भग्नाशा का अर्थ, प्रकार व परिभाषा | Definition of Frustration

गुड - "भग्नाशा का अर्थ है - किसी इच्छा या आवश्यकता में बाधा पड़ने से. उत्पन्न होने वाला संवेगात्मक तनाव।"
 
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Definition of Frustration

भग्नाशा का अर्थ व परिभाषा

व्यक्ति की अनेक इच्छायें और आवश्यकतायें होती हैं। वह उनको सन्तुष्ट करने का प्रयास करता है। पर यह आवश्यक नहीं है कि वह ऐसा करने में सफल ही हो। उसके मार्ग में बाधायें आ सकती हैं। वे बाधायें उसकी आशाओं को पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से भंग कर सकती हैं। ऐसी दशा में वह 'भग्नाशा' का अनुभव करता है। उदाहरणार्थ, हम प्रातः काल चार बजे की गाड़ी से दिल्ली जाना चाहते हैं। हम समय से पहले उठने के लिए अलार्म घड़ी में चाभी लगा देते हैं, पर वह बजती नहीं है। 

अतः हम जाग नहीं पाते हैं और दिल्ली जाने से रह जाते हैं। या मान लीजिए कि हम समय पर स्टेशन पहुँच जाते हैं। पर भीड़ के कारण हमें टिकट नहीं मिल पाती है या हम गाड़ी में नहीं बैठ पाते हैं और वह चली जाती है। दोनों दशाओं में दिल्ली जाने की हमारी इच्छा में अवरोध उत्पन्न होता है। वह पूर्ण नहीं होती है, जिसके फलस्वरूप हम 'भग्नाशा' का शिकार बनते हैं।

इस प्रकार, हम कह सकते हैं कि 'भग्नाशा', तनाव और असमायोजन की वह दशा है, जो हमारी किसी इच्छा या आवश्यकता के मार्ग में बाधा आने से उत्पन्न होती है। हम 'भग्नाशा' के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने के लिए दो परिभाषाएँ दे रहे हैं।
1. गुड - "भग्नाशा का अर्थ है - किसी इच्छा या आवश्यकता में बाधा पड़ने से. उत्पन्न होने वाला संवेगात्मक तनाव।"

2. कोलेसनिक - "भग्नाशा उस आवश्यकता की पूर्ति या लक्ष्य की प्राप्ति में अवरुद्ध होने या निष्फल होने की भावना है, जिसे व्यक्ति महत्त्वपूर्ण समझता है।"

भग्नाशा के प्रकार

'भग्नाशा' दो प्रकार की होती है।

1. बाह्य भग्नाशा 

बाह्य भग्नाशा उस परिस्थिति का परिणाम होती है, जिसमें कोई बाह्य बाधा, व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त करने से रोकती है। उदाहरणार्थ, भौतिक बाधाओं, 'नियमों, कानूनों या दूसरों के अधिकारों या इच्छाओं का परिणाम बाह्य भग्नाशा हो सकती है। 

2. आन्तरिक भग्नाशा

आन्तरिक भग्नाशा उस बाधा का परिणाम होती है, जो स्वयं व्यक्ति में होती है। उदाहरणार्थ, भय जो व्यक्ति को अपना लक्ष्य प्राप्त करने से रोकता है या व्यक्तिगत कमियों (जैसे पर्याप्त ज्ञान, शक्ति, साहस या कुशलता का अभाव) का परिणाम - आन्तरिक भग्नाशा हो सकती है ।

भग्नाशा व व्यवहार

भग्नाशा की दशा में बालक या व्यक्ति चार प्रकार का व्यवहार करता है
  1. वह आक्रमणकारी बन जाता है। 
  2. वह आत्मसमर्पण कर देता है। 
  3. वह कुछ समय के लिए एकान्तवासी बन जाता है। 
  4. वह किसी रोग से ग्रस्त होने का विचार करता है। 
पर यह आवश्यक नहीं है कि इस प्रकार का कोई व्यवहार करने वाला व्यक्ति - भग्नाशा का शिकार है। इस विचार की पुष्टि करते हुए मोर्स एवं विंगो ने लिखा है - "जो व्यक्ति, भग्नाशा का शिकार होता है, वह इन चारों प्रकार के व्यवहार में से किसी प्रकार का व्यवहार करता है, पर यह आवश्यक नहीं है कि इन चारों प्रकार से व्यवहारों में से किसी प्रकार का व्यवहार करने वाला व्यक्ति, भग्नाशा का शिकार है।"

भग्नाशा के कारण

गेट्स एवं अन्य के अनुसार, 'भग्नाशा' के कारण इस प्रकार हैं।

1. भौतिक वातावरण

व्यक्ति की भोजन सम्बन्धी अनेक आधारभूत आवश्यकतायें होती हैं, पर भौतिक वातावरण उनकी पूर्ति में बाधा उपस्थित कर सकता है। बाढ़, अकाल या भूचाल के कारण फसल नष्ट हो सकती है। फलस्वरूप, व्यक्ति में भग्नाशा की उत्पत्ति स्वाभाविक है।

2. सामाजिक वातावरण 

समाज का सदस्य होने के कारण व्यक्ति को सामाजिक वातावरण से अनुकूलन करना पड़ता है। उसे समाज के नियमों, आदर्शों, परम्पराओं और मान्यताओं के विरुद्ध आचरण करने का अधिकार नहीं होता है। भारत में शद्रों, जर्मनी में यहूदियों, अमरीका में नीग्रो जाति के लोगों में समाज के नियम अनेक अधिकार प्रदान नहीं करते हैं। स्वतन्त्रता के आधुनिक युग में इस प्रकार के प्रतिबन्ध उनको भग्नाशा का शिकार बना देते हैं।

3. अन्य व्यक्ति 

व्यक्ति की कुछ इच्छाओं में दूसरे लोग बाधा उपस्थित करते हैं। बच्चे मेला, तमाशा या सिनेमा देखने जाना चाहते हैं, पर उनको अपने माता-पिता की आज्ञा नहीं मिलती है। मिल का मजदूर अधिक मजदूरी चाहता है, पर मालिक उसे अधिक मजदूरी देने के बजाय निकाल देता है। बच्चों और मजदूर की इच्छायें अवरोध के कारण पूर्ण नहीं होती हैं। अतः वे अपने को भग्नाशा की दशा में पाते हैं।

4. आर्थिक कठिनाई 

आर्थिक कठिनाई, व्यक्ति की इच्छाओं और आवश्यकताओं के मार्ग में प्रबल अवरोध उत्पन्न करती है। धनाभाव के कारण उसे भरपेट भोजन और तन ढकने को कपड़े नसीब नहीं होते हैं। अतः वह भग्नाशा की चरम सीमा पर पहुँचकर समाज के विरुद्ध विद्रोह करता है। फ्रांस और रूस की क्रान्तियाँ इसके ज्वलन्त उदाहरण है।

5. शारीरिक दोष 

व्यक्ति के शारीरिक दोष उसकी अभिलाषाओं पर वज्र प्रहार करते हैं। लँगड़ा बालक खेलकूद में भाग नहीं ले सकता है। बहरा बालक संगीत के आनन्द से वंचित रह जाता है। अंधा बालक प्रकृति के सौन्दर्य का आस्वादन नहीं कर सकता है। इस प्रकार, शरीर के दोष, व्यक्ति की आकांक्षाओं को अपूर्ण रखकर उसे भग्नाशा का चिर मित्र बना देते हैं।

6. विरोधी इच्छायें 

व्यक्ति अपने दो विरोधी उद्देश्यों में से केवल एक ही पूर्ण होती है। एक नवयुवक विवाह भी करना चाहता है और विदेश जाकर उच्च अध्ययन भी करना चाहता है। एक नवयुवती नौकरी भी करना चाहती है और अपने भ्रमण करने वाले पति के साथ भी रहना चाहती है। ये दोनों केवल अपनी एक ही अभिलाषा पूर्ण कर सकती है। अतः दूसरी उनमें भग्नाशा उत्पन्न कर देती है।

7. विरोधी उद्देश्य

व्यक्ति अपने दो विरोधी उद्देश्यों में से केवल एक को ही प्राप्त कर सकता है। एक युवती अपने दो प्रेमियों के साथ जीवन व्यतीत करने के उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल नहीं हो सकती है। वह उनमें से केवल एक का चयन कर सकती है। इस प्रकार, अप्राप्य उद्देश्य उसकी भग्नाशा का कारण बनता है।

8. नैतिक आदर्श 

व्यक्ति के नैतिक आदर्श उसकी इच्छा में अवरोध उपस्थित करते हैं। वह अपने क्षुधा-पीड़ित बच्चों का पेट भरने के लिए चोरी करना चाहता है, पर उनका नैतिक आदर्श उसे ऐसा करने की आज्ञा नहीं देता है। अतः उसमें भग्नाशा उत्पन्न हो जाती है।

भग्नाशा या कुण्ठा का मनुष्य के व्यक्तित्व तथा जीवन व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यक्ति के विकास में भग्नाशा अनेक बाधायें उत्पन्न करती है। व्यक्ति की भावात्मक दशा अस्थिर हो जाती है, असंतुलन बढ़ने के कारण व्यवहार अस्थिर, असंयत हो जाता है असामान्यता प्रकट होती है, असामाजिकता विकसित होने लगती है, मानसिक तनाव बढ़ते हैं और व्यक्ति का मानसिक स्वास्थ्य विकृत होने लगता है।

ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि भग्नाशा के कारणों की खोज की जाय तथा उन्हें दूर करके व्यक्ति को मानसिक रूप से स्वस्थ बनाया जाय।

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