सामान्य प्रवृत्तियाँ - सुझाव, अनुकरण व सहानुभूति (General Tendencies)

प्रत्येक व्यक्ति में मूलप्रवृत्तियों के साथ-साथ सामान्य प्रवृत्तियाँ भी पाई जाती हैं।
Suggestion-Imitation-and-Sympathy
General Tendencies
 

सामान्य प्रवृत्तियाँ: सुझाव, अनुकरण व सहानुभूति 

General tendencies are of great educational value. They have an important social reference and go a great way in influencing the general social development of the child. - Jha.
प्रत्येक व्यक्ति में मूलप्रवृत्तियों के साथ-साथ सामान्य प्रवृत्तियाँ भी पाई जाती हैं। शिक्षा में सामान्य प्रवृत्तियों का प्रयोग करके बालक के व्यवहार में परिवर्तन किया जाता है। मानव व्यवहार के निर्माण में सुझाव, अनुसरण तथा सहानुभूति का विशेष महत्व है।

सामान्य प्रवृत्तियों का अर्थ

मैक्डूगल ने सुझाव, अनुकरण और सहानुभूति को सामान्य स्वाभाविक प्रवृत्तियो की संज्ञा दी है। डमविल ने इनको मानव स्वभाव की सामान्य प्रवृत्तियाँ बताया है। ये जन्मजात होती हैं और सामान्य रूप से सभी सामान्य परिस्थितियों में सभी व्यक्तियों में पाई जाती हैं।

रेबर्न ने सामान्य प्रवृत्तियों का अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है - “सामान्य प्रवृत्तियाँ, मूलप्रवृत्तियाँ नहीं हैं। ये विशेष प्रकार का व्यवहार नहीं हैं, पर ऐसी विधियाँ हैं, जिनके द्वारा अनेक विभिन्न प्रकार का व्यवहार जाग्रत किया जा सकता है। इसीलिए इनको सामान्य, न कि विशिष्ट प्रवृत्तियाँ कहा गया है। दोनों प्रवृत्तियों में से प्रत्येक का अपना स्वयं का विशिष्ट स्वरूप है। इनमें जो सामान्य बात है, वह स्वयं प्रवृत्तियाँ नहीं हैं, वरन् वे प्रतिक्रियाएँ हैं, जिनको वे उत्पन्न करती हैं।"

मूलप्रवृत्तियों व सामान्य प्रवृत्तियों में अन्तर 

भाटिया के अनुसार - "मूलप्रवृत्तियाँ और सामान्य प्रवृत्तियाँ सभी प्राणियों में स्वाभाविक, जन्मजात और सामान्य होती हैं।" फिर भी, दोनों को एक नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इनमें अग्रांकित अन्तर मिलता है
  1. मूलप्रवृत्तियों से एक विशेष प्रकार का संवेग सम्बद्ध रहता है। सामान्य प्रवृत्तियों से कोई संवेग सम्बद्ध नहीं रहता है।
  2. मूलप्रवृत्तियाँ विशेष परिस्थितियों में जाग्रत होती हैं। सामान्य प्रवृत्तियाँ किसी भी परिस्थिति में जाग्रत हो सकती हैं।
  3. मूलप्रवृत्तियाँ, व्यवहार की विशिष्ट विधियाँ हैं। सामान्य प्रवृतियाँ व्यवहार की जाग्रत करने की विशिष्ट विधियाँ हैं।
ड्रेवर को मूलप्रवृत्तियों और सामान्य प्रवृत्तियों में अन्तर मानने में आपत्ति है। इसका कारण यह है कि कुछ विशेष मूलप्रवृत्तियों में, जैसे - जिज्ञासा, रचनात्मकता और संचय में इनसे सम्बन्धित संवेग की अभिव्यक्ति नहीं होती है। अतः मूल-प्रवृत्तियों और सामान्य प्रवृत्तियों में केवल मात्रा का अन्तर है आकार का नहीं। इसी आधार पर ड्रेवर का कथन है - "मूलप्रवृत्तियों और सामान्य प्रवृत्तियों में अन्तर पूर्ण नहीं जान पड़ता है।"

सामान्य प्रवृत्तियों के प्रकार

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सामान्य प्रवृत्तियाँ मुख्यतः चार प्रकार की हैं,
  • सुझाव
  • अनुकरण
  • सहानुभूति
  • खेल
इन प्रवृत्तियों के अतिरिक्त रॉस ने "आदत" या "जानी हुई बात को दोहराने की प्रवृत्ति” को और डमविल ने "सुख को खोजने और दुःख से बचने की प्रवृत्ति" को 'सामान्य प्रवृत्तियों' में स्थान दिया है। ये प्रवृत्तियाँ ही मानव-व्यवहार की, मूलाधार हैं।

सुझाव का अर्थ व परिभाषा

'सुझाव' एक प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है। सुझाव को संकेत या निर्देश भी कहते हैं। दैनिक जीवन में हम बहुत से कार्य दूसरों के कहने से करते हैं। हमारा अचेतन मन दूसरों का कहना मान लेता है और उनके अनुसार कार्य करता है। इस प्रक्रिया के कारण हम दूसरे व्यक्ति के विचार को बिना तय किये हुए मान सकते हैं और उसके अनुसार कार्य या व्यवहार लगते हैं; उदाहरणार्थ, यदि माँ अपने बच्चे से कहती है, “अन्दर चलो, आँधी आ रही हैं तो बच्चा उसके सुझाव को मानकर अन्दर चला जाता है। हम 'सुझाव' के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं,

मैक्डूगल – “सुझाव, सन्देशवाहन की वह प्रक्रिया है, जिसके फलस्वरूप दिया गया सन्देश उचित तार्किक आधार के बिना भी विश्वास के साथ स्वीकार कर लिया जाता है। "

स्टर्ट व ओकडन – “सुझाव वह प्रक्रिया है, जिसके द्वारा हम दूसरों के विचारों को स्वीकार कर लेते हैं, यद्यपि उन्हें स्वीकार करने के लिए हमारे पास पर्याप्त कारण नहीं होते हैं।"

किम्बल यंग – “सुझाव सन्देशवाहन का ऐसा संकेत है, जो शब्दों, चित्रों या ऐसे ही किसी माध्यम द्वारा प्रस्तुत किया जाता है और अनाधारित या अतार्किक होते हुए भी स्वीकार कर लिया जाता है।"

सुझाव में व्यक्ति दूसरों के विचारों से प्रभावित होता है। सुझाव का स्पष्ट रूप सम्मोहन में देखा जा सकता है। दैनिक जीवन में विज्ञापन हमें अनेक प्रकार के सुझाव देते हैं। बार-बार दोहराये जाना, आत्मविश्वास तथा सुझाव देने वाले का प्रतिष्ठित होना, सुझाव की सफलता के लिये आवश्यक है।

सुझाव के प्रकार

भाव चालक सुझाव 

यह सुझाव हमारे अचेतन मस्तिष्क में जन्म लेता है और हमें प्रभावित करता है, उदाहरणार्थ, नृत्य देखते समय हमारे पैर अपने-आप थिरकने लगते हैं।

प्रतिष्ठा सुझाव

इस सुझाव का आधार व्यक्ति की प्रतिष्ठा होती है, उदाहरणार्थ, जवाहरलाल नेहरू के सुझावों का देश के कोने-कोने में स्वागत किया जाता था।

आत्म-सुझाव 

इस सुझाव में व्यक्ति स्वयं अपने को सुझा देता है, उदाहरणार्थ, यदि रोगी अपने को यह सुझाव देता रहता है कि वह अच्छा हो रहा है, तो वह शीघ्र अच्छा हो जाता है।

सामूहिक सुझाव 

इस प्रकार का सुझाव, व्यक्तियों के एक समूह द्वारा दिया जाता है; उदाहरणार्थ, हड़ताल के समय छात्र सामूहिक सुझाव के कारण ही अनुशासनहीनता के कार्य करने लगते हैं।

प्रतिषेध सुझाव

इस सुझाव का प्रभाव विपरीत होता है। जिस व्यक्ति को सुझाव दिया जाता है, वह उसके अनुसार कार्य न करके विपरीत कार्य करता है, उदाहरणार्थ, यदि किसी छोटे बच्चे से किसी वस्तु को न छूने को कहा जाय, तो वह उसे छूने का प्रयास अवश्य करता है या छू लेता है।

प्रत्यक्ष सुझाव 

इस सुझाव में लक्ष्य को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाता है, उदाहरणार्थ, धार्मिक उपदेशों और व्यापारिक विज्ञापनों में इसी प्रकार का सुझाव पाया जाता है।

अप्रत्यक्ष सुझाव 

इस सुझाव में लक्ष्य को स्पष्ट नहीं किया जाता है। इसके विपरीत, ऐसी भूमिका बाँधी जाती है कि लक्ष्य तक पहुँचा जा सके, उदाहरणार्थ, होशियार बच्चे यदि कोई फिल्म देखना चाहते हैं, तो वे उसे देखने की स्पष्ट माँग न करके कहते हैं कि लोग "बॉबी" की बड़ी तारीफ कर रहे हैं।

सकारात्मक सुझाव

यह सुझाव किसी कार्य को करने की प्रेरणा देता है, उदाहरणार्थ, "सीधे खड़े हो।"

नकारात्मक सुझाव

यह सुझाव किसी कार्य को न करने का आदेश देता है, उदाहरणार्थ, “फूल तोड़ना मना है।"

सुझाव का शिक्षा में महत्व

रेबर्न ने लिखा है - “सुझाव का व्यावहारिक महत्व बहुत अधिक है। बालक का व्यवहार मुख्यतः इसी के द्वारा परिवर्तित किया जाता है।"
बालक उसी प्रकार सीखता, कार्य करता और विश्वास करता है, जैसा कि उसे सुझाव दिया जाता है। अतः सुझाव का बालक और शिक्षक - दोनों के लिए विशेष महत्व है। यह दोनों की माना प्रकार से सहायता करता है,

नए विचार प्रदान करने में सहायता 

कीटिंग के अनुसार शिक्षक, बालकों को नए विचार प्रदान करने के लिए सुझाव का प्रयोग कर सकता है, पर उसे सुझाव अप्रत्यक्ष रूप से देने चाहिए। इसके लिए उसे शिक्षण के समय चित्रों, चार्टों आदि का प्रयोग करना चाहिए।

साहित्य शिक्षण में सहायता 

रेबर्न के अनुसार- साहित्य के शिक्षण में सुझाव का बहुत महत्व है, उदाहरणार्थ, शिक्षक कविता-पाठ की अपनी विधि से बालकों को वांछित भावनाओं का सुझाव देकर उनको जाग्रत कर सकता है।

विभिन्न विषयों में शिक्षण में सहायता

डम्विल के अनुसार विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अंकगणित और कुछ सीमा तक साहित्य में शिक्षक, बालकों को सब कुछ स्वयं न बताकर, सुझाव द्वारा उनके उत्तर निकलवा सकता है। ऐसा करके वह बालकों की विचार शक्ति का विकास और उनमें स्वयं खोज और स्वयं क्रिया की आदतों का निर्माण कर सकता है।

वातावरण निर्माण में सहायता 

रेबर्न के अनुसार - सुझाव द्वारा विभिन्न विषयों के शिक्षण के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया जा सकता है, उदाहरणार्थ, ऐसे कमरे में इतिहास की शिक्षा देना सरल है, जिसमें टंगे हुए चित्र, चार्ट और नक्शे इतिहास का संकेत देते हैं, न कि विज्ञान कक्ष में, जिसमें इतिहास का कोई वातावरण नहीं है।

रुचियों के विकास में सहायता 

रेबर्न के अनुसार - "सुझाव बालकों की रुचियों का विकास और विस्तार करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण है।" उदाहरणार्थ, शिक्षक, इतिहास पढ़ाते समय साहित्य, नागरिकशास्त्र, विज्ञान आदि की पुस्तकों का सुझाव देकर इन विषयों में बालकों की रुचि उत्पन्न कर सकता है।

मानसिक विकास में सहायता 

रेबर्न के अनुसार - शिक्षक, सुझाव द्वारा बालकों में शिक्षा, कला, कार्य, सौन्दर्य, संस्कृति, विद्यालय, साहित्य आदि के प्रति उत्तम मानसिक दृष्टिकोणों का निर्माण कर सकता है। इस प्रकार, वह सुझाव की सहायता से उनका मानसिक विकास कर सकता है।

चरित्र निर्माण में सहायता 

रेबर्न के शब्दों में - "चरित्र के सामान्य विकास और सफलता में सुझाव अति महान कार्य करता है।" रायबर्न का कथन है कि शिक्षक अपने ज्ञान और सम्मान के कारण प्रतिष्ठा सुझाव देने की स्थिति में होता है। अत: वह सुझाव द्वारा बालकों की अच्छे कार्यों, अच्छी आदतों और अच्छे विचारों में रुचि उत्पन्न कर सकता है। इस प्रकार, वह उनका नैतिक और चारित्रिक विकास करता है।

व्यक्तित्व निर्माण में सहायता

रेबर्न के शब्दों में - “सुझाव सामाजिक, नैतिक और संवेगात्मक क्षेत्रों में शक्तिशाली होता है।" अतः शिक्षक, सुझाव द्वारा बालकों के व्यक्तित्व का विकास कर सकता है। 

अनुशासन में सहायता

रेबर्न का कथन है - “विद्यालय कक्ष में अनुशासन, सुझाव का साधारण उदाहरण है।" अपने कथन की व्याख्या करते हुए रेबर्न ने लिखा है कि शिक्षक के आदेश में अनुशासन या अनुशासनहीनता का सुझाव निहित रहता है। घबड़ाये हुए शिक्षक के आदेश में अनुशासनहीनता का और आत्मविश्वासी शिक्षक के आदेश में अनुशासन का स्पष्ट सुझाव होता है। 

गुरु-शिष्य सम्बन्ध में सहायता 

डम्विल का मत है – “सुझाव साधारणतः आदेश से उत्तम होता है।" आम तौर पर बड़े छात्र आदेश को पसन्द नहीं करते हैं। फलतः आदेश - शिक्षक और छात्रों में मधुर सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाता है। अतः वेल्टन का मत है - "जैसे-जैसे बालक की बुद्धि, दूरदर्शिता और आत्म नियन्त्रण में वृद्धि होती जाय, वैसे-वैसे शिक्षक द्वारा सुझाव देना ही नियम बनाया जाय।"

सुझाव के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण चेतावनी देते हुए रेबर्न ने लिखा है - "हमें सदैव इस सम्बन्ध में सावधान रहना चाहिए कि हमारे सुझाव सकारात्मक हों, नकारात्मक नहीं।" इसका कारण यह है कि सकारात्मक सुझाव देने से बालकों की इच्छा शक्ति निर्बल हो जाती है और साथ ही वे विपरीत कार्य करने लगते हैं।

अनुकरण का अर्थ व परिभाषा 

'अनुकरण' का सामान्य अर्थ है - किसी कार्य या वस्तु की नकल करना। दैनिक जीवन में 'अनुकरण' एक सामान्य बात है; जैसे- दूसरों को दौड़ते देखकर दौड़ना, जिधर दूसरे देख रहे हैं, उसी ओर देखना अभिप्राय यह है कि वे सभी कार्य, जो हम चेतन या अचेतन अवस्था में दूसरों के कार्यों के अनुरूप करते हैं, अनुकरण कहलाते हैं। हम 'अनुकरण' का अर्थ के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं,

रेबर्न - "अनुकरण दूसरे व्यक्ति के बाह्य व्यवहार की नकल है।"
मीड - "दूसरे व्यक्ति के कार्यों या व्यवहार को जान-बूझकर अपनाना अनुकरण है।"
हेज - "अनुकरण, सामाजिक सुझाव की उपजाति है। यह बाह्य क्रिया के लिए दिया गया एक विचार है, जो प्राप्त करने के बाद क्रियान्वित किया जाता है।"
मैक्डूगल - "एक व्यक्ति द्वारा दूसरों की क्रियाओं या शारीरिक गतिविधियों की नकल करने की प्रक्रिया को अनुकरण कहते हैं।"
कैज एवं शैंक - "अनुकरण, प्रेरणा तथा प्रतिक्रिया के बीच वह सम्बन्ध है जिसमें प्रतिक्रिया प्रेरणा उत्पन्न करती है या उससे मिलती-जुलती होती है।"

इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि-
  1. अनुकरण स्वाभाविक प्रवृत्ति है। 
  2. यह सभी प्राणियों में पाई जाती है। 
  3. इसके द्वारा प्राणी अन्य कार्यों को सीखता है। 
  4. दूसरे के व्यवहार, विचार, भाव, गति, कार्य एवं क्रियाओं को देखकर स्वयं ठीक उसी प्रकार नकल करने लगता है।

अनुकरण के प्रकार 

मैक्डूगल ने 5 प्रकार के अनुकरण बताए हैं; 

सहज अनुकरण

यह अनुकरण दूसरे व्यक्ति के भाव के कारण किया जाता है और इसमें सहानुभूति का स्थान होता है, जैसे - एक बच्चे को मुस्कराता हुआ देखकर दूसरे बच्चे का मुस्कराना, भीड़ में एक या अधिक व्यक्तियों को अनुचित कार्य करते हुए देखकर दूसरे व्यक्तियों द्वारा भी वैसा ही कार्य किया जाना।

भाव चालक अनुकरण 

यह अनुकरण अपने स्वयं के भावों के कारण किया जाता है, जैसे- बालकों द्वारा शिक्षक के हास्यप्रद कार्य या व्यवहार का "दोहराया जाना।"

विचारपूर्ण अनुकरण

यह अनुकरण जान-बूझकर किया जाता है, जैसे किसी व्यक्ति को अपना आदर्श मानकर उसकी क्रियाओं का अनुकरण करना। 

प्रतिरूप अनुकरण 

इस अनुकरण में ध्यान, क्रिया पर केन्द्रित न रहक्कर, उससे उत्पन्न होने वाले प्रभाव पर केन्द्रित रहता है, जैसे - बालक किसी व्यक्ति को आग में कागज जलाते हुए देखकर, स्वयं कागज जला कर उसका प्रभाव देखता है।

शिशुओं का अनुकरण 

यह बहुत छोटे बच्चों का अनुकरण है और किसी प्रकार की भावना व्यक्त नहीं करता है, जैसे- किसी व्यक्ति को जीभ निकालते देखकर, बच्चे का अपनी जीभ निकालना। यह बिल्कुल शुद्ध प्रकार का अनुकरण है।


जेम्स ड्रेवर ने दो प्रकार के अनुकरण बताये हैं-

अचेतन अनुकरण 

इस प्रकार के अनुकरण में विचार या तर्क निहित नहीं होता। अनुकरण करने वाला अचेतन या अनजाने ढंग से दूसरे के व्यवहार की नकल करने लगता है - आजकल युवक-युवतियों में मीडिया के नायक-नायिकाओं की वेशभूषा, बालों का स्टाइल, चाल-ढाल का अनुसरण अचेतन रूप से किया जाता है।

सप्रयास अनुकरण 

इस प्रकार का अनुकरण जानबूझकर सप्रयास किया जाता है। व्यक्ति की इच्छा तथा रुचि इस प्रकार के अनुकरण का आवश्यक तत्व है।

अनुकरण का शिक्षा में महत्व

शिक्षा में अनुकरण का अत्यधिक महत्व है। यदि यह कहा जाय कि अनुकरण ही शिक्षा का आरम्भ है तो अत्युक्ति नहीं होगी। बालक विद्यालय में भाषा, खेल, बोलचाल, जीवन शैली, पढ़ना-लिखना आदि अनुकरण के माध्यम से ही सीखता है। जेम्स का कथन है - "अनुकरण और आविष्कार ही दो साधन हैं, जिनकी सहायता से मानव जाति ने अपना ऐतिहासिक विकास किया है।"

जेम्स के कथन से न केवल मानव जाति के लिए वरन् उसके अंग - बालक के लिए भी अनुकरण की उपयोगिता का परिचय मिलता है। वस्तुतः बालक की शिक्षा और विकास में अनुकरण के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं। हम इस महत्व का दिग्दर्शन निम्नांकित शीर्षकों के अन्तर्गत करा रहे हैं :

कुशलता की प्राप्ति 

डम्बिल के अनुसार - "अनुकरण ही वह विधि है, जिसके द्वारा हम अनेक क्रियाओं में कुशलता प्राप्त करते हैं।" इस प्रकार की कुछ क्रियायें हैं - बोलना, खेलना, चित्र बनाना आदि। बालक इन क्रियाओं में अच्छे बालकों और शिक्षक का अनुकरण करके कुशलता प्राप्त करता है।

नैतिकता की शिक्षा

रेबर्न के शब्दों में - "अनुकरण का नैतिक क्षेत्र में वही कार्य है, जो मानसिक क्षेत्र में है।" बालक अपने माता-पिता, शिक्षक आदि की नैतिक बातों को अनुकरण द्वारा सीखता है। अतः घर और विद्यालय का वातावरण ऐसा होना चाहिए, जिससे बालक को उत्तम नैतिक शिक्षा प्राप्त हो।

अच्छे आदर्शों की शिक्षा 

डम्विल के अनुसार बालक, शिक्षकों के कार्यों, शारीरिक गतियों, वेश-भूषा, व्यवहार आदि का अनुकरण करके, अच्छी या बुरी बातें सीखता है। अतः शिक्षक को सब बातों के अच्छे आदर्श उपस्थित करके, बालक को अनुकरण द्वारा उनसे शिक्षा प्राप्त करने का अवसर देना चाहिए।

सामाजिक व्यवहार की शिक्षा

फ्लीमिंग के अनुसार - बालक सामाजिक व्यवहार को अनुकरण द्वारा बहुत सरलता से सीख सकता है। अतः शिक्षक को विभिन्न सामाजिक क्रियाओं, पर्यटनों आदि की व्यवस्था करके बालक को इनमें भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिये, ताकि उसे अनुकरण द्वारा सामाजिक व्यवहार की शिक्षा मिल सके। 

मानसिक विकास का साधन

स्टाउट के शब्दों में - "मानसिक विकास के लिए अनुकरण की प्रक्रिया का बहुत ही अधिक महत्व है।" बालक अनुकरण द्वारा ही अपने माता-पिता, शिक्षक, साथियों और समाज से अनेक बातें सीखकर, अपना मानसिक विकास करता है। अतः शिक्षक को विद्यालय में ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी चाहिए, जिनसे बालक अनुकरण द्वारा अधिक से अधिक बातें सीखकर अपना मानसिक विकास कर सके।

स्पर्द्धा उत्पन्न करने का साधन

बालक में अनुकरण करते समय दूसरे से आगे बढ़ने की प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है, जिसे 'स्पर्द्धा' कहते हैं। यदि बालक आगे नहीं बढ़ पाता है, तो उसमें ईर्ष्या उत्पन्न हो जाती है। शिक्षक का कर्तव्य है - बालक में स्पर्द्धा को प्रोत्साहन देना और ईर्ष्या का दमन करना।

आत्म-अभिव्यक्ति का साधन

रॉस का मत है - "अनुकरण मौलिक आत्म-अभिव्यक्ति का साधन है।" रॉस का कथन है कि शिक्षक को विभिन्न पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं का आयोजन करके, बालक को आत्म-अभिव्यक्ति का अवसर देना चाहिए। ऐसा करके वह बालक में निहित योग्यताओं का विकास कर सकता है।

व्यक्तित्व निर्माण का साधन

अनुकरण व्यक्तित्व के निर्माण का महत्वपूर्ण साधन है। इस सम्बन्ध में नन ने लिखा है - “अनुकरण व्यक्तित्व के निर्माण का प्रथम चरण है। अनुकरण का क्षेत्र जितना ही अधिक उत्तम होगा, उतना ही अधिक व्यक्तित्व का विकास होगा।"

सहानुभूति का अर्थ व परिभाषा

"सहानुभूति" शब्द का प्रयोग साधारणतः उस समय किया जाता है, जब हमारे हृदय में दूसरे व्यक्ति के प्रति कोमल भावना का उदय होता है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने 'सहानुभूति' को एक विशेष प्रकार का संवेग माना है। इसका अभिप्राय यह है कि दूसरे व्यक्तियों में एक प्रकार का संवेग देखकर, हम भी उस संवेग का अनुभव करने लगते हैं, उदाहरणार्थ, दुसरे को दुःखी देखकर दुःखी और सुखी देखकर सुखी होना। 

सहानुभूति का अर्थ है दूसरों के अनुभवों की अनुभूति करना। किसी को प्रसन्न देख, स्वयं प्रसन्न होना सहानुभूति का एक रूप है। जेम्स ने इसे एक प्रकार का संवेग कहा है। यह सीखी गई प्रतिक्रिया का परिणाम है। इसमें सामाजिकता, संस्कृति, संस्कार एवं परम्परा निहित है। इस सहज प्रवृत्ति से व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों का विकास होता है।

हम 'सहानुभूति' का अर्थ और अधिक स्पष्ट करने के लिए कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं,
रेबर्न - "सहानुभूति का अर्थ है- दूसरों के द्वारा व्यक्त किये जाने वाले किसी संवेग की हममें उत्पत्ति।"
अकोलकर - "सहानुभूति का अर्थ है - उसी प्रकार के संवेग का अनुभव करना, जिसका अनुभव दूसरा व्यक्ति कर रहा है।"
क्रो व क्रो - “सहानुभूति एक प्रकार का संवेगात्मक प्रदर्शन है, जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने को दूसरे व्यक्ति की स्थिति में रखने का और उसके सुख या दुःख की भावनाओं का अनुभव करने का प्रयास करता है।"

सहानुभूति के प्रकार

सहानुभूति का वर्गीकरण, परिस्थिति तथा व्यक्ति के आधार पर किया जाता है। सहानुभूति में क्रिया एवं अभिव्यक्ति निहित होती है। इस आधार पर सहानुभूति चार प्रकार की होती है : 

सक्रिय सहानुभूति 

इस सहानुभूति में क्रियाशीलता होती है और हम दूसरे के लिए कुछ करने के लिए तैयार हो जाते हैं, उदाहरणार्थ, हम भूखे भिखारी को देखकर द्रवित हो जाते हैं और उसे भोजन देते हैं।

निष्क्रिय सहानुभूति 

इस सहानुभूति में क्रियाशीलता नहीं होती है, उदाहरणार्थ, हम दुःखी मनुष्य को देखते हैं, पर उसकी सहायता नहीं करते हैं। हम उससे केवल सहानुभूति के दो-चार शब्द कह देते हैं। इस प्रकार निष्क्रिय सहानुभूति मौखिक और कृत्रिम होती है।

वैयक्तिक सहानुभूति 

यह सहानुभूति एक व्यक्ति के द्वारा दूसरे व्यक्ति के प्रति दिखाई जाती है, उदाहरणार्थ, मुसीबत में फँस बेबस स्त्री को देखकर, लगभग सभी लोग उसके प्रति सहानुभूति व्यक्त करते हैं।

सामूहिक सहानुभूति 

यह सहानुभूति एक समूह के सब व्यक्तियों द्वारा कम या अधिक मात्रा में किसी घटना या परिस्थिति के प्रति व्यक्त की जाती है, उदाहरणार्थ, बाढ़ पीड़ितों की सहायता करते समय सामूहिक सहानुभूति अपने स्पष्ट रूप में दिखाई देती है।

सहानुभूति का शिक्षा में महत्व

शिक्षा में सहानुभूति के महत्व को प्रदर्शित करते हुए बी एन. झा ने लिखा है - "वे सब शिक्षक जो कक्षा में बालकों को प्रेरणा देना चाहते हैं, अपनी सफलता के लिए मौलिक निष्क्रिय सहानुभूति की प्रवृत्ति पर निर्भर रहते हैं।"
झा के इन शब्दों से विदित हो जाता है कि शिक्षक और बालक का असीम महत्व है। इस महत्व का बहुमुखी स्वरूप है,
  1. शिक्षक की सहानुभूति, बालकों को शीघ्र और तन्मय होकर कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है। 
  2. मैक्डूगल के अनुसार शिक्षक की सहानुभूति, बालकों के कार्य को शान्तिमय बनाती है। 
  3. झा के अनुसार शिक्षक, सहानुभूति के द्वारा बालकों को एक-दूसरे से अपना सम्बन्ध समझने और फलस्वरूप सामाजिक समूह का सदस्य बनने में सहायता देता है।
  4. झा के अनुसार शिक्षक, सहानुभूति के द्वारा बालकों का संवेगात्मक विकास कर सकता है।
  5. शिक्षक, सहानुभूति के द्वारा बालकों को सरलता से नियन्त्रण में रखने के कारण अनुशासन की समस्या का समाधान कर सकता है।
  6. थाउल्स के अनुसार शिक्षक, बालकों में सहानुभूति का गुण उत्पन्न करके, उनको सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करने में सहायता दे सकता है। 
  7. ड्रमंड एवं मैलोन्स के अनुसार शिक्षक, बालकों में सहानुभूति का विकास करके, उनको नैतिक कार्यों की ओर प्रवृत्त कर सकता है। 
  8. डम्बिल के अनुसार शिक्षक, बालकों की सहानुभूति जाग्रत करके उनका सहयोग प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार, वह अपने शिक्षण को सफल बना सकता है। 
  9. शिक्षक, बालकों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करके, उनके विचारों और भावनाओं को जान सकता है। अतः वह अपनी समस्याओं का समाधान कर सकता है।
  10. रॉस के अनुसार शिक्षक के लिए सहानुभूति वह साधन है, जिससे वह बालकों को एक-दूसरे के निकट सम्पर्क में लाकर, उनमें सामाजिक गुणों का विकास कर सकता है।
उपर्युक्त विवेचन से सिद्ध हो जाता है कि शिक्षक में सहानुभूति का गुण होना अनिवार्य है। इस गुण के अभाव में वह योग्यतम व्यक्ति होने पर भी अपने कार्य में असफल रहेगा। इसलिए, रॉस का परामर्श है - “जो व्यक्ति सहानुभूति के गुण से वंचित है, उसे शिक्षक नहीं बनना चाहिए।"
इन सभी कथनों पर विचार करके यह कहा जा सकता है कि सहानुभूति का शिक्षा महत्व इस प्रकार है
  • बालक का संवेगात्मक विकास करने में सहानुभूति का विशेष महत्व है।
  • इसके द्वारा नैतिकता तथा सौंदर्यात्मकता का विकास होता है। 
  • बालक के सामाजिक विकास में इसका विशेष योगदान है।
  • सहानुभूति, अनुशासन बनाने में सहयोग देती है। 
  • सीखने के प्रति रुचि जाग्रत होती है।
  • शिक्षण कार्य में सफलता मिलती है।

इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।