बालक का चरित्र निर्माण व चारित्रिक विकास | Character Development of Child

चरित्र का अर्थ स्पष्ट करते हुए अच्छे चरित्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए, अध्यापक के रूप में बालकों का चरित्र निर्माण करने के लिए आप किन विधियों
 
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बालक का चरित्र निर्माण व चारित्रिक विकास

बालक का चरित्र निर्माण व चारित्रिक विकास 

Character is one of the most significant aspects of personality and its development a major task of society. -Skinner and Harriman.

चरित्र का अर्थ व परिभाषा

चरित्र के अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद हैं; उदाहरणार्थ सेमुअल स्माइल का विचार है- "चरित्र, आदतों का पुंज है।" बाउले का मत है- "चरित्र, आत्म नियंत्रण की शक्ति है।" नोवेलिस का कथन है- "चरित्र, पूर्णतया प्रशिक्षित इच्छा शक्ति है।" चरित्र की ये सभी परिभाषाएँ अपूर्ण और एकांगी हैं, क्योंकि इनमें से कोई भी चरित्र के अर्थ की पूर्ण व्याख्या नहीं करती है।

इसी प्रकार, कुछ मनोवैज्ञानिकों ने चरित्र को व्यक्तित्व, नैतिकता, या स्वभाव या इन सबका पूर्ण योग माना है। कारमाइकेल के मतानुसार, 'चरित्र' न तो इनमें से कुछ है और न इन सबका पूर्ण योग है। फिर 'चरित्र' है क्या?

इनका स्पष्टीकरण करने के लिए हम कुछ परिभाषाएँ दे रहे हैं-
डमविल– "चरित्र उन सब प्रवृत्तियों का योग है, जो एक व्यक्ति में होती हैं।"
कारमाइकेल– "चरित्र एक गतिशील धारणा है। यह व्यक्ति के दृष्टिकोणों और व्यवहार की विधियों का पूर्ण योग है।"
झा- "चरित्र, अर्जित प्रवृत्तियों का पूर्ण योग है। यह एक मानसिक रचना है जो स्थायी और स्थिर रहती है एवं सदैव व्यवहार को प्रभावित करती है।"
पेक व अन्य- "चरित्र, दृष्टिकोणों और धारणाओं का स्थायी प्रतिमान है, जो नैतिक व्यवहार के प्रकार और प्रकृति की बहुत कुछ भविष्यवाणी करता है।" 

अच्छे चरित्र के लक्षण

बाउले एवं अन्य के अनुसार, अच्छे चरित्र में निम्नांकित लक्षण पाये जाते हैं-

आत्म नियंत्रण

अच्छे चरित्र के व्यक्ति में आत्म-नियंत्रण का गुण होता है। उसे अपने विचारों, व्यवहारों, इच्छाओं, भावनाओं आदि पर अधिकार होता है। वह कठोर परिस्थितियों में भी विचलित नहीं होता है। 

विश्वसनीयता

अच्छे चरित्र के व्यक्ति में विश्वसनीयता का गुण होता है और प्रत्येक परिस्थिति में उसका विश्वास किया जा सकता है। इसका कारण यह है कि वह सदैव किसी आदर्श या सिद्धान्त के अनुसार कार्य करता है। वह किसी सनक या क्षणिक विचार के कारण उससे विचलित नहीं होता है। इसके अतिरिक्त वह एक-सी परिस्थितियों में एक-सा ही व्यवहार करता है। उसके व्यवहार को देखकर उसके परिणाम की भविष्यवाणी की जा सकती है।

कार्य में दुढ़ता

अच्छे चरित्र के व्यक्ति का एक विशेष गुण है- कार्य में दृढ़ता। वह जिस कार्य को आरम्भ करता है, उसे समाप्त अवश्य करता है। वह न तो उसे कभी अधूरा छोड़ता है और न स्थगित करता है।

कर्मनिष्ठा

अच्छे चरित्र के व्यक्ति में कर्मनिष्ठा का गुण होता है। वह प्रत्येक कार्य को पूर्ण परिश्रम से करता है। कार्य भले ही नीरस हो, पर वह उसे करने में किसी प्रकार की शिथिलता व्यक्त नहीं करता है।

अन्तःकरण की शुद्धता 

अच्छे चरित्र के व्यक्ति का एक मुख्य गुण है- अन्तःकरण की शुद्धता उसके कर्म, वचन और व्यवहार में छल की छाया भी नहीं होती है। 

उत्तरदायित्व की भावना

अच्छे चरित्र के व्यक्ति में उत्तरदायित्व की भावना होती है। वह महान कष्ट झेलकर भी अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह करता है। अन्त में, हम बाठले व अन्य के शब्दों में कह सकते हैं- "चरित्र के ये लक्षण, विद्यालय कार्य और सामाजिक जीवन, दोनों में प्रत्यक्ष रूप से बहुत महत्वपूर्ण हैं। जिन छात्रों में ये गुण होते हैं, वे अपनी मानसिक शक्तियों का, जो भी उनमें होती हैं, अधिकतम प्रयोग करते हैं।" 

चरित्र का निर्माण करने वाले कारक

स्किनर व हैरीसन के शब्दों में- "चरित्र का निर्माण करने वाले कारक एकाकी रूप से नहीं, वरन् सम्मिलित रूप से कार्य करते हैं।"

हम उल्लिखित कारकों का संक्षिप्त परिचय दे रहे हैं-

मूलप्रवृत्तियाँ

मूलप्रवृत्तियाँ, चरित्र निर्माण की मुख्य आधार हैं। जिस व्यक्ति में जो मूलप्रवृत्तियाँ शक्तिशाली होती हैं, उन्हीं के अनुरूप उसमें गुण पाये जाते हैं; उदाहरणार्थ- 'आत्म-प्रदर्शन' की मूलप्रवृत्ति के कारण व्यक्ति में पद, शक्ति और सम्मान के लिए संघर्ष करने का गुण पाया जाता है।

संवेग

मूलप्रवृत्तियों का संवेगों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। इन्हीं के कारण व्यक्ति में कुछ संवेग स्थायी बनकर, गुणों या अवगुणों का रूप धारण करते हैं, जैसे- क्रोध, घृणा आदि।

अर्जित प्रवृत्तियाँ

व्यक्ति जिस प्रकार की संगति या वातावरण में रहता है, वैसी ही मानसिक प्रवृत्तियाँ अर्जित करता है। यही कारण है कि कुछ व्यक्तियों में अच्छी और कुछ में बुरी प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। इन प्रवृत्तियों के अनुरूप ही उनके चरित्र का निर्माण होता है।

आदतें (Habits) 

व्यक्ति अपनी आदतों के अनुसार कार्य और व्यवहार करता है। उसकी आदतों को देखकर उसके चरित्र के गुण-दोषों का अनुमान लगाया जा सकता है। इसलिए, चरित्र को आदतों का पुंज कहा जाता है। 

स्थायीभाव (Sentiments) 

चरित्र का निर्माण करने के लिए स्थायीभावों को अच्छा माल माना जाता है। चरित्र, स्थायीभावों के योग के अलावा और कुछ नहीं है। स्थायीभाव जितने अधिक अच्छे होते हैं, उतना ही अधिक अच्छा चरित्र होता है। इसीलिए रैक्स एवं नाइट ने लिखा है- "चरित्र का आधार स्थायीभाव का निर्माण और संगठन है।"

आत्म सम्मान

चरित्र के वास्तविक निर्माण के लिए 'आत्म-सम्मान' के स्थायीभाव का होना सबसे अधिक आवश्यक है। मैक्डूगल के अनुसार, इस स्थायीभाव में आत्म प्रदर्शन' और 'अधीनता' की प्रवृत्तियों का उचित सामंजस्य होना चाहिए। डम्विल का मत है कि इस स्थायीभाव का सम्बन्ध 'स्वयं के विचार' से है। यह व्यक्ति में तभी उत्पन्न होता है, जब उसके सब स्थायीभावों का सर्वोच्च स्तर पर एकीकरण होता है। व्यक्ति के चरित्र की श्रेष्ठता और निकृष्टता का आधार यही है। रॉस का कथन है- "जब आत्म-सम्मान नष्ट हो जाता है, तब चरित्र छिन्न-भिन्न हो जाता है। इसका पुनर्निर्माण करके ही चरित्र का पुनर्संगठन किया जा सकता है।"

आनन्द (Pleasure) 

अच्छे कार्य और अच्छे व्यवहार की प्रवृत्तियों का कारण उनमें पाया जाने वाला आनन्द है। आनन्द उनको संतुष्ट करके स्थायी रूप प्रदान करता है। अतः आनन्द, चरित्र निर्माण में विशेष योग देता है। 

इच्छा शक्ति (Will Power)

इच्छा शक्ति की सरलता और निर्बलता के अनुसार ही व्यक्ति का चरित्र सबल या निर्बल होता है। दृढ़ इच्छा शक्ति वाले व्यक्ति को अपने कार्यों. आदतों, विचारों आदि पर पूर्ण अधिकार होता है। इसीलिए डम्बिल का कहना है- "इच्छा शक्ति, चरित्र का सबसे महत्वपूर्ण अंग है।"

वंशानुक्रम (Heredity) 

व्यक्तियों को अनेक चारित्रिक विशेषताएँ वंशानुक्रम प्राप्त होती हैं। इन विशेषताओं के कारण उनके चरित्र में विभिन्नता पाई जाती है। रॉस का कहना है- “ये विशेषताएँ हमारे चरित्र को प्रभावित करती हैं, पर उसके स्वरूप को निश्चित नहीं करती हैं।"

भौतिक व सामाजिक वातावरण

भौतिक वातावरण के अन्तर्गत जलवायु, भूमि की बनावट आदि और सामाजिक वातावरण के अन्तर्गत घर, विद्यालय, संगी-साथी, सामाजिक संस्थाएँ, रीति-रिवाज, रहन-सहन का स्तर आदि आते हैं। इन सबका चरित्र का निर्माण करने में महत्वपूर्ण स्थान है। 

मानसिक शक्ति

चरित्र निर्माण का एक मुख्य आधार मानसिक शक्ति है। इसका कारण बताते हुए स्टर्ट एवं ओकडन ने लिखा है कि श्रेष्ठ मानसिक शक्ति वाला व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में साधारणतः सफल और निम्न मानसिक शक्ति वाला व्यक्ति साधारणतः असफल होता है।

स्वभाव (Temperament) 

चरित्र के निर्माण पर स्वभाव का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। प्रसन्नचित्त वाला व्यक्ति आशावादी और खिन्न मन वाला व्यक्ति निराशावादी होता है। रॉस का मत है- "स्वभाव की जन्मजात विभिन्नताएँ वे ईंटें हैं, जिनके द्वारा चरित्र का निर्माण किया जा सकता है।"

चरित्र निर्माण में शिक्षा का कार्य

स्किनर व हैरीमन के शब्दों में- "इस बात से कोई प्रयोजन नहीं है कि शिक्षा कहाँ दी जाती है या किस प्रकार दी जाती है। बालक को दी जाने वाली सब शिक्षा को उसके चरित्र निर्माण में अनिवार्य रूप से योग देना चाहिए।"
शिक्षा को बालक के चरित्र निर्माण में योग देने के लिए अनेक विधियों को अपनाया जा सकता है;
  1. बालक को नियमित रूप से नैतिक शिक्षा देनी चाहिए। 
  2. बालक के अच्छे विचारों, इच्छाओं और प्रवृत्तियों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
  3. बालक को उत्तम वातावरण में रखकर, उसमें नैतिक गुणों का विकास करना चाहिए।
  4. बालक को ऐसे वातावरण में रखना चाहिए, जिसमें उसमें भय, घृणा, क्रोध आदि के समान अवांछनीय स्थायीभाव उत्पन्न न हों। 
  5. बालक के प्रति प्रेम, दया और सहानुभूति का व्यवहार करके, उसमें इन स्थायीभावों को उत्पन्न करना चाहिए। 
  6. बालक की मूलप्रवृत्तियों का दमन नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से उसके मस्तिष्क में ग्रन्थियाँ बन जाती हैं। फलस्वरूप, उसमें दुर्गुण और बुरी प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। 
  7. बालक की मूलप्रवृत्तियों का शोधन, रूप परिवर्तन और प्रशिक्षण करके उत्तम संवेगों का निर्माण करना चाहिए। 
  8. बालक को क्षुद्र स्थायीभावों के ऊपर उठाने के लिए उसमें उत्तम आदर्शों, सद्गुणों और अमूर्त स्थायीभावों का निर्माण करना चाहिए।
  9. बालक में अच्छी आदतों का निर्माण करना चाहिए और उसकी इच्छा शक्ति को दृढ़ बनाने का प्रयास करना चाहिए। 
  10. बालक के चरित्र का विकास करने के लिए उसके व्यक्तित्व के सब अंगों का विकास करना चाहिए। 
  11. स्किनर एवं हैरिमन के अनुसार- बालक के चरित्र का निर्माण एकाकी जीवन व्यतीत करने से नहीं, वरन् दूसरों के सम्पर्क में आने से होता है। अतः विद्यालय को सामाजिक क्रियाओं का आयोजन करके बालक को उनमें भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए। 
  12. मैक्डूगल के अनुसार- आत्म-सम्मान का स्थायीभाव, चरित्र है और नैतिक स्थायीभावों में सर्वश्रेष्ठ है। अतः बालक में इस स्थायीभाव को पूर्ण रूप से विकसित करना चाहिए।
  13. वैलेनटीन का कथन है- "मनुष्य कुछ स्थायीभावों का जितना अधिक संगठन करता है, उतना ही अधिक वह अपने चरित्र की अभिव्यक्ति करता है। अतः बालक में अधिक से अधिक स्थायीभावों का संगठन करने के लिए अग्रलिखित कार्य किये जाने चाहिए- (1) उच्च आदर्शों और लक्ष्यों के लिए प्रेरणा देना, (2) महान् व्यक्तियों के विचारों और आदर्शों से परिचित कराना, (3) प्रसिद्ध वैज्ञानिकों, श्रेष्ठ साहित्यकारों आदि की जीवनियाँ सुनाना, (4) कार्य और सिद्धान्त के उत्तम उदाहरण प्रस्तुत करना, आदि।
यदि विद्यालय उपरिअंकित कार्यों को सम्पन्न नहीं करता है, तो वह बालक के चरित्र का निर्माण करने में कदापि सफल नहीं हो सकता है। अतः इस बात की परम आवश्यकता है कि विद्यालय की शिक्षा इस प्रकार नियोजित की जाय कि वह बालक के चरित्र का निर्माण करके, उसकी भावी सफलता का मार्ग प्रशस्त करे। "नेशनल सोसाइटी की ईयरबुक" में अंकित इस वाक्य में अमर सत्य है- "विद्यालय को यह चुनौती है कि वह बालक के उपयुक्त प्रशिक्षण के लिए सबसे अधिक उपयोगी परिस्थितियों का निर्माण करे।"

शैशवावस्था में चारित्रिक विकास

शिशु के चारित्रिक विकास का स्वरूप निम्नांकित होता है-
  • 3 माह तक शिशु को अपने उचित या अनुचित आचरण के सम्बन्ध में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं होता है। 
  • 1 वर्ष की आयु में वह बड़े लोगों की इच्छानुसार आचरण करना जान जाता है। 
  • 2 वर्ष की आयु में वह अपने अच्छे या बुरे कार्यों के अनुसार अपने को अच्छा लड़का' या 'खराब लड़का' समझने लगता है।
  • 2 वर्ष की आयु में वह बहुत स्वार्थी होता है और अपने खिलौने में किसी भी बच्चे को साझीदार नहीं बनाता है 
  • 3 दर्ष की आयु तक वह अनैतिक प्राणी रहता है, पर यह समझने लगता है कि उसे बड़ों के आदेशों के अनुसार कार्य करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से उसका हित होता है।
  • 4 वर्ष की आयु में वह अच्छे और बुरे कार्यों में अन्तर समझने लगता है। इसीलिए, वह अपने टूटे हुए खिलौने को या तो छिपा देता है या उसे तोड़ने का दोष किसी और पर लगाता है। 
  • 5 वर्ष की आयु में वह अपने माता-पिता की इच्छाओं के अनुसार कार्य करने लगता है और उनके मूल्यों को बिना समझे हुए स्वीकार करने लगता है।
संक्षेप में, हम क्रो एवं क्रो के शब्दों में कह सकते हैं- "जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता जाता है वैसे-वैसे अच्छाई और बुराई, आज्ञा पालन और आज्ञा उल्लंघन एवं ईमानदारी और बेईमानी उसके मौखिक शब्दकोश के अंग बन जाते हैं।"

बाल्यावस्था में चारित्रिक विकास 

बाल्यावस्था में बालक के चरित्र का विकास निम्नांकित क्रम में होता है-
  • किसी समूह का सदस्य बनने के कारण बालक का दूसरे बालकों से सम्पर्क स्थापित होता है। फलस्वरूप, उसके आचरण में परिवर्तन होना आरम्भ हो जाता है।
  • बालक विभिन्न परिस्थितियों में उचित और अनुचित में अन्तर करना जान जाता है। 
  • बालक, न्याय और ईमानदारी के प्रति प्रबल भावनाएँ व्यक्त करने लगता है।
  • बालक, परिवार के एक विशेष सदस्य और विद्यालय के एक विशेष शिक्षक की आज्ञा अधिक तत्परता से पालन करता है।
  • बालक, घर में स्वार्थपूर्ण और अनुचित, पर विद्यालय में निःस्वार्थ और उचित व्यवहार करता है।
  • बालक कम-से-कम मौलिक रूप से चोरी करने, झूठ बोलने, धोखा छोटे बच्चों या छोटे पशुओं को कष्ट पहुँचाने और शेखी मारने की निन्दा करने लगता है।
  • बालक झूठ बोलना कम कर देता है, माता-पिता से अधिक धन प्राप्त करने के लिए उनके कार्य करता है और अपने से सम्बन्धित महत्वपूर्ण परिस्थितियों में सत्य बोलने का प्रयास करता है। 
  • कोलेसनिक के अनुसार बालक कुछ सिद्धान्तों को समझने, स्वीकार करने और प्रयोग करने लगता है। वह इन सिद्धान्तों पर आधारित अपने व्यवहार के प्रभाव पर विचार करने लगता है।
  • स्ट्रैंग के अनुसार- "6, 7 और 8 वर्ष के बालकों में विवेक, न्याय, ईमानदारी और मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है।"
संक्षेप में, हम क्रो एवं क्रो के शब्दों में कह सकते हैं- "बाल्यावस्था में बालकों में नैतिकता की सामान्य धारणाओं या नैतिक सिद्धान्तों के कुछ ज्ञान का विकास हो जाता है।"

किशोरावस्था में चारित्रिक विकास 

किशोरावस्था में किशोर के चरित्र का विकास अधोलिखित प्रकार से होता है -
  • किशोर एक आदर्श व्यक्ति की कल्पना करके, उसके समान बनने का प्रयास करता है।
  • किशोर अपने समूह, परिवार और पड़ौस के व्यक्तियों से सामंजस्य करने में कठिनाई का अनुभव करता है।
  • किशोर अपने व्यवहार को निर्देशित करने के लिए वैयक्तिक, सामाजिक, नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों का निर्माण करता है। 
  • किशोर दूसरे व्यक्तियों से वार्तालाप करके अपने विचारों, मूल्यों, विश्वासों, धारणाओं और दृष्टिकोणों की तुलना करता है। 
  • मेडिन्निस के अनुसार किशोर, धर्म की संकीर्णता को त्याग कर सहिष्णुता और मानवधर्म का समर्थन करता है। 
  • मेडिन्निस के अनुसार किशोर अपनी संस्कृति के व्यवहार के प्रतिमानों का तो अनुसरण करता है, पर उसके आधारभूत मूल्यों को स्वीकार नहीं करता है। 
  • किशोर के चरित्र की कुछ मुख्य विशेषताएँ हैं- चिन्ता, उच्च आदर्श, शक्तिशाली कल्पना, आत्माभिमान, स्वतंत्रता के प्रति प्रेम, धार्मिक रीति-रिवाजों में अविश्वास प्रतिद्वन्द्विता की भावना अधिकारियों के विरुद्ध विद्रोह, विचारों की चंचलता, भावनाओं की प्रबलता और मनोभावों में अकारण एवं आकस्मिक परिवर्तन।
संक्षेप में, हम पैक एवं हैविगहर्स्ट के शब्दों में कह सकते है- "प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करने के समय तक किशोर स्थायी नैतिक सिद्धान्तों का निर्माण कर लेता है, जिनके आधार पर वह अपने स्वयं के कार्यों का मूल्यांकन और निर्देशन करता है।"

चारित्रिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक 

स्किनर व हैरीमन के शब्दों में- "ऐसा कोई भी पाठ्यक्रम या विधि नहीं है, जो जादू से चरित्र का निर्माण कर दे। इसके विपरीत, परिवार, धार्मिक संस्था, खेल के मैदान या विद्यालय में प्राप्त किया जाने वाला प्रत्येक अनुभव चारित्रिक विकास का अवसर प्रदान करता है।"
चरित्र के विकास में योग देने वाले उपरिवर्णित एवं अन्य कारकों पर हम प्रकाश डाल रहे हैं,

वंशानुक्रम

बालक के चारित्रिक विकास का एक मुख्य आधार है- उसका वंशानुक्रम। इस तथ्य की पुष्टि, वंशानुक्रम से प्राप्त होने वाले मानसिक गुणों का उदाहरण देकर की जा सकती है। टर्मन ने अपने अध्ययनों से सिद्ध किया है कि प्रखर बुद्धि वाले बालकों में मन्द बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा सत्यता, ईमानदारी और इसी प्रकार के अन्य नैतिक गुण कहीं अधिक होते हैं। इससे कारमाइकेल ने यह निष्कर्ष निकाला है- "श्रेष्ठ बुद्धि वाले बालक निम्न बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा उत्तम चरित्र का निर्माण करने के लिए अधिक अच्छी परिस्थिति में होते हैं।"

माता-पिता का दृष्टिकोण

बालक के चरित्र का विकास बहुत सीमा तक उसके माता-पिता के दृष्टिकोण पर निर्भर रहता है। यदि वे उसका तिरस्कार करते हैं या उसके प्रति उदासीन रहते हैं, तो उसके चरित्र का विकास उचित या अनुचित किसी भी दिशा में हो सकता है। पर यदि वे उसके प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार करते हैं, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करते हैं और सतर्कतापूर्वक उसकी देखभाल करते हैं, तो उसके चरित्र में श्रेष्ठ गुणों का प्रादुर्भाव होता है।

परिवार के सदस्य

बालक के चारित्रिक विकास में उसके परिवार के सदस्यों का अति महत्वपूर्ण स्थान है। यदि उनमें पारस्परिक कटुता, ईर्ष्या और वैमनस्य के सम्बन्ध हैं, तो बालक में भी अनिवार्य रूप से इन दुर्गुणों की उत्पत्ति हो जाती है। इसके विपरीत, यदि वे शान्ति, सहयोग और ईमानदारी का जीवन व्यतीत करते हैं, तो बालक में भी साधारणतः ये गुण दृष्टिगत होते हैं।

परिवार की आर्थिक स्थिति

चारित्रिक विकास को निश्चित रूप से प्रभावित करती है। पर यह आवश्यक नहीं है कि धनी परिवार के सभी बालक सच्चरित्र और निर्धन परिवार के सभी बालक दुश्चरित्र हों। इसका स्पष्टीकरण करते हुए कारमाइकेल ने लिखा है- "यदि बालक पर उसके अभिभावकों का निरीक्षण ठीक है और यदि उसके साथी ठीक प्रकार के हैं, तो उस पर परिवार की आर्थिक स्थिति का प्रभाव बहुत कम पड़ता है।"

परिवार का वातावरण

परिवार के वातावरण का बालक के चारित्रिक विकास से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि परिवार में कोई-न-कोई निरन्तर रोगग्रस्त रहता है, यदि उसमें स्वच्छता को अनावश्यक कार्य समझा जाता है, यदि उसमें रहने का स्थान कम है और यदि उसमें निवास की उत्तम दशाएँ नहीं हैं, तो बालक का चारित्रिक विकास शिथिल और विकृत हो जाता है। इसीलिए, परिवार को बालक के चारित्रिक विकास के लिए सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते हुए कारमाइकेल ने लिखा है- "चरित्र को प्रभावित करने वाले वातावरण सम्बन्धी कारकों की सूची में परिवार को प्रथम और सबसे अधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए।" 

विद्यालय

विद्यालय को बालक के चरित्र का निर्माण और विकास करने का एक असाधारण स्थान माना जाता है। इसका कारण यह है कि बालक वहाँ प्रतिदिन 5 या 6 घण्टे व्यतीत करता है, नाना प्रकार के बालकों के सम्पर्क में आता है और विभिन्न कार्यक्रमों एवं सामूहिक क्रियाओं में भाग लेता है। फलस्वरूप, उसमें वांछनीय या अवांछनीय दृष्टिकोणों का निर्माण होता है और उन्हीं के अनुसार वह अपने चरित्र का स्वरूप निर्धारित करता है। विद्यालय के इसी अपूर्व महत्व के कारण स्किनर एवं हैरिमन ने लिखा है- "चारित्रिक विकास से सम्बन्धित एक सबसे महत्वपूर्ण संस्था है- विद्यालय परिवार के अलावा और किसी भी संस्था का बालक के जीवन में इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं है।"

शिक्षक

बालक के चारित्रिक विकास को उचित दिशा प्रदान करने में शिक्षक के महत्व को सामान्य रूप से सभी व्यक्तियों द्वारा स्वीकार किया जता है। इसका कारण यह है कि बालक बहुधा किसी-न-किसी शिक्षक को अपना आदर्श मान कर उसका अनुकरण करने लगता है। अतः यदि शिक्षक उत्तम गुणों, आदर्शों और योग्यताओं वाला व्यक्ति है, तो बालक बहुत कुछ उसी का प्रतिरूप हो जाता है।

साथी व समूह

घर पर प्रारम्भिक जीवन व्यतीत करने वाले बालक पर अपने साथियों का प्रभाव बहुत ही कम पड़ता है। जैसे ही वह शिक्षा प्राप्त करने के लिए किसी विद्यालय में प्रवेश करता है, वैसे ही यह प्रभाव प्रारम्भ हो जाता है और निरन्तर बना रहता है। कभी-कभी उस पर अपने समूह और खेल के साथियों का इतना दूषित प्रभाव पड़ता है कि वह अपने माता-पिता की इच्छाओं के विरुद्ध आचरण करने लगता है। ऐसी दशा में उसका चारित्रिक विकास वांछनीय दिशा में नहीं हो सकता है।

धार्मिक शिक्षा 

धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने वाले और धार्मिक संस्थाओं में अध्ययन करने वाले बालकों का चरित्र, सामान्य विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने वाले छात्रों से श्रेष्ठतर होता है। इस सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो का मत है- "धार्मिक विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाला बालक सामान्य विद्यालयों में अध्ययन करने वाले बालक की अपेक्षा ईमानदारी और इसी प्रकार के अन्य गुणों के अधिक उत्तम प्रमाण देता है।"

अन्य कारक

बालक के चारित्रिक विकास को प्रभावित करने वाले अन्य कारक हैं- रेडियो, टेलीविजन, चलचित्र, मनोरंजन के साधन, कहानियाँ, समाचार पत्र, स्काउटिंग और संस्कृति इनके सम्बन्ध में क्रो एवं क्रो ने लिखा है- "यदि चरित्र को प्रभावित करने वाले अन्य कारक दोषरहित हैं, तो ये कारक, बालक के दृष्टिकोणों के स्वरूप और विकास के लिए भारी खतरे के कारण नहीं हैं।"

बालक के चारित्रिक विकास को प्रभावित करने वाले जिन कारकों का हमने अवलोकन किया है, उसका सम्बन्ध वंशानुक्रम और वातावरण दोनों से है। दोनों को समान महत्व देते हुए कारमाइकेल ने लिखा है- "किसी भी अवस्था में व्यक्ति का चारित्रिक विकास कुछ जन्मजात कारकों और कुछ वातावरण सम्बन्धी दशाओं पर आधारित कारकों के एकीकरण का परिणाम है।"

चरित्र का विकास केवल व्यक्ति के लिये ही आवश्यक नहीं है, राष्ट्र के लिये भी आवश्यक है। डॉ. राधाकृष्णन ने ठीक ही कहा है- भारत सहित समस्त विश्व के कष्टों का कारण यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रहकर केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है। अतः शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य चरित्र का विकास होना चाहिये। चरित्र का विकास उपयुक्त वातावरण, अच्छी आदतों के निर्माण, नैतिकता का विकास, संकल्प शक्ति के विकास से हो सकता है।

इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।