खेल प्रणाली, अर्थ, परिभाषा, प्रकार, विशेषताएँ व सिद्धान्त | Play Way

"नालन्दा विशाल शब्द-सागर" के अनुसार, 'खेल' का सामान्य अर्थ है - 'चित्त की उमंग या मन बहलाव या व्यायाम के लिए इधर-उधर उछल-कूद, दौड़-धूप ...
 
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खेल व खेल - प्रणाली

खेल का अर्थ व परिभाषा

सामान्य स्वाभाविक प्रवृत्तियों में खेल की प्रवृत्ति सबसे अधिक व्यापक और महत्वपूर्ण है। "नालन्दा विशाल शब्द-सागर" के अनुसार, 'खेल' का सामान्य अर्थ है - 'चित्त की उमंग या मन बहलाव या व्यायाम के लिए इधर-उधर उछल-कूद, दौड़-धूप या कोई साधारण कृत्य'।
 
मनोवैज्ञानिकों ने 'खेल' का अर्थ निम्न प्रकार से व्यक्त किया है-
मैक्डूगल – "खेल स्वयं अपने लिए की जाने वाली एक क्रिया है, या खेल एक निरुद्देश्य क्रिया है, जिसका कोई लक्ष्य नहीं होता है।"
हरलॉक - "अन्तिम परिणाम का विचार किये बिना कोई भी क्रिया जो उससे प्राप्त होने वाले आनन्द के लिए की जाती है, खेल है।"
क्रो व क्रो – "खेल की उस क्रिया के रूप में परिभाषा की जा सकती है, जिसमें एक व्यक्ति उस समय व्यस्त होता है, जब वह उस कार्य को करने के लिए स्वतंत्र होता है, जिसे वह करना चाहता है।"

खेल की विशेषताएँ

रायबर्न के अनुसार - खेल एक साधन है जिसका उपयोग दूसरे स्व (Self) द्वारा उस समय किया जाता है, जब हमारी विभिन्न मूलप्रवृत्तियाँ अपने आप को प्रकाश में लाने की चेष्टा करती हैं।
खेलों के द्वारा हमारी अनेक मूलप्रवृत्तियों तथा सहज प्रवृत्तियों का शोधन होता है। खेलों की विशेषताएँ इस प्रकार हैं
  • खेल एक जन्मजात और स्वाभाविक प्रवृत्ति है।
  • खेल, स्वतंत्र और आत्मप्रेरित होता है।
  • खेल, स्फूर्ति और आनन्द प्रदान करता है।
  • खेल में कुछ सीमा तक रचनात्मकता होती है।
  • खेल का क्रिया के सिवा और कोई उद्देश्य नहीं होता है।
  • भाटिया के अनुसार - खेल स्वयं खेल के लिए खेला जाता है।
  • क्रो व क्रो के अनुसार - खेल, बालक की सम्पूर्ण रुचि और ध्यान को केन्द्रित कर लेता है।
  • ड्रेवर के अनुसार - खेल एक शारीरिक और मानसिक क्रिया है। 
खेल के विषय में कार्लग्रूस ने कहा है - खेल एक साधन है किन्तु मैं यह नहीं बता सकता कि उसका लक्ष्य क्या है? केवल खेल ही उसका लक्ष्य हो सकता है। अतः खेल जन्मजात सहज प्रवृत्ति है और इसका लक्ष्य आनन्द प्राप्ति है।

खेल व कार्य में अन्तर 

कार्य का अर्थ है किसी विशेष भौतिक लक्ष्य की पूर्ति हेतु की जाने वाली क्रिया खेल को भी कुछ लोग कार्य की श्रेणी में रखते हैं। खेल उसी समय कार्य हो सकता है जब वह धन कमाने के लिये किया जा रहा हो। अतः खेल तथा कार्य में अन्तर इस प्रकार है
  1. खेल का उद्देश्य मनोरंजन होता है। कार्य का उद्देश्य मनोरंजन नहीं होता है। 
  2. क्रो एवं क्रो के अनुसार - खेल का उद्देश्य उसकी क्रिया में निहित रहता है। कार्य का उद्देश्य किसी भावी बात में निहित रहता है।
  3. खेल का सम्बन्ध साधारणतः काल्पनिक जगत् से होता है। कार्य का सम्बन्ध वास्तविक जगत से होता है।
  4. खेल, आयु बढ़ने के साथ कम होता है। कार्य, आयु बढ़ने के साथ बढ़ता है।
  5. खेल से केवल खेलने वाले को लाभ होता है। कार्य से दूसरे लोगों को भी लाभ होता है।
  6. खेल से आनन्द प्राप्त होता है। कार्य से आनन्द प्राप्त होना आवश्यक नहीं है। 
  7. खेल बन्द करवाने से बालक में क्रोध और दुःख उत्पन्न होते हैं। कार्य बन्द करवाने से उसमें ये भावनायें उत्पन्न नहीं होती हैं।
  8. खेल में बालक किसी प्रकार के बन्धन का अनुभव नहीं करता है। कार्य में वह बन्धन का अनुभव करता है।
  9. रॉस के अनुसार - खेल, बालक की स्वयं की इच्छा पर निर्भर रहता है। कार्य में उसे दूसरे की इच्छा पर आश्रित रहना पड़ता है। 
  10. ड्रेवर के अनुसार - खेल में क्रिया का महत्व स्वयं क्रिया में होता है। कार्य में क्रिया का महत्व किसी अन्य बात में होता है।
हमने उपरिलिखित पंक्तियों के सामान्य रूप से खेल और कार्य में पाये जाने वाले अन्तर को अक्षरबद्ध करने की चेष्टा की है और इसके समर्थन में कुछ मनोवैज्ञानिकों के विचारों को भी अंकित किया है। पर यथार्थता यह है कि खेल और कार्य के मध्य विभाजन की कोई निश्चित रेखा नहीं खींची जा सकती है। दोनों की सीमायें एक-दूसरे को आच्छादित करती हैं एक-दूसरे पर अतिक्रमण करती हैं। 

कारण यह है कि जो एक व्यक्ति के लिए कार्य है, वह दूसरे व्यक्ति के लिए खेल है; उदाहरणार्थ, प्राचीन वस्तुओं का संग्रह, बालक के लिए खेल, वयस्क के लिए प्रिय व्यापार और उनको बेचने वाले के लिए कार्य हो सकता है, पर यदि वह उसको अपनी जीविका का आधार बना लेता है, तो वह उसके लिए कार्य का रूप धारण कर लेती है।

अतः निष्कर्ष रूप में, हम कह सकते हैं कि खेल और कार्य में स्वयं उनके कारण नहीं, वरन् उनके प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण के कारण अन्तर होता है। हरलॉक का मत है - "अनेक व्यक्ति, कार्य और खेल में अन्तर करने का प्रयास करते हैं, पर ऐसी कोई भी क्रिया नहीं है, जिसको केवल कार्य या केवल खेल कहा जा सके। वह क्रिया कार्य है या खेल, यह उसके प्रति व्यक्ति के दृष्टिकोण पर निर्भर रहता है।"

खेल के प्रकार

बच्चों के सब खेलों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है - (1) वैयक्तिक, और (2) सामूहिक इन दोनों प्रकार के खेलों के आधार पर कार्लग्रूस ने बालकोपयोगी खेलों का विस्तृत वर्णन किया है। उनमें से पाँच प्रकार के खेल अधिक महत्वपूर्ण है;

परीक्षणात्मक खेल

इस प्रकार के खेलों में बालक, वस्तुओं को उलट-पलट कर देखता है या उनका परीक्षण करता है। इन खेलों का आधार जिज्ञासा की प्रवृत्ति है। ये खेल वैयक्तिक होते हैं।

गतिशील खेल

इस प्रकार के खेलों में दौड़-भाग, उछल-कूद आदि आते हैं। ये खेल, शरीर की गति का विकास करते हैं। ये खेल वैयक्तिक और सामूहिक- दोनों प्रकार के होते हैं।

रचनात्मक खेल

इस प्रकार के खेलों में बालक विभिन्न वस्तुओं का निर्माण और ध्वंस करता है, जैसे- रेत या मिट्टी के पहाड़, घर, टीले आदि बनाना और बिगाड़ना। इन खेलों का आधार, रचनात्मकता की प्रक्रिया है। ये खेल वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार के होते हैं।

लड़ाई के खेल

इस प्रकार के खेलों में हार-जीत के खेलों को स्थान दिया जाता है; जैसे- हॉकी, कबड्डी, फुटबाल, मुक्केबाजी आदि। इन खेलों का सामान्य आधार, प्रतियोगिता या युद्धप्रियता होती है। ये खेल साधारणतः सामूहिक होते हैं।

बौद्धिक खेल 

इस प्रकार के खेलों का सम्बन्ध बुद्धि से होता है, जैसे- चौपड़, शतरंज, पहेलियाँ आदि। ये खेल, बुद्धि का विकास करते हैं। ये वैयक्तिक और सामूहिक दोनों प्रकार के होते हैं।

अन्य प्रकार के खेल 

हरलॉक ने विभिन्न अवस्थाओं के बालकों के कुछ अन्य प्रकार के महत्वपूर्ण खेलों का उल्लेख किया है,

स्वतन्त्र ऐच्छिक खेल

ये खेल, सबसे प्रारम्भिक हैं। बालक इनको अकेला एवं जब, जहाँ और जब तक चाहता है, खेलता है। वह इन खेलों को अपने शरीर के अंगों या खिलौनों से खेलता है।

झूठ-मूठ के खेल

इन खेलों में बालक किसी वयस्क के समान कार्य या व्यवहार करता है। वह विभिन्न वस्तुओं के विभिन्न नाम रखता है और उनसे बातें करता है।

माता सम्बन्धी खेल

इन खेलों को बालक अपनी प्रारम्भिक अवस्था में अपनी माता के साथ खेलता है, जैसे- आँख मिचौनी । 

संवेगात्मक खेल

इन खेलों में बालक विभिन्न संवेगों का अनुभव करता है और उनके अनुरूप अभिनय करता है, जैसे- वीरता का अभिनय।

खेल के सिद्धान्त

बालक में खेलने की प्रवृत्ति क्यों पाई जाती है? वह क्यों खेलता है और क्यों खेलना चाहता है? इन प्रश्नों पर विद्वानों और मनोवैज्ञानिकों ने विचार करके कुछ सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, जिनमें से मुख्य निम्नांकित हैं-

अतिरिक्त शक्ति का सिद्धान्त 

यह सिद्धान्त सम्भवतः सबसे प्राचीन है। इसके प्रतिपादक, जर्मन कवि शीलर और अंग्रेज दार्शनिक हरबर्ट स्पेंसर माने जाते हैं। इसलिए, इस सिद्धान्त को शिलर व स्पैंसर का सिद्धान्त' भी कहा जाता है। बालक को निरंतर और निरुद्देश्य खेलते देखकर इन विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला कि वह कार्य से बची हुई अपनी शक्ति का खेल में प्रयोग करता है। इसकी पुष्टि करते हुए नन ने लिखा है - “खेल साधारणतः अतिरिक्त शक्ति का प्रदर्शन माना जाता है। "

आधुनिक युग में इस सिद्धान्त को स्वीकार नहीं किया जाता है। स्किनर एवं हेरीमन के अनुसार, इसके तीन कारण हैं- 
  • बीमार बालक में अतिरिक्त शक्ति नहीं होती है, फिर भी वह खेलता है।
  • बहुत-से खेल अतिरिक्त शक्ति चाहने के बजाय शक्ति प्रदान करते हैं।
  • विकास की विभिन्न अवस्थाओं में बालक की खेल सम्बन्धी रुचियाँ बदल जाती हैं।

पूर्व अभिनय का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादक मालबेंस और मुख्य समर्थक, स्विट्जरलैंड का मनोवैज्ञानिक कार्ल ग्रूस है। ग्रूस के अनुसार, बच्चे में भावी वयस्क जीवन की तैयारी करने की आन्तरिक प्रवृत्ति होती है। गुड़िया से खेलने वाली बालिका अज्ञात रूप से बच्चे की देखभाल करने का प्रशिक्षण प्राप्त करती है।
आधुनिक मनोवैज्ञानिक यह तो मानते हैं कि बालक में खेलने की आन्तरिक प्रवृत्ति होती है, पर वे यह नहीं मानते हैं कि वह खेल द्वारा या अज्ञात रूप में वयस्क जीवन की तैयारी करता है। स्किनर एवं हैरीमन के अनुसार उनका तर्क यह है - "बालक खेल के द्वारा अनेक बातें सीखता है, पर वह ज्ञात या अज्ञात रूप से सीखने के लिए नहीं खेलता है।" 

पुनरावृत्ति का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादक जी. स्टेनले हॉल है। उसके अनुसार, बालक अपने खेलों में प्रज अनुभवों की पुनरावृत्ति करता है। दूसरे शब्दों में, वह अपने खेलों द्वारा अपने पूर्वजों के उन सब कार्यों को दोहराता है, जो वे आदि काल से करते चले आ रहे हैं। इस प्रकार के कुछ कार्य हैं- दौड़ना, लड़ना, पत्थर फेंकना, वृक्षों पर चढ़ना आदि। इस सिद्धान्त को कुछ समय तक स्वीकार किया गया, पर अब त्याग दिया गया है। इसका कारण बताते हुए क्रो व क्रो ने लिखा है - "अब यह विश्वास नहीं किया जाता है कि बालक अर्जित लक्षणों और विशेषताओं को वंशानुक्रम से प्राप्त करते हैं।"

मूलप्रवृत्ति का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादक, मैक्डूगल है। उसके अनुसार, खेल का कारण मूलप्रवृत्तियों की परिपक्वता है। दूसरे शब्दों में, जब मूलप्रवृत्तियाँ अपने समय से पहले परिपक्व हो जाती हैं, तब उनकी अभिव्यक्ति खेल द्वारा होती है। मैक्डूगल के मूलप्रवृत्तियों के सिद्धान्त की मान्यता कम होने के कारण इस सिद्धान्त की मान्यता भी कम हो गई है।

पुनः प्राप्ति का सिद्धान्त

इस सिद्धान्त का प्रतिपादक, बर्लिन निवासी लाजारस और समर्थक जी. टी. डब्ल्यू. पैट्रिक हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार, खेल द्वारा शक्ति की पुनः प्राप्ति होती है। खेल इसलिए खेला जाता है, जिससे कि व्यक्ति उस शक्ति को फिर से प्राप्त कर ले, जो उसने अपने कार्य करते समय थकने के कारण नष्ट कर दी है। इसलिए, बालक, कार्य करने के बाद खेलना चाहता है। 

इस सिद्धान्त को अस्वीकार करने का कारण बताते हुए बी. एन. झा ने लिखा है- “बालक केवल खेल के लिए अनेक प्रकार के खेल खेलते हैं। यह सिद्धान्त हमें इसका कोई कारण नहीं बताता है।" खेल, कार्य से विश्राम देता है। इसलिए, इस सिद्धान्त को 'विश्राम सिद्धान्त' भी कहते हैं।

परिष्कार का सिद्धान्त

'Catharsis' शब्द यूनानी दार्शनिक, अरस्तू की एक पुस्तक से लिया गया है। इसका अर्थ है 'परिष्कार' या 'शुद्धि'। बालक, वंशानुक्रम के द्वारा अपने जंगली पूर्वजों की प्रवृत्तियाँ प्राप्त करता है। खेल इनको बाहर निकालने या बालक का परिष्कार करने का एक साधन है। रॉस का कथन है – “खेल की क्रिया परिष्कार करती है। यह कुछ अवरुद्ध प्रवृत्तियों और संवेगों को बाहर निकालने का मार्ग प्रदान करती है, जिनको बाल्यकाल या वयस्क जीवन में पर्याप्त प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति नहीं मिल सकती है।"

हमने खेल के जिन सिद्धान्तों की चर्चा की है, वे खेल की व्याख्या अवश्य करते हैं, पर यह व्याख्या अपूर्ण और एकांगी है। इसलिए, आधुनिक युग में इनमें से किसी को भी स्वीकार न किया जाकर जॉन डीवी के सिद्धान्त को साधारणतः स्वीकार किया जाता है। उसने खेल को जीवन मानकर जीवन की 'क्रियाशीलता का सिद्धान्त' प्रतिपादित किया है। क्रो व क्रो के अनुसार, उसका विश्वास है- "क्रियाशीलता जीवन का सार है। व्यक्ति की क्रिया अनेक रूपों में व्यक्त की जा सकती है। बालक के जीवन का मुख्य कार्य खेल है।" इस प्रकार ड्यूवी ने खेल की व्याख्या - जीवन की क्रियाशीलता के आधार पर की है।

बालक के लिए खेल का महत्व

बालक के लिए खेल का क्या महत्व है, इस सम्बन्ध में क्रो व क्रो ने लिखा है - "स्वतन्त्र क्रिया, जो तुलनात्मक रूप में निरुद्देश्य जान पड़ती है, बालक के व्यक्तित्व के प्रत्येक अंग को प्रभावित करती है।" 

'खेल' बालक के प्रत्येक अंग को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसका संक्षिप्त वर्णन दृष्टव्य है-

शारीरिक महत्व 

खेल से बालक को होने वाले शारीरिक लाभ इस प्रकार हैं
  • भौतिक वातावरण का ज्ञान।
  • रक्त का स्वतन्त्र संचार।
  • शारीरिक बल और स्वास्थ्य की प्राप्ति।
  • शारीरिक अंगों और माँसपेशियों की सुडौलता।
  • रोगों से बचने की क्षमता।

मानसिक महत्व

खेल से बालक को होने वाले मानसिक लाभ इस प्रकार हैं 
  • भाषा का विकास।
  • मानसिक थकान का अन्त।
  • मानसिक सन्तुलन की क्षमता।
  • नये विचारों और परिस्थितियों का ज्ञान।
  • तर्क, स्मृति, कल्पना, चिन्तन आदि शक्तियों का विकास।

सामाजिक महत्व

खेल से बालक को होने वाले सामाजिक लाभ इस प्रकार हैं- 
  • सामाजिक व्यवहार का ज्ञान।
  • दूसरों की इच्छा का सम्मान।
  • सामाजिक सम्पर्क की इच्छा की पूर्ति।
  • आत्म-हित से समूह-हित की श्रेष्ठता।
  • सहयोग, सामंजस्य, सहिष्णुता, नेतृत्व, आज्ञाकारिता, उत्तरदायित्व, निःस्वार्थता आदि गुणों का विकास। 

संवेगात्मक महत्व

खेल से बालक को होने वाले संवेगात्मक लाभ इस प्रकार हैं- 
  • दिवास्वप्न देखने की आदत का अन्त।
  • संवेगों का नियन्त्रण करने की क्षमता।
  • लज्जा, कायरता, चिड़चिड़ापन आदि दोषों का निवारण।
  • स्किनर एवं हैरीमन के अनुसार- “खेल, संवेगों को स्थिरता प्रदान करने में सहायता देता है।”

वैयक्तिक महत्व 

खेल से बालक को होने वाले वैयक्तिक लाभ इस प्रकार हैं- 
  • प्रकृतिदत्त योग्यता का विकास।
  • पुस्तकीय ज्ञान के साथ व्यावहारिक ज्ञान की प्राप्ति।
  • शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक विकास के कारण व्यक्तित्व का चतुर्मुखी विकास।

नैतिक महत्व 

खेल से बालक को होने वाले नैतिक लाभ इस प्रकार हैं- 
  • उचित-अनुचित का ज्ञान।
  • समूह के नैतिक स्तरों को मान्यता।
  • ईमानदारी, सत्यता और आत्म-नियन्त्रण का प्रशिक्षण और दुःख में समान भाव का प्रशिक्षण।
  • विचारों, इच्छाओं और कार्यों पर नियन्त्रण का प्रशिक्षण।
  • हरलॉक के अनुसार- "बालक के नैतिक प्रशिक्षण में खेल सबसे अधिक महत्वपूर्ण साधन है।"

शैक्षिक महत्व 

खेल से बालक को होने वाले शैक्षिक लाभ इस प्रकार हैं 
  • विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से खेलने के कारण उनके आकार, रंग, बनावट, उपयोगिता आदि का ज्ञान।
  • खोज और संचय द्वारा ज्ञान की वृद्धि।
  • रेडियो, चलचित्र, संग्रहालय द्वारा सूचनाओं की प्राप्ति।
  • आत्म-अभिव्यक्ति का अवसर। 

बाल-अध्ययन में सहायता

खेल, बाल अध्ययन में अग्र प्रकार से सहायता करते हैं–
  • बालक के खेलों को देखकर उसके सामाजिक सम्बन्धों का ज्ञान।
  • बालक की अपने सम्बन्ध में धारणा कि वह क्या चाहता है।
  • बालक की रुचि और विशेष योग्यता का ज्ञान। 

खेल द्वारा चिकित्सा

खेल द्वारा अग्र प्रकार की चिकित्सा होती है-
  • मानसिक और संवेगात्मक संतुलन खोने वाले बालक की खेल द्वारा चिकित्सा।
  • बालक को भय, क्रोध, निराशा, मानसिक द्वन्द्व आदि से मुक्त करने के लिए स्वतन्त्र खेलों का प्रयोग।
  • चिकित्सालयों में मानसिक रोगियों की मनोरंजन द्वारा चिकित्सा।
  • क्रो व क्रो के अनुसार- "मानसिक तनाव को दूर करने के लिए खेल का महत्व, खेल द्वारा चिकित्सा के प्रयोग से सिद्ध हो जाता है।"

शिक्षा में खेल-प्रणाली

यद्यपि 'खेल प्रणाली' का जन्मदाता, फ्रोबेल माना जाता है, पर आधुनिक युग में हेनरी काल्डवैलं कूक सम्भवतः पहला व्यक्ति था, जिसने बालक को शिक्षा देने के लिए इस प्रणाली को प्रबल समर्थन किया। इस प्रणाली में अपना दृढ़ विश्वास प्रकट करते हुए काल्डवेल ने कहा- "मेरा दृढ़ विश्वास है कि केवल वही कार्य करने के योग्य है, जो वास्तव में खेल है, क्योंकि खेल से मेरा अभिप्राय किसी कार्य को पूर्ण हृदय से करना है।"

काल्डवेल ने बताया कि बालक, कार्य को पूर्ण हृदय से तभी करता है, जब वह खेल में होता है। अतः उसमें प्रत्येक कार्य के लिए खेल की विधि को अपनाना अनिवार्य है। खेल द्वारा किये जाने वाले कार्य से बालक की शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और आध्यात्मिक शक्तियाँ क्रियाशील होती हैं। उसके कार्य और विचार में सामंजस्य स्थापित होता है और वह प्रगति के पथ पर अग्रसर होता है। 

इस प्रकार काल्डवेल ने शिक्षण की एक नई विधि आरम्भ की, जिसे 'खेल विधि' या 'खेल प्रणाली' कहा जाता है। इस विधि' का अर्थ स्पष्ट करते हुए, ह्यूजेज व ह्यूजेज ने लिखा है- "वह विधि, जो बालकों को उसी उत्साह से सीखने की क्षमता देती है, जो उनके स्वाभाविक खेल में पाई जाती है, प्रायः खेल विधि कहलाती है।"

खेल विधि पर आधारित शिक्षण पद्धतियाँ 

हम खेल-विधि पर आधारित मुख्य शिक्षण विधियों का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं;

किंडरगार्टन पद्धति

यह पद्धति फ्रोबेल द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक को खेल-गीतों और उपहारों द्वारा शिक्षा दी जाती है। इन गीतों के आधार शिशु खेल और शिशु कार्य हैं। उपहारों में नाना प्रकार की वस्तुएँ हैं, जैसे- ऊन की गेंदें, लकड़ी का गोला, तिकोनी तख्तियाँ, चतुर्भुज आदि।

मॉण्टेसरी पद्धति

यह पद्धति मेरिया मांतेसरी द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक विभिन्न प्रकार के उपकरणों से खेलकर अक्षरों, अंकगणित, रेखागणित आदि का ज्ञान प्राप्त करता है। खेल ही उसकी ज्ञानेन्द्रियों को प्रशिक्षित करता है।

ह्यूरिस्टिक पद्धति 

यह पद्धति आर्म्सस्ट्रांग द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक- शिक्षक, यन्त्रों और पुस्तकों की सहायता से स्वयं ज्ञान का अर्जन करता है। नन का कथन है- "क्योंकि ह्यूरिस्टिक पद्धति का उद्देश्य - बालक को मौलिक अन्वेषक की स्थिति में रखना है, इसलिए यह स्पष्ट रूप से खेल विधि है।"

प्रोजेक्ट पद्धति

यह पद्धति किलपैट्रिक द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति में बालक किसी योजना को व्यक्तिगत या सामूहिक रूप में पूर्ण करता है; जैसे- मॉडल बनाना, अभिनय करना, कहानी पढ़ना या सुनना आदि।

डाल्टन पद्धति

यह पद्धति मिस हेलेन पार्कहर्स्ट द्वारा प्रतिपादित की गई है। इस पद्धति के अनुसार कार्य करते समय बालक के ऊपर समय-सारणी, कक्षा नियमों, वार्षिक और अर्द्ध वार्षिक परीक्षाओं एवं विभिन्न विषयों के निर्दिष्ट घण्टों का कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया जाता है।

अन्य शिक्षण पद्धतियाँ

खेल पर आधारित अन्य शिक्षण पद्धतियाँ हैं- बेसिक शिक्षा, गैरी-योजना और विनेटका योजना।

खेल प्रणाली के गुण

खेलों द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास सहज रूप से किया जाता है। खेल शिशु शिक्षा की महत्वपूर्ण विधि है। खेल प्रणाली के गुण इस प्रकार हैं-
  • खेल बालक का शारीरिक विकास करते हैं।
  • खेलों द्वारा ज्ञानेन्द्रियों का प्रशिक्षण होता है।
  • खेल बालक का सामाजिक तथा मानसिक विकास करते हैं।
  • खेलों के द्वारा मूलप्रवृत्तियों का मार्गान्तीकरण होता है।
  • खेल व्यक्तित्व का विकास करते हैं।
  • खेल स्वयं शिक्षा, स्थायी ज्ञान तथा चरित्र के विकास के सशक्त साधन हैं।

खेल प्रणाली के दोष 

खेल प्रणाली सम्पूर्ण शैक्षिक प्रणाली नहीं है। इसमें ये दोष पाये जाते हैं-
  • व्यवहार में कठिनाई।
  • सभी स्तरों पर सभी विषयों के शिक्षण के उपयुक्त नहीं है।
  • खेल में गंभीरता का अभाव होता है। 
  • स्वतंत्रता का दुरुपयोग होने की संभावना होती है।
  • खेल में समय अधिक लगने से समय का दुरुपयोग होता है।
इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।