व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाएँ | Stages of Personality Development

व्यक्तित्व की अवधारणा क्या है? क्या यह व्यक्ति का शारीरिक आकार प्रकार है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई व्यक्ति के व्यक्तित्व की ओर संकेत करते हैं?
 
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Stages of Personality Development

व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाएँ

There are certain special factors of the environment and organized social agencies which have a definite and specific influence upon the direction in which the child's social growth will follow. - Stanner and Harriman.

व्यक्तित्व शब्द लैटिन के पर्सनेअर से उत्पन्न माना जाता है। यह शब्द ध्वनि करने के समान अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। यह शब्द किसी नाटक के पात्र के स्वर को भी ध्वनित करता है, इसी के समानान्तर है पर्सोना जिसका अर्थ है मुखौटा। नाटक में रंगमंच पर कार्य करने वाले पात्र अनेक प्रकार के मुखौटों का प्रयोग करते थे। वे किसी व्यक्ति   या चरित्र की अभिव्यक्ति उन मुखौटों के द्वारा करते थे। कालान्तर में यही शब्द मनोविज्ञान में व्यक्ति की सम्पूर्ण विशेषताओं को व्यक्त करने लगा।

व्यक्तित्व की अवधारणा क्या है? क्या यह व्यक्ति का शारीरिक आकार प्रकार है। उसकी लम्बाई-चौड़ाई व्यक्ति के व्यक्तित्व की ओर संकेत करते हैं? क्या उसका व्यवहार उसकी आदतें व्यक्तित्व का निर्माण करती हैं? 

इन सभी प्रश्नों का उत्तर मनोवैज्ञानिकों द्वारा दी गई परिभाषाओं में निहित है।
1. एच. सी. वारेन का कथन है - “व्यक्तित्व सम्पूर्ण मानसिक संगठन है। यह उसके विकास की किसी भी अवस्था से होता है।" 
2. रैक्स रौक की धारणा है - "व्यक्तित्व समाज द्वारा मान्य तथा अमान्य गुणों का संतुलन है।"
3. जे. ई. डेशील का विचार है - “व्यक्तित्व, संपूर्ण रूप से उसकी प्रतिक्रियाओं की और आवश्यकताओं की उस ढंग की व्यवस्था है जिस ढंग से वह सामाजिक प्राणियों द्वारा आंकी जाती है। वह व्यक्ति के व्यवहारों का एक समायोजित संकलन है जो व्यक्ति अपने सामाजिक व्यवस्थापन के लिये करता है।"
4. गार्डन आलपोर्ट का मानना है, “व्यक्तित्व, व्यक्ति के उन मनोशारीरिक संस्थान का गतिशील संगठन है जो वातावरण में उसका अद्वितीय समायोजन निर्धारित करते हैं।"

इन परिभाषाओं पर विचार करने से यह तो स्पष्ट है कि-
  • व्यक्तित्व सम्पूर्ण मानसिक संगठन है।
  • इसका विकास किसी भी अवस्था से हो सकता है।
  • सामाजिक स्वीकृति-अस्वीकृति इसके गुणों के लिये आवश्यक है।
  • गुणों का संतुलन इसके लिये चाहिये।
  • यह सम्पूर्ण क्रियाओं प्रतिक्रियाओं की व्यवस्था है।
  • व्यवहारों का समायोजित संकलन है।
  • यह सामाजिक व्यवस्थापन है।
  • यह मनोशारीरिक गतिशील संगठन है। 
ये सभी विशेषताएँ व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास की ओर संकेत करती हैं। व्यक्ति की आवश्यकताएँ उसके व्यवहार को उसके लक्ष्य तक पहुँचाने के लिये प्रेरक होती हैं। लक्ष्य प्राप्ति में बाधा उसके विकास को अवरुद्ध करती है।
ड्रेवर के शब्दों में, “व्यक्तित्व शब्द का प्रयोग व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक, नैतिक और सामाजिक गुणों के सुसंगठित और गत्यात्मक संगठन के लिये किया जाता है जिसे वह अन्य व्यक्तियों के साथ अपने सामाजिक जीवन के आदान-प्रदान में व्यक्त करता है। " 

इन सभी तथ्यों के आधार पर व्यक्तित्व के विकास की अवस्थाएँ इस प्रकार हैं- 

अधिगम एवं अभिवृद्धि 

व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास का उसकी उन क्रियाओं से पता चलता है जिनको वह अपने अस्तित्व के लिये सीखता है, गतिशील, क्रियाशील, उद्यमी, भूखा तथा अन्य इसी प्रकार की विशेषताएँ व्यक्ति अपनी क्षमता के अनुसार ग्रहण करता है। शिशु आरम्भ से ही परिपक्वता की ओर विकसित होता है, आयु के विकास के साथ-साथ उसके शरीर के अनेक अंग विकसित होते हैं। इनका विकास तथा अभिवृद्धि उनमें पुष्टता प्रदान करता है। इसी कारण वे किसी कार्य को सीखते हैं, सीखने की गति भी इसी पर निर्भर करती है।

अभिवृद्धि तथा अधिगम बालक के विकास की अन्योन्याश्रित अवस्था है, अभिवृद्धि न होने से अधिगम प्रभावित है। अधिगम में शिथिलता बालक की अभिवृद्धि को प्रभावित करती है, अधिगम से व्यवहार में परिवर्तन होता है। अनुभव उपयोग तथा अभ्यास से अधिगम को सफलता मिलती है । आयु-स्तर के अनुसार अभिवृद्धि न होने से बालक का व्यक्तित्व विकृत तथा दूषित होने लगता है। वह धीमी गति से सीखने वाला हो जाता है और उसके व्यक्तित्व में चेतना का अभाव पाया जाता है।

अधिगम एवं परिपक्वता

बालक के व्यक्तित्व की यह अवस्था परिपक्वता पर निर्भर करती है। आयु वृद्धि के साथ-साथ शारीरिक परिपक्वता आती है और यह परिपक्वता उसकी अधिगम की प्रकृति को प्रभावित करती है। 

विकास की प्रक्रिया 

विकास की अवस्थाओं के दौरान व्यक्तित्व का विकास उसकी प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है। प्रत्येक प्राणी में विकास प्रक्रिया का निश्चित समय होता है।

विकास के तत्वों की विवेचना

शारीरिक विकास की अवस्था 

शरीर का संगठित एवं संतुलित अनुपात रचना तथा आकार को व्यक्तित्व की आरम्भिक अवस्था माना जाता है। नाटे व्यक्ति का मजाक बनाया जाता है, यही स्थिति लम्बे व्यक्ति की भी होती है। इस अवस्था में बालक-बालिकाओं के शरीर की विभिन्न विशेषताएँ प्रकट होने लगती हैं, इसका परिणाम यह होता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व उसके शारीरिक विकास के अनुसार विकसित होने लगता है। खब्बूपन भी शारीरिक विकास का एक अंग है। इसमें भी व्यक्तित्व प्रभावित होता है। 

संवेगात्मक विकास की अवस्था

शरीर के विकास के साथ-साथ व्यक्ति में निहित अनेक संवेगों की अभिव्यक्ति की प्रकृति भी व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है। व्यक्ति का क्रोध, भय, प्रेम, घृणा आदि उसके व्यवहार द्वारा व्यक्त होते हैं और यह अभिव्यक्ति ही उसके व्यवहार की संवेदात्मक अवस्था है। जर्सील्ड के शब्दों में - “संवेग शब्द किसी भी प्रकार के आवेश में आने, भड़कने तथा उत्तेजित होने की दशा को सूचित करता है।" 

व्यक्तित्व के विकास में संवेगों का महत्वपूर्ण स्थान है। भय, क्रोध, चिन्ता, दुश्मनी आदि वे अवस्थाएँ हैं जिनसे संवेग उत्पन्न होते हैं। रुचि तथा भय से भी संवेगों की उत्पत्ति होती है। रोना, हँसना, लड़ना, भड़कना, प्रचण्डता आदि संवेगों की वे अवस्थाएँ हैं जो व्यक्तित्व को स्वरूप प्रदान करती हैं। 

सामाजिक विकास की अवस्था

व्यक्तित्व के विकास की सामाजिक अवस्था का आरम्भ शिशु के द्वारा माता का चेहरा देखकर मुस्कराने से होता है, पाँच माह की आयु से वह दूसरों को देखकर मुस्कराता है, 18 माह की अवस्था में वह सामाजिक सम्बन्धों के जटिलरूप अर्थात् नातेदार की पहचान करने लगता है। बाल्यावस्था में यह मैत्री रूप धारणा करती है, किशोरावस्था में वह एक पूर्ण सामाजिक व्यक्तित्व बन जाता है, सहयोग मैत्री बढ़ने लगती है कि अवसाद के क्षणों में वह अकेलापन भी महसूस करने लगता है। लड़ाई-झगड़ों के साथ-साथ मित्रभाव से साथ निभाने की भावना भी विकसित होने लगती है।

सांस्कृतिक विकास की अवस्था

बोरिंग, लैंगफील्ड एवं वील्ड के अनुसार - "जिस संस्कृति में व्यक्ति का लालन-पालन होता है, उसका उसके व्यक्तित्व के लक्षणों पर सबसे अधिक व्यापक प्रकार का प्रभाव पड़ता है। अतः संस्कृति, व्यक्तित्व को विकास के प्रत्येक स्तर पर प्रभावित करती है। मान्यताएँ आदर्श, रीति-रिवाज, रहन-सहन की विधियाँ, धर्म-कर्म आदि की शैलियाँ, व्यक्ति के व्यक्तित्व की रचना करने में सहयोग देती हैं। एक वंश के दो बालकों का पालन यदि दो भिन्न संस्कृतियों में होता है तो उनका व्यक्तित्व संस्कृति के अनुसार भिन्न होगा।" 

मानसिक विकास की अवस्था

व्यक्ति का मानसिक विकास उसके व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करता है। मानसिक विकास का आरम्भ ज्ञान से होता है, ज्ञान का आरम्भ पहचान तथा अभिव्यक्ति से होता है। भूख-प्यास के माध्यम से सांसारिक वस्तुओं का दृष्टिकोण विस्तृत होता है। काल अनुभूति, आकर्षण, भविष्य निर्माण, ध्यान केन्द्रित करना, चिन्तन तर्क, कल्पना का विकास होने से व्यक्तित्व का मानसिक स्वरूप उभरता है। पियाजे तथा ब्रूनर ने व्यक्तित्व के ज्ञानात्मक विकास का विश्लेषण, संवेदन एवं गति, प्रत्यय चिन्तन द्वारा किया है। ब्रूनर ने विधि, प्रतिभा एवं संकेत के द्वारा मानसिक विकास होना बताया है।

व्यक्तित्व विकास के घटक 

व्यक्तित्व मनुष्य की आदतों, दृष्टिकोण तथा विशेषताओं का संगठन है। जैविक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारणों के योग से यह उत्पन्न होता है। व्यक्तित्व का निर्माण करने में अनेक घटक उत्तरदायी हैं, जो प्रमुख हैं

शरीर

यद्यपि शरीर की रचना में उसके व्यक्तित्व का पहला प्रभाव पड़ता है, किन्तु शरीर रचना ही सम्पूर्ण कारक नहीं है। नाटा, लम्बा या गोल-मटोल होना ही व्यक्तित्व का मानदण्ड नहीं है। शरीर की रचना से उत्पन्न संवेदात्मक भाव ही उसका विकास करते हैं। किसी भी व्यक्ति के प्रति व्यवहार किया जाता है, उसका पहला आधार उसके शरीर की रचना है।

ग्रंथियाँ

मनुष्य के शरीर में अनेक ग्रंथियाँ हैं जो विभिन्न प्रकार के रसों का निर्माण करती हैं। इन रसों के असंतुलन से व्यक्तित्व में दोष उत्पन्न हो जाते हैं। ग्रंथियों से उत्पन्न रस, हॉर्मोन्स कहलाता है जो व्यक्ति के गठन, स्वास्थ्य, संवेग, बुद्धि आदि को प्रभावित करता है। गल-ग्रंथि से व्यक्ति में तनाव, चिन्ता, बेचैनी और उत्तेजना अनुभव होती है। उप वृक्क ग्रंथि से झगड़ालूपन एवं परिश्रमी, पोष ग्रंथि से शरीर का कद, यौन ग्रंथि से नारी एवं पुरुष गुणों का विकास, तन्त्रिका तंत्र से शरीर के व्यवहार तथा गति में संतुलन होता है। यदि ये सभी ग्रंथियाँ अत्यधिक क्रियाशील हो जायें या निष्क्रिय हो जायें तो व्यक्तित्व का विकास अवरुद्ध हो जायेगा। 

वातावरण

व्यक्तित्व के विकास में वातावरण का विशेष योगदान है। सामाजिक वातावरण के विभिन्न तत्व, व्यक्तित्व को बहुत सीमा तक प्रभावित करते हैं। परिवार एवं समाज व्यक्ति का पहला वातावरण है। स्काट तथा नैबटास्का के एक अध्ययन के अनुसार पारिवारिक, सामूहिक जीवन, दण्ड, संवेगात्मक नियंत्रक आदि ने किशोरों के सामाजिक अनुकूलन को आशाजनक रूप से प्रभावित किया है। विद्यालय का परिवेश, शिक्षक, उपकरण, कक्ष, फर्नीचर, स्वच्छता, सौन्दर्यीकरण आदि भी बालक के व्यत्वित्व को प्रभावित करते हैं।

सीखना 

सीखने की क्रिया जीवन पर्यन्त चलती रहती है। सीखना अनुभव द्वारा क्रिया में परिमार्जन है। सीखने में आत्म-संप्रत्यय का विशेष स्थान है। व्यक्तित्व तथा चरित्र दोनों ही आत्म-संप्रत्यय को विकसित करते हैं। व्यक्ति अपने प्रत्यक्षीकरण से अपने को देखता है। यही आत्म-संप्रत्यय है। यह ध्यान रखने की बात है कि वातावरण आत्म-प्रत्यय नहीं है। कुछ मनोवैज्ञानिक आत्म-संप्रत्यय को जीवन का क्षेत्र भी मानते हैं। 

प्रत्ययों का विकास वातावरण में अप्रत्यक्ष रूप से होता है। फिर प्रत्यय व्यक्तित्व का अंग बन जाते हैं। व्यक्ति का व्यवहार उसकी आन्तरिक भावनाओं तथा बाह्य वातावरण से संचालित होता है। परिश्रमी व्यक्ति परिश्रम की सहानुभूति वाला सहानुभूति के व्यवहार को व्यक्त करता है। 

अतः यह स्पष्ट है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व की विकास की अवस्थाओं के किसी एक साँचे में नहीं ढाला जा सकता। न उसे आयु के अनुसार, न विकास की सामान्य अवस्थाओं के अनुसार व्यक्त किया जा सकता है। व्यक्तित्व के विकास की अवस्था की अवधारणाएँ वस्तुतः व्यक्ति के वंशानुक्रम तथा वातावरण से सम्बन्धित हैं। उनके विभिन्न तत्व विकास की भिन्न धारणायें हैं। 

वुडवर्थ के शब्दों में व्यक्तित्व के गुण हमारे व्यवहार का एक मुख्य प्रकार का ढंग है, जैसे - प्रसन्नता, आत्म विश्वास आदि जो कुछ समय तक हमारे व्यवहार के गुण ही होते हैं किन्तु कुछ दिनों के बाद हमारे परिवर्तित होने वाले सक्रिय संस्कार हैं। ये संस्कार कम से कम अंशतः हमारी विशिष्ट आदतों से उत्पन्न होते हैं और हमारे वातावरण के ढंग को बनाते हैं।

व्यक्ति के व्यक्तित्व को विकसित करने में विद्यालयी जीवन प्रमुख भूमिका का निर्वाह करता है।
  • बालकों में विकसित हुए मैत्री सम्बन्ध व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं।
  • पाठ्यक्रम का प्रभाव बालकों में रुचि विकसित करता है। पाठ्यक्रम के माध्यम से सीखी गई अनेक क्रियाओं से हमारा व्यक्तित्व निर्मित होता है।
  • पाठ्यक्रम का लचीलापन, छात्रों की क्षमताओं तथा योग्यताओं को प्रभावित करता है।
  • परीक्षा प्रणाली भी व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। 
  • अध्यापक/अध्यापिका का व्यक्तित्व भी व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है।
मेकन के अनुसार - "अध्यापक में भय, चिन्ता, अप्रसन्नता, आत्मदया, आत्म चेतना, संवेदात्मक कुप्रबन्ध का प्रभाव जहाँ एक ओर अध्यापक को प्रभावित करता है, वहाँ वह छात्रों के व्यक्तित्व को प्रभावित करता है। मनोवैज्ञानिक भिन्नता दो व्यक्तियों में व्यक्तित्व भेद दर्शाती है, व्यक्ति का अहं भी व्यक्तित्व को एक रूप प्रदान करते हैं।"
इस Blog का उद्देश्य प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रतियोगियों को अधिक से अधिक जानकारी एवं Notes उपलब्ध कराना है, यह जानकारी विभिन्न स्रोतों से एकत्रित किया गया है।