढ़ाया जाना चाहिए।
  • परीक्षा सम्बन्धी अनेक अनैतिक कार्य जैसे- नकल करना, पर्चे आउट होना, नकली अंकपत्र व नकली डिग्री आदि को समाप्त किया जाना चाहिए जिससे परीक्षा प्रणाली में विश्वास उत्पन्न हो सके।
  • मूल्यांकन अंकों में न होकर ग्रेड द्वारा किया जाये।
  • सत्र में पुनः परीक्षा की व्यवस्था हो जिससे छात्र अपने अंकों में सुधार कर सके।

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