शिक्षा निर्देशन का अर्थ, उद्देश्य प्रकार एवं विधिया | Guidance in Education

निर्देशन क्या है? इसका उत्तर क्रो एवं क्रो ने अपनी पुस्तक "An Introduction to Guidance" में इन शब्दों में दिया है।

शिक्षा में निर्देशन

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Guidance in Education

निर्देशन का अर्थ

व्यक्तिगत भिन्नता की अवधारणा को स्वीकार करने के बाद यह स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्ति के विकास के लिये निर्देशन का होना आवश्यक है। यह निर्देशन, व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार पर दिया जाता है।

'निर्देशन' एक व्यक्तिगत कार्य है, जो किसी अन्य व्यक्ति को उसकी समस्याओं का समाधान करने के लिए दिया जाता है। निर्देशन उन समस्याओं का समाधान स्वयं नहीं करता है, वरन् ऐसी विधियाँ बताता है, जिनका प्रयोग करके व्यक्ति उन समस्याओं को स्वयं सुलझा सकता है। जिस व्यक्ति को निर्देशन दिया जाता है, वह उसे स्वीकार या अस्वीकार करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है।

निर्देशन क्या है? इसका उत्तर क्रो एवं क्रो ने अपनी पुस्तक "An Introduction to Guidance" में इन शब्दों में दिया है - "निर्देशन, आदेश नहीं है। यह एक व्यक्ति के दृष्टिकोण को दूसरे व्यक्ति पर लादना नहीं है। यह एक व्यक्ति के लिए उन निर्णयों का करना नहीं है, जो स्वयं करने चाहिए। यह किसी दूसरे के जीवन के उत्तरदायित्वों को वहन करना नहीं है। "

यदि 'निर्देशन' इन सब बातों में से कुछ भी नहीं हैं, तो फिर क्या है ? इसका उत्तर स्वयं क्रो एवं क्रो ने इन शब्दों में दिया है - "निर्देशन व्यक्तिगत रूप से योग्य और पर्याप्त प्रशिक्षण प्राप्त मनुष्यों या स्त्रियों से किसी आयु किसी व्यक्ति को प्राप्त होने वाली सहायता है, जो उसे अपने स्वयं के जीवन के कार्यों व्यवस्थित करने, अपने स्वयं के दृष्टिकोणों को विकसित करने, अपने स्वयं के निर्णयों को करने, और अपने स्वयं के उत्तरदायित्वों को वहन करने में सहायता देता है। "

'निर्देशन' के अर्थ को स्पष्ट करते हुए स्किनर ने लिखा है - "निर्देशन, नवयुवकों को अपने से, दूसरों से और परिस्थितियों से सामंजस्य करना सीखने के लिए सहायता देने की प्रक्रिया है। " 

इन परिभाषाओं पर विचार करने के पश्चात् हम यह कह सकते हैं कि-
  • निर्देशन एक प्रकार की व्यक्तिगत सहायता है।
  • निर्देशन द्वारा व्यक्ति के भावी जीवन की तैयारी की जाती है।
  • इसके द्वारा व्यक्ति के जीवन को सुखी बनाने का प्रयास किया जाता है। 
  • परिस्थितियों से समायोजन किया जाता है।

निर्देशन का उद्देश्य

विद्यालयों में अध्ययन करने वाले छात्र अल्प आयु होते हैं, उनके मस्तिष्क अपरिपक्व होते हैं, उनको जीवन का अनुभव नहीं होता है। अतः उनके जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं, जब वे उचित चुनाव नहीं कर पाते हैं। निर्देशन का उद्देश्य ऐसे अवसरों पर छात्रों की सहायता करना है। इस सम्बन्ध में स्किनर ने लिखा है - "आधुनिक शिक्षा में निर्देशन का विशिष्ट उद्देश्य है - प्रत्येक व्यक्ति को उसकी योग्यताओं, रुचियों और अवसरों के अनुकूल चुनाव करने में सहायता देना।"

छात्रों को कभी-कभी उचित प्रकार के चुनाव करने में तो कठिनाई होती ही है, पर उनके सामने ऐसे अवसर भी आते हैं, जब वे अपनी दैनिक समस्याओं को सुलझाने में असमर्थ रहते हैं। ऐसे अवसरों पर निर्देशन उनको सहायता देता है। अतः हम रिस्क के शब्दों में कह सकते हैं - "निर्देशन का उद्देश्य छात्रों को उनकी व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान करने में सहायता देना है। उचित प्रकार के निर्देशन से छात्रों में अपनी स्वयं की समस्याओं को सुलझाने की क्षमता का विकास होता है। निर्देशन का आधारभूत उद्देश्य- आत्म निर्देशन है।"

निर्देशन की विधियाँ व सोपान

छात्रों को निर्देशन देने के लिए साधारणत: दो विधियों का प्रयोग किया जाता है

व्यक्तिगत निर्देशन 

इस विधि में एक समय में केवल एक छात्र को निर्देशन दिया जाता है। महँगी होने के कारण इस विधि का प्रयोग कम किया जाता. है।

सामूहिक निर्देशन 

इस विधि में एक समय में अनेक छात्रों को निर्देशन दिया जाता है। यह विधि व्यक्तिगत निर्देशन की विधि से निम्नतर है। पर क्योंकि इस विधि में धन और समय कम लगता है, इसलिए अधिकतर इसी का प्रयोग किया जाता है।

दोनों विधियों में लगभग एक से ही सोपानों या चरणों का अनुसरण किया जाता है। हम इनमें से मुख्य सोपानों का निम्नलिखित पंक्तियों में वर्णन कर रहे हैं ।

साक्षात्कार

परामर्शदाता, छात्रों से साक्षात्कार करके उनकी रुचियों, समस्याओं, आवश्यकताओं आदि की जानकारी प्राप्त करता है।

प्रश्नावाली 

परामर्शदाता, छात्रों के बारे में जिन बातों को जानना चाहता है, उनके सम्बन्ध में एक या अनेक प्रश्नावलियाँ तैयार करता है। छात्रों के द्वारा दिए गए उन प्रश्नों के उत्तरों का विश्लेषण करके परामर्शदाता उनके विचारों और धारणाओं अवगत होता है। 

संचित अभिलेखों का अध्ययन 

विद्यालय में प्रत्येक बालक का एक संचित अभिलेख होता है, जिसमें उसकी रुचियों, आदतों, अभिवृत्तियों, विशिष्टताओं का अंकन होता है। परामर्शदाता इन अभिलेखों का अध्ययन करके छात्रों के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं के बारे में अपनी राय कायम करता है। 

मनोवैज्ञानिक परीक्षण 

परामर्शदाता, छात्रों की बुद्धि के स्तरों, विभिन्न रुचियों, मानसिक योग्यताओं और पाठ्यविषयों में उपलब्धियों का मूल्यांकन करने के लिए बुद्धि, रुचि और उपलब्धि का प्रयोग करता है।

अनुस्थापन वार्तालाप 

परामर्शदाता, छात्रों से वार्तालाप करता है। इसके दौरान वह उनकी रुचियों, क्षमताओं, आवश्यकताओं, व्यावसायिक उद्देश्यों आदि के सम्बन्ध में तथ्यों का संकलन करता है। साथ ही, वह उनको निर्देशन का महत्व समझाकर अपने बारे में परामर्श लेने के लिए प्रोत्साहित करता है।

पारिवारिक दशाओं का अध्ययन 

परामर्शदाता, छात्रों की पारिवारिक दशाओं का अध्ययन करता है। इस अध्ययन के द्वारा वह उनके परिवारों की आर्थिक और सामाजिक दशाओं, परिवारों में उनके प्रति उनके माता-पिता के व्यवहार आदि से सम्बन्धित तथ्यों का संग्रह करता है।

पार्श्वचित्र 

परामर्शदाता विभिन्न स्रोतों से एकत्र किए गए तथ्यों के आधार पर प्रत्येक छात्र का एक पार्श्वचित्र तैयार करता है। यह चित्र ग्राफ पेपर पर उसकी रुचियों, योग्यताओं आदि का प्रदर्शन करता है। इसको देखकर परामर्शदाता, छात्र की निर्बलताओं, विशिष्ट योग्यताओं और व्यवसाय सम्बन्धी क्षमताओं के बारे में सरलता से निष्कर्ष निकाल लेता है। इन निष्कर्ष के आधार पर वह छात्रों को शैक्षिक, वैयक्तिक और व्यावसायिक निर्देशन देता है।

अनुगामी कार्यक्रम 

परामर्शदाता का कार्य निर्देशन देने के बाद समाप्त नहीं हो जाता है। उस पर यह जानने का उत्तरदायित्व रहता है कि छात्र उसके निर्देशन का अनुसरण करके प्रगति कर रहे हैं या नहीं। यदि नहीं, तो वह उनको नए सिरे से फिर निर्देशन देता है।

निर्देशन के प्रकार

रिस्क ने विद्यालयों में छात्रों को दिए जाने वाले विभिन्न प्रकार के निर्देशन और उनके कार्यक्रमों का जो वर्णन किया है, उनका सार हम अग्रांकित पंक्तियों में दे रहे हैं।

शैक्षिक निर्देशन 

इसका सम्बन्ध छात्रों की शिक्षा और अध्ययन से है। अतः इस निर्देशन में अधोलिखित बातें होनी चाहिए 
  • विद्यालय में प्रवेश के समय छात्रों को उचित निर्देशन देना।
  • नये छात्रों को विद्यालय की अध्ययन सम्बन्धी बातों से परिचित कराना। 
  • छात्रों को शिक्षा की योजना बनाने और उसमें समय-समय पर परिवर्तन करके सुधार करने में सहायता देना।
  • छात्रों को अध्ययन की उचित विधियाँ बताना।
  • छात्रों को पुस्तकालय का उत्तम ढंग से प्रयोग करना सिखाना। 
  • छात्रों को अपनी शिक्षा की भावी योजनायें बनाने के लिए अन्य विद्यालयों या उच्च शिक्षा संस्थाओं की सूचना देना।
  • छात्रों के सम्बन्ध में विद्यालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली सूचना को एकत्र करना ।

व्यावसायिक निर्देशन 

इसका सम्बन्ध छात्रों के किसी व्यवसाय के चुनाव, व्यवसाय के लिए तैयारी नौकरी पाने और नौकरी में सफलता प्राप्त करने से है। 
अतः निर्देशन में नीचे लिखी बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए।
  • छात्रों को विभिन्न व्यवसायों के लाभ और हानियाँ बताना।
  • छात्रों को अपने व्यवसाय चुनने में सहायता देना। 
  • छात्रों को उन व्यवसायों की सूचना देना, जिनमें उनकी विशेष रुचि हो ।
  • छात्रों को विभिन्न व्यवसायों के सम्बन्ध में अपनी क्षमताओं, अभिवृत्तियों और योग्यताओं को आँकने में सहायता देना।
  • छात्रों को विभिन्न व्यवसायों में प्रशिक्षण प्राप्त करने और व्यावसायिक प्रशिक्षण देने वाले विद्यालयों की सूचना प्राप्त करने में सहायता देना। 
  • छात्रों को नौकरी खोजने में और नौकरी मिल जाने पर उन छात्रों को, जो चाहें सहायता देना।

व्यक्तिगत निर्देशन 

इनका सम्बन्ध उन व्यक्तिगत कठिनाइयों से है, जिनका अनुभव छात्र अपने अध्ययन काल में करते हैं। 
अतः इस निर्देशन में निम्नलिखित बातें होनी चाहिए।
  • छात्रों को व्यक्तिगत रूप से सहायता देना।
  • छात्रों को उनके अध्ययन में व्यक्तिगत रूप से सहायता देना।
  • छात्रों को विभिन्न व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाने में व्यक्तिगत रूप से पथ प्रदर्शन करना।
  • छात्रों को व्यक्तित्व सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करने में व्यक्तिगत रूप से परामर्श देना।
  • छात्रों को अपने वातावरण से अनुकूलन करने में व्यक्तिगत रूप से सहायता देना । 

स्वास्थ्य निर्देशन 

इसका सम्बन्ध छात्र, उसके परिवार और उसके समाज के स्वास्थ्य और सुरक्षा से है। 
अतः इस निर्देशन में निम्नलिखित कार्य सम्मिलित किये जाने चाहिए।
  • छात्रों को उत्तम आदतों और स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए आवश्यक परामर्श देना।
  • छात्रों को सुरक्षा और प्राथमिक उपचार की सूचना और प्रशिक्षण देना। 
  • छात्रों को शारीरिक दोषों और अन्य कमियों को दूर करने के लिए परामर्श और प्रशिक्षण देना।
  • छात्रों को अपने स्वास्थ्य और स्वास्थ्य सम्बन्धी आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त करने में सहायता देना। 
  • छात्रों को यौन शिक्षा के बारे में सूचना और परामर्श देना।

सामाजिक निर्देशन 

इसका सम्बन्ध छात्रों के सामाजिक सम्बन्धों से है। अतः इस निर्देशन में अधोलिखित बातें होनी चाहिए 
  • छात्रों को सामाजिक व्यवहार के बारे में सूचना और परामर्श देना।
  • छात्रों को सामाजिक व्यवहार का प्रशिक्षण देना। 
  • छात्रों में विद्यालय के प्रति उत्तम भावना का निर्माण करना।
  • छात्रों को नागरिकता के सम्बन्ध में परामर्श देना।
  • विद्यालय में सामाजिक कार्यक्रमों का आयोजन करना।

भारत में निर्देशन की आवश्यकता

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद न केवल भारत का मानचित्र बदला, वरन् उसने एक नए युग में भी प्रवेश किया। इस युग को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक और औद्योगिक क्रान्तियों के युग की संज्ञा देना अतिशयोक्ति न होगी। इन क्रान्तियों का प्रभाव सभी क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है। उदाहरणार्थ - जीवन सम्बन्धी समस्याएँ दिन प्रति दिन जटिल होती जा रही हैं, उचित और अनुचित के प्रति परम्परागत धारणाएँ टूटती जा रही हैं, धर्म पर आधारित मानव जीवन अतीत की घटना बनता जा रहा है, यांत्रिक और वैज्ञानिक प्रगति के कारण व्यक्ति के पुराने आदशो, मूल्यों और मानदण्डों में निरन्तर परिवर्तन हो रहा है, और भौतिकवाद की शक्तियाँ उसे विभिन्न दिशाओं में खींच रही हैं।

ऐसी दशाओं में व्यक्ति अपनी शिक्षा, व्यवहार और जीवन के लक्ष्यों को निश्चित करने में अपने को असमर्थ पाता है और निर्देशन की आवश्यकता का अनुभव करने लगता है। कुप्पूस्वामी ने ठीक ही लिखा है - "निर्देशन की आवश्यकता सभी युगों में रही है, पर आज इस देश (भारत) में जो दशाएँ उत्पन्न हो रही हैं, उन्होंने इस आवश्यकता को पर्याप्त रूप में बलवती बना दिया है।" इनमें से कुछ दशाओं का वर्णन निम्न प्रकार से किया जा सकता है।

बालकों की व्यक्तिगत विभिन्नताओं में वृद्धि 

पराधीन भारत में विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए केवल उच्च जातियों और सम्पन्न परिवारों के ही बालक आते थे। अतः उनमें अधिक विभिन्नतायें नहीं होती थीं। स्वतन्त्र भारत में शिक्षा की सुविधाओं में वृद्धि, अनिवार्य शिक्षा के प्रसार और सबके लिए समान शैक्षिक अवसरों की घोषणा के कारण विद्यालयों के सभी वर्गों, जातियों और परिवारों के बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिए आने लगे हैं। उनमें रुचियों, रुझानों, उद्देश्यों और आकांक्षाओं का अत्यधिक अन्तर होना स्वाभाविक है। इस अन्तर के अनुसार शिक्षा ग्रहण करके ही उनको वास्तविक लाभ हो सकता है। अतः उसके लिए निर्देशन की आवश्यकता है। 

शिक्षा के उद्देश्यों में परिवर्तन 

मनोविज्ञान के अनुसन्धानों ने शिक्षा के उद्देश्यों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिए हैं। अब शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक के मस्तिष्क को ज्ञान से भरना नहीं है, वरन् उसके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना है। यह तभी सम्भव है जब उसके सब पहलुओं का अध्ययन करके, शिक्षक को उसके अनुकूल शिक्षा की व्यवस्था करने का परामर्श दिया जाय। यह कार्य निर्देशन - सेवा कीं योजना को कार्यान्वित करके ही पूर्ण किया जा सकता है।

माध्यमिक शिक्षा का नवीन स्वरूप 

मुदालियर कमीशन के सुझाव के अनुसार, उच्चतर माध्यमिक स्तर पर शिक्षा के स्वरूप में क्रमशः परिवर्तन किया जा रहा है। इस स्तर पर विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की गई है और छात्रों को सात समूहों में से किसी एक समूह को चुनने की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है। इस स्तर के छात्रों को इतना अनुभव नहीं होता है कि वे उपयुक्त चुनाव कर सकें। अतः उनके लिए निर्देशन का आयोजन किया जाना आवश्यक है।

व्यवसायों का बाहुल्य 

भारत का अति तीव्र गति से औद्योगीकरण हो रहा है। उसके औद्योगिक विकास के साथ-साथ नवीन व्यवसायों की संख्या में वृद्धि हो रही है। 1959 में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित "National Classification of Occupations" नामक पुस्तिका में 3,000 नवीन व्यवसायों की चर्चा की गई थी। उस समय से आज तक इनकी संख्या में पर्याप्त वृद्धि हो चुकी होगी। हमारे छात्रों में इतने विविध प्रकार के व्यवसायों में से अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय का चुनाव करने की क्षमता नहीं है। अतः उनके लिए सर्वोत्तम प्रकार के निर्देशन की उपस्थिति अनिवार्य है।

छात्रों को सामंजस्य में सहायता 

निर्देशन का उद्देश्य - छात्रों को शैक्षिक और व्यावसायिक कार्यों में सहायता देने तक ही सीमित नहीं है। उसका उद्देश्य उनको विद्यालय, परिवार और समाज में सामंजस्य करने में भी सहायता देना है, ताकि उनके व्यक्तित्व के सब पहलुओं का सरलता से विकास हो सके। अतः शिक्षा आयोग का सुझाव है - "निर्देशन को शिक्षा का अनिवार्य अंग समझा जाना चाहिए, न कि शैक्षिक कार्यों के लिए विशिष्ट मनोवैज्ञानिक या सामाजिक कार्य।"

भारत में निर्देशन की स्थिति

छात्र निर्देशन - आंदोलन वर्तमान शताब्दी की उपज है। इसकी आवश्यकता और उपयोगिता का अनुभव करके अमरीका जैसे प्रगतिशील देश में शिक्षा के सब स्तरों पर निर्देशन की अति सुन्दर व्यवस्था कर दी गई है, पर हमारे देश में इस दिशा में अभी तक कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। भारत सरकार ने 1945 में बी. शिवा राव की अध्यक्षता में 'प्रशिक्षण व रोजगार सेवा संगठन समिति' की नियुक्ति की। इस समिति के सुझाव के अनुसार, द्वितीय पंचवर्षीय योजना में सम्पूर्ण देश में 50 निर्देशन-केन्द्रों की स्थापना का कार्यक्रम बनाया गया, पर उनमें से केवल कुछ का ही शिलान्यास किया गया। भारत सरकार विभिन्न व्यवसायों के सम्बन्ध में समय-समय पर कुछ सूचनाएँ भी प्रकाशित करती है। उसका अनुकरण करके राज्य सरकारों ने भी कुछ केन्द्रों और प्रकाशनों की व्यवस्था की है।

जब हम विद्यालयों में निर्देशन की स्थिति पर दृष्टिपात करते हैं, तब हमें केवल क्षोभ और विषाद के नगण्य चित्रों के ही दर्शन होते हैं। 'माध्यमिक शिक्षा आयोग' ने सुझाव दिया था कि बहूद्देशीय विद्यालयों में निर्देशन कार्य का संगठन किया जाये। देश में इस प्रकार के विद्यालयों की सीमित संख्या होने के कारण केवल थोड़े-से ही छात्र निर्देशन से लाभ उठा रहे हैं। 'शिक्षा आयोग' का सुझाव था कि सभी प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों में छात्र-निर्देशन की व्यवस्था की जाये, पर इस ओर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया गया है। सरकार ने केवल सिद्धान्त रूप में अग्रलिखित शब्दों में निर्देशन की व्यवस्था की आवश्कयता को स्वीकार किया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान और उसके बाद देश में जो सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन हुए हैं, उन्होंने इस बात को अत्यधिक आवश्यक कर दिया है कि हमारे विद्यालय में निर्देशन के कुछ रूपों की अधिक निश्चित व्यवस्था की जाये।

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